श्री रामकृष्ण शास्त्री का परिवार एक प्रतिष्ठित परिवार था | सारे मुहल्ले में उनकी साख थी |सभी उनकी बहुत इज्जत करते थे |प्रतिष्ठित होने के साथ उनका परिवार बड़ा निराला था | उनके घर में कर्म और भक्ति की धारा अनवरत प्रवाहित होती थी। शास्त्री जी के दो बेटे थे | बड़ा बेटा जीवन और छोटा किशोर | दोनों सुबह १० बजे अपने काम पर निकल जाते | बड़ा बेटा पास के एक गाँव में स्कूल मास्टर था और छोटा बेटा सहकारी बैंक में क्लर्क | घर में कौन क्या करता है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था , वे इस बात पर ध्यान नहीं देते थे | समय पर भोजन करना, आराम करना, कमाने जाना और अपनी कमाई पिताजी के हाथ में रख देना, उन दोनों का बस यही कार्य था| घर की कमान शास्त्री जी के हाथ में थी |
बड़ी बहू गंगा भक्ति की धारा की सूत्रधार थी, उसके साथ ,उसकी सास कलावती शास्त्री का पूरा आशिर्वाद था | वे बहू के गुण गान करते थकती नहीं थी | छोटी बहू कविता का रूझान भक्ति में नहीं था ,वह जीवन में कर्म को प्रधान मानती थी | व्रत, उपवास, पूजा, पाठ में उसका मन नहीं रमता था | उसके ऊपर श्री राम कृष्ण शास्त्री की छत्र छ छांया थी|
इन दोनों धाराओं के बीच , एक धारा ऐसी बहती थी ,जो दोनों में समरसता बनाए रखती | वह थी रामकृष्ण शास्त्री की छोटी बेटी सरला, वह १३ साल की थी | ‘यथा नाम तथा गुण ‘ की उक्ति को चरितार्थ करने वाली सरला जब देखती , कि काम की अधिकता है ,तो वह छोटी भाभी की मदद कर देती | जब देखती ,कि कोई बड़ी पूजा है, तो वह बड़ी भाभी की मदद करती, फूल प्रसाद की व्यवस्था कर देती, साथ में आरती गाती | वह कविता से कहती – ‘भाभी आप भी कभी-कभी आरती पूजा किया करो ना, अच्छा लगता है |’ कविता कहती – ‘हाँ दीदी कोशीश करूँगी |’ बड़ी भाभी से कहती – ‘भाभी कभी-कभी आप भी खाना बनाया करो ना, अच्छा लगता है, अपने हाथो से भोजन बनाकर खिलाना |’ गंगा कहती – ‘हाँ दीदी अब मैं भी भोजन बनाऊँगी |’ सरला का सरल स्वभाव था, भोली थी और सबकी लाड़ली थी | उसे मना करने की इच्छा दोनों की नहीं होती |मगर, न कभी कविता ने आरती बोली, और न कभी गंगा ने खाना बनाया | दोनों अपनी मस्ती में मस्त थी, जीवन चल रहा था |
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सुबह-सुबह गंगा की पूजा-पाठ का कार्यक्रम शुरू हो जाता | सूर्य नारायण को अर्घ्य देना, तुलसी की पूजा, फूल तोड़ कर माला बनाना, दूर्वा तोड़कर लाना, भगवान का नैवेध्य बनाना, और फिर भगवान की पूजा करना | कई स्तोत्र, चालिसा का पाठ करना, माला फेरना ,आरती करना २-३ घंटे का कार्यक्रम रहता | सासुजी भी नहाकर आती तो उउनका’हरे राम, हरे कृष्ण’ चालू हो जाता | साथ में बड़ी बहू की तारीफ और छोटी बहू को जली-कटी सुनाने का क्रम भी चलता रहता | ध्यान माला में कम, इस बात में ज्यादा रहता ,कि छोटी बहू क्या कर रही है ?
