ससुराल की देहरी – डॉ. पारुल अग्रवाल

आज अपराजिता की बेटी अन्वी की शादी थी। बेटी की ज़िद थी कि उसकी शादी की सारी रस्में मां के हाथों ही हों इसलिए अपराजिता को उस ससुराल की देहरी को लांघ कर फिर से कुछ दिन के वापिस आना पड़ा। ये ही तो वो दहलीज़ थी जिसको आज से लगभग पंद्रह साल पहले वो छोड़ चुकी थी। अन्वी उस समय दस-बारह साल रही होगी। आज बेटी की ज़िद और उसके प्रति कर्तव्य ने एक बार फिर उसको उस आंगन में खड़ा कर दिया था जहां वो जब से दुलहन का लाल जोड़ा पहन कर आई थी। वो जब तक यहां रही तब तक अपने अस्तित्व की कितनी ही लड़ाइयां लड़ती रही। 

अपने इसी फ़र्ज़ को पूरा करने के लिए वो शादी के दो दिन पहले ही आ गई थी। बेटी की मेंहदी हल्दी की जैसी रस्मों में वो बराबर बेटी के साथ बनी रही lआज कन्यादान के बाद जब बेटी विदा हो गई तब वो मेहमानों के कमरे में से एक कमरा जो उसके लिए आरक्षित किया गया था,वहां जाकर बिस्तर पर निढ़ाल सी होकर लेट गई। अभी उसको दो दिन और वहां रुकना था क्योंकि बेटी को कल पगफेरे की रस्म के लिए भी आना था। 

इस रस्म के बाद जो इस घर के साथ उसका अकेला बंधन बचा था उसकी भी इतिश्री हो जायेगी । यही सब सोचते-सोचते पता नहीं कब वो अतीत के उन पलों में चली गई जहां से उसकी जिंदगी की दिशा ही बदल गई थी। आज से लगभग पच्चीस साल पहले वो बहुत ही बातूनी, अल्हड़ और नदी की धारा सी चंचल युवती थी। उसकी बातों और शरारतों से घर गुलज़ार रहता था। जहां पापा की वो लाड़ली थी,वहीं दादी

को लड़की जात होकर उसका बेबाकपन बिल्कुल ना भाता था। दादी की ज़िद की वजह से ही कॉलेज के आखिरी साल में उसके लिए लड़के देखे जाने लगे। सभी रिश्तों में उसके पिताजी को नीलेश का रिश्ता मन को भा गया। नीलेश बहुत ही मितभासी, आयकर विभाग का बड़ा अधिकारी और अपने घर का इकलौता चिराग था। घर में नीलेश की बूढ़ी माताजी के अलावा एक तलाकशुदा बहन थी। 




अपराजिता के पिताजी को लगा ये रिश्ता ही उनकी बेटी के लिए सबसे उपयुक्त रहेगा। उनकी बेटी इतने बड़े अधिकारी की पत्नी बनकर पूरे ठाट से रहेगी। पर कहते हैं ना कि हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती ऐसा ही कुछ अपराजिता की ससुराल का हाल था। पति की असमय मौत, उस पर जवान बेटी के तलाक़ ने नीलेश की माताजी की जिव्हा को बहुत ही कर्कश बना दिया था। शादी के दो दिन बाद ही अपराजिता का किसी भी बात पर हंसना-बोलना उन्हें अखरने लगा था।

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वो नवविवाहिता थी,उसके भी कुछ सपने थे पर जब भी वो अपनी इच्छानुसार कुछ पहनना-ओढ़ना करती तब ही सास के ताने उसका दिल चीर देते। वो उस घर में बिल्कुल अकेला महसूस करती थी। जब भी वो दो घड़ी नीलेश के पास बैठने की कोशिश करती तब तलाकशुदा ननद ज़हर भरी नजरों में उसको देखती। कुल मिलाकर ससुराल का माहौल उसको बहुत घुटन भरा महसूस होता। दिन में तो नीलेश का साथ दो बोल भी नहीं पाती थी पर रात को भी जब वो सास और ननद की कोई बात उससे करना चाहती तब वो अपने बेटे होने की फर्ज़ की बात कहकर सब बातों से पल्ला झाड़ लेता।

नीलेश का अपराजिता के साथ तन का रिश्ता तो बना पर दूसरे घर से आई लड़की के मन का मर्म समझने में वो असफल रहा। कई बार उसकी सास उसको तरह-तरह के कर्मकाण्ड में उलझाए रखती। अपराजिता पड़ोस में किसी से बात करती तो सास को लगता जरूर उसकी और उसकी बेटी की बुराई कर रही होगी। इन सबमें जीवन के दस-बारह साल निकल गए थे। अन्वी भी पैदा हो गई थी पर सास जरा भी नहीं बदली थी।

एक बार तो हद ही हो गई वो तेज़ ज्वर से तप रही थी, सर्दी और चक्कर से उसकी हालत खराब थी ऐसे में उसकी सास ने उसको तीन बजे नहाकर पूजा करने का फ़रमान सुनाया था।आज अपराजिता की हिम्मत जवाब दे गई थी।वो ससुराल की इस जंग को अकेले लड़ते-लड़ते थक गई थी।

अब तक उसने अग्नि के समक्ष लिए फेरो की खातिर इस रिश्ते को निभाने की बहुत कोशिश की थी पर आज उसे अपनी ज़िंदगी का निर्णय लेना था। वो घुट-घुट कर नहीं जीना चाहती थी। उसने फैसला किया,सबसे पहले तो अन्वी का एडमिशन एक बोर्डिंग स्कूल में करवाया जिससे वो यहां के माहौल से दूर रह सके। फिर बिना तलाक के नीलेश के साथ आपसी सहमति से वो अलग हो गई। अलग होने से पहले उसने अपने लिए एक कमरे का मकान और स्कूल में नौकरी ढूंढ ली थी। वो बहुत स्वाभिमानी थी इसलिए उसने मायके भी जाना उचित नहीं समझा। 




इस तरह उसकी और नीलेश की राहें अलग-अलग हो गई। घर से निकलते हुए जब उसने अपना मंगलसूत्र,सुहाग चिह्न रूपी बिछुए और कंगन नीलेश को थमाए थे तब भी उसको लगा था कि शायद नीलेश पीछे से आवाज़ लगाकर उसको रोक लेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलग होने के बाद उसने नौकरी के साथ अपनी आगे की पढ़ाई ज़ारी रखी। आज वो कॉलेज में प्रोफेसर है। उसको अपनी ज़िंदगी में ससुराल की देहरी लांघने का कोई अफसोस भी नहीं था क्योंकि बेटी के सारे फर्ज़ उसने अच्छे से निभाए थे। उसने अपनी बेटी को उसके परिवार, पिता,दादी और बुआ से भी दूर नहीं किया था। बेटी हॉस्टल से जब घर आती तो हमेशा अपने पिता के पास ही रुकती। हर सप्ताहंत पर वो बेटी से मिलने जाती।

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बेटी की शादी की सभी रस्में नीलेश और उसने एक साथ निभाई पर शायद साथ रहना दोनों की किस्मत में नहीं था।आज भी नीलेश की माताजी और बहन का व्यवहार वैसा ही था पर अन्वी की ज़िद की वजह से वो अपराजिता को कुछ नहीं कह पाई थी। वो ये सोच ही रही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई, देखा तो सामने नीलेश था। नीलेश के हाथ में एक पोटली थी। नीलेश ने उस पोटली को अपराजिता को देते हुए कहा कि ये तुम्हारी अमानत है, अब लौट आओ। इस परिवार को तुम्हारी ज़रूरत है। अपराजिता ने पोटली खोली तो देखा, उसमें मंगल सूत्र, बिछुए और उसके कंगन थे। अपराजिता ने नीलेश को वो पोटली लौटाते हुए बड़ी ही विनम्रता से कहा अब बहुत देर हो चुकी है, काश तुमने ये बात पहले कही और समझी होती तब शायद हमारा एक खुशहाल परिवार होता। 

तुम अच्छे बेटे और भाई तो बन गए पर अच्छे पति नहीं बन पाए।अब एक छत के नीचे सुखी परिवार की तरह रहना मेरे लिए संभव नहीं है। ये कहकर अपराजिता नीलेश को वहीं छोड़कर अन्वी के पगफेरे के शुभ मुहूर्त का समय पता करने चली गई। अपराजिता की दृढ़ता देखकर आज नीलेश को लग रहा था कि काश उसने सही समय पर सही निर्णय लिए होते तो आज उसका परिवार एक साथ होता। 

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। पति और पत्नी गृहस्थी के दो पहियें हैं। किसी भी परिवार की बुनियाद मजबूत बनाने में दोनों पहियों के बीच उचित तालमेल आवश्यक है।

#परिवार

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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