कविता नहाकर आती ,सबका नाश्ता, चाय, खाना बनाती| दोनों भाई भोजन करके चले जाते | ११ बजे शास्त्री जी कहते – ‘बेटा कविता भूख लगी है|’ कविता कहती – ‘जी बाबूजी, अभी भोजन परोसती हूँ|’ पिताजी और सरला साथ में भोजन करते | १२ बजे सरला स्कूल चली जाती | बाबूजी कहते – ‘अरे वाह ! आज तो सब्जी बहुत अच्छी बनी है, और दाल….वाह ! क्या बात है ?’ वे हमेशा भोजन की प्रशंसा करते,और प्रसन्न मन से भोजन करते ,कहते- ‘बेटा तुम्हारी थाली कहाँ है, तुम भी भोजन कर लो |’
‘हाँ बाबूजी मैं भी खा रही हूँ, बस दाल थोड़ी गर्म कर लूँ |’ कविता बाबूजी के साथ भोजन करती |सास की वक्र दृष्टि कविता पर पड़ती, तो उनकी त्यौरी चड़ जाती | कहती – ‘लो इन्हें भी भूख लग गई , सारी मर्यादा छोड़ दी है |’
शास्त्री जी बोलते कुछ नहीं, इशारे से कविता को कुछ कहने के लिए मना करते,और हौले से उसके सिर पर हाथ रख देते | कविता को अपने सिर पर एक छत्र महसूस होता ,और सासुजी की बात का, उस पर असर नहीं होता | वह जानती थी ,कि वह कुछ गलत नहीं कर रही है | उसे मालुम था ,कि अगर, वह समय पर खाना नहीं खाएगी तो काम कैसे करेगी | वह ज्यादा उलझन में पड़ती नहीं थी, और अपने फर्ज से पीछे हटती नहीं थी ।भोजन करने के बाद ,उसने चौका साफ किया , बर्तन मांजे। तब तक, सासुजी और गंगा की पू़जा पूरी हुई, आरती हुई |
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कलावती जी गुस्से- गुस्से में कह तो देती, मगर, उन्हें इस बात का एहसास था, कि अगर कविता खाना नहीं बनाए तो सब भूखे रह जाऐं | भूख तो उन्हें भी लगी थी, वे इधर-उधर की बातें करती रही | कविता ने पूछा – ‘माँ ! आपको खाना परोस दूं ?’ ‘हाँ बेटा रख दे |’ गंगा ने भी भोजन किया | यह उनकी रोज की दिनचर्या थी | टकराव नहीं था | न गंगा कभी कविता से कुछ कहती, न कविता को गंगा की पूजा पाठ से कोई आपत्ती थी
वक्त परिवर्तनशील है, और ईश्वर की लीला अपरम्पार है | प्रभु का सबको समझाने का तरीका भी निराला है | एक दिन पंडित शास्त्री जी, और उनके बेटे किसी कार्य से बाहर गए थे | घर में उस दिन गंगा ने एक विशेष पूजा का नीयम ले लिया था | उसने, उसकी सारी तैयारी की | उसने, कह दिया था, कि ‘जब तक पूजा पूरी नहीं होगी, वह अपने स्थान से न उठेगी, न कुछ खाएगी, पीएगी |’ कलावती जी से उसने, इजाजत ले ली थी, और कविता को भी कोई आपत्ती नहीं थी | सरला ने भी बड़ी भाभी के काम में, उसकी सहायता की |
विधी का विधान, कलावती जी, जब नहाकर निकली तो, उनका पैर, फिसल गया और वे गिर पड़ी | उन्होंने आवाज लगाई – ‘गंगा ….गंगा….|’ मगर, गंगा तो पूजा में बैठी थी। आवाज सुनकर कविता दौड़ती हुई आई, उन्हें सहारा देकर, कुर्सी पर बैठाया ,और सरला से कहॉ – ‘दीदी आप पड़ोस में जाकर ,पप्पू भैया से कहो, कि वे जल्दी से अपना रिक्षा लेकर आ जाए, माँ को अस्पताल ले जाना पड़ेगा |’ कलावती जी मना करती रही – ‘अरे बहू ! जरा सी चोट है, सरसों के तेल की मालिश कर लूँगी |’ मगर, कविता ने उनकी एक नहीं सुनी | उसने सरला की मदद से ,माँ को रिक्षा में बैठाया ,और अस्पताल ले गई | वे दर्द से कराह रही थी | अस्पताल में X रे हुआ तो पता चला, कि पैर में फ्रेक्चर हो गया है | पैर पर पट्टा चड़ा, दवाईयाँ दी गई | दवाईयों से कलावती को कुछ राहत हुई, तो पहली बार , कविता के सिर पर हाथ रखकर बोली – ‘बेटी ! आज तू नहीं होती ,तो मेरा क्या होता ? फिर, कुछ चिड़कर बोली – ‘वह भक्तन तो ४ घंटे के पहले नहीं उठती |’ कविता ने कहॉ – ‘माँ , छोड़ो ना ये बातें , सब ठीक हो जाएगा |’
कलावती का बड़बड़ाना ,और कविता को कौसना, बंद हो गया था | घर में काम का बोझ बड़ गया था | गंगा ,मन की मैली नहीं थी, माँ की हालत देखकर उसे बहुत दु:ख हुआ | पछतावा भी हुआ, कि जब माँ को उसकी जरूरत थी, वह पूजा में बैठी थी |उसने माँ से मॉफी माँगी | पूजा के नियमों में शिथिलता आ गई थी, वह भी कविता के काम मे उसका हाथ बटाने लगी थी | कलावती और गंगा पर, तो ,कर्म की धारा के छीटे पड़ गये थे | मगर, कविता और राम प्रसाद शास्त्री जी ,अभी भी भक्ति से कोसों दूर थे |दोनों सिर्फ कार्य को, महत्व देते थे |
शास्त्री जी कपड़ों की बड़ी दुकान में, मुनीम का कार्य करते थे | बहीखाते में सारा हिसाब-किताब लिखते ,तारीख और समय भी लिखते | दुकान बहुत बड़ी थी, इसलिए अलग-अलग विभाग थे ,और उनका हिसाब-किताब रखने के लिए, अलग-अलग व्यक्ति नियुक्त थे |
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शास्त्री जी अपना , कार्य पूरा करने के बाद, दूसरों की भी मदद करते, उनका भी कार्य कर देते | कई बार दूसरों के कार्य का बोझ इतना हो जाता ,कि उनके अपने कार्य का नुकसान हो जाता | एक बार दुकान के मालिक उन पर, बहुत नाराज हुए, उनके आत्म सम्मान को ठेस लगी, और उनका मानसिक सन्तुलन गड़बड़ा गया | उन्हें तकलीफ हुई, कि इतनी मेहनत के बाद उन्हें क्या मिला | जिनकी मदद की, समय आने पर उन्होंने भी साथ छोड़ दिया | शास्त्री जी हैरान, परेशान से घर में घूमते | बात-बात पर झल्ला जाते , कुछ समझ नहीं पा रहे थे, कि क्या करें ? उनकी हालत से सब परेशान थे | कविता उनके सारे कार्य करती, मगर, बाबूजी की मन:स्थिति के सामने अपने को असहाय मान रही थी |
संध्या का समय था, एक दिन गंगा ने हिम्मत करके कहॉ – ‘बाबूजी एक बात कहूँ – “आपने जीवन भर कर्म की पूजा की है, आपने ईमानदारी से कार्य किया है, दूसरों की मदद की है, फिर आप परेशान क्यों हैं ? परेशान उन्हें होना चाहिये, जिन्होंने बेईमानी की |” शास्त्री जी को कुछ अच्छा लगा, कई दिनों से वे अकेलापन महसूस कर रहे थे |
‘वही तो बेटा, कोई मेंरी बात समझता ही नहीं, मालिक भी नहीं समझते |’ बाबूजी बच्चे की तरह बोल रहे थे – ‘समझ में नहीं आ रहा है, क्या करूँ ? ‘
गंगा ने कहॉ – ‘आप उनसे क्यों नहीं कहते ?’ ‘किनसे बेटा ?’
गंगा ने कहॉ – ‘अच्छा, आप अपनी सारी परेशानी एक कागज पर लिख दीजिए |’ शास्त्री जी को गंगा की बातें अच्छी लग रही थी, उन्होंने अपने मन की सारी भड़ास कागज पर लिख दी | गंगा ने कहॉ – ‘अब आप चलिये मेंरे साथ |’ वह उन्हें घर में विराजमान ठाकुर जी के पास ले गई, उसने दीपक जलाया और कहॉ – ‘आप इस कागज को, ठाकुर जी के चरणों में रख दीजिए, और अपनी सारी परेशानी इनसे कह दें | बाबूजी ने वैसा ही किया, वे आँखे बंद कर प्रार्थना कर रहे थे | उनके मन को शांति मिली | तनाव दूर हो गया |
शास्त्री जी को अन्दर ही अन्दर जो घुटन हो रही थी, वह बाहर आ गई, मन शान्त हो गया, और जब मन शान्त होता है ,तो सही दिशा में सोचता है | उन्होंने सोचा – ‘कुछ भी तो नहीं बदला, मुझे कार्य करना याद है, कार्य क्षमता मेंरे पास है, बस थोड़ा भटक गया था, अब मैं अपना पूरा ध्यान मेरे ,अपने कार्य पर केन्द्रित करूँगा, तो सब ठीक हो जाएगा|’उन्होंने ठाकुर जी के चरणों में नमन किया , गंगा के सिर पर हाथ रखकर आशिर्वाद दिया ,और सबको आवाज लगाई – ‘जीवन, किशोर, कविता, सरला सब यहाँ आओ | अपनी माँ की कुर्सी भी यहाँ ले आओ | आज हम सब गंगा बिटिया के साथ आरती करेंगे|’ सबने मिलकर ठाकुर जी की आरती की | सरला बहुत खुश थी, वह जोर-जोर से ताली बजा रही थी |
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आरती के बाद दोनों बहुओं ने ,भोजन परोसा ,और पूरे परिवार ने एक साथ में भोजन किया | अब तो रोज सुबह-शाम पूरा परिवार साथ में आरती करता, और दोनो बहुऐं साथ में भोजन बनाती | कर्म और भक्ति की धारा का समन्वय हो गया था, और , उनकी लहरें उछल-उछल कर पूरे परिवार पर खुशी की बौछार कर रही थी ।
#बहू
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित