’भय बिना होत न प्रीत’’  – अनुराधा श्रीवास्तव “अंतरा “

सुना है गरजने वाले बादल कभी बरसते नहीं….पर अस्सी साल के राममनोहर गरजते भी थे और बरसते भी। चार बेटे, चार बहुंये और 12 पोते पोतियों से भरा पूरा परिवार है राममनोहर का। गरजने को तो उन पर ही गरजते थे पर उन पर बरस सके, अब शायद इतनी उनमें हिम्मत नहीं थी इसलिये बरसते उस पर थे जिसके बिना शायद उनका एक दिन भी न कट सके।

कहने को तो यह एक संयुक्त परिवार हेै, पर सबका चूल्हा चौका अलग है। राममनोहर जाने किसके हिस्से में आते हैं, उन्हे खुद नहीं पता। जब बटवारा हुआ था तब तो यही फैसला हुआ था कि हर बेटा तीन महीने अपने पिता को रखकर देखभाल करेगा लेकिन राममनोहर की खटिया चूंकि संयुक्त दालान में पड़ी थी

इस वजह से किसके महीने कब पूरे हुये यह जान पाना मुश्किल हुआ और धीरे धीरे राममनोहर रामभरेासे हो गये। हां यही तो था वो, जिस पर वो बरसते थे…रामभरोसे। पन्द्रह साल का एक किशोर। जब राममनोहर को मालूम हो गया कि सुबह शाम की रोटी के सिवा यहां उसे कोई नहीं पूछने वाला तो एक लड़के को उन्होने अपनी सेवा के लिये रख लिया। उसी दालान के एक कोने में वो भी चटाई बिछाकर सो जाता। राममनोहर के काम से ज्यादा से तो वो बहुओं के काम करता लेकिन रामभरोसे की दो सौ रूपये की तनख्वाह किसी से नहीं निकलती। 

        किसी जमाने में राममनोहर फौज में हुआ करते थे, उसी की पेंशन के सहारे बुढ़ापा कट रहा है वरना लड़कों ने जमीन जायदाद का बटवारा करवाकर राममनोहर को दरवाजे पर बैठा दिया है। बेटियां भी अपने अपने घर केा रवाना हुई और आना जाना न के बराबर हो गया। आती भी क्यों, तीज त्योहारी के लिये हर भाई एक दूसरे का मुंह देखता था। घर आ भी गयी तो विदाई में जो सौ दो सौ राममनोहर ने दिये सो दिये वरना बेटे तो ऐसे निर्लज्ज हो गये थे कि जोरूओं के पल्लू से मुंह दाबे खड़े रहते थे। राममनोहर ने भी अब विरोध करना या उम्मीद करना छोड़ दिया था। 

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एक दिन रामभरोसे को हल्का बुखार हुआ और धीरे धीरे बढ़ता ही गया कि उसने खटिया पकड़ ली। जहां रामभरोसे खुद दूसरों का काम कर रहा था वहीं रामभरोसे को अब कोई पानी पूंछने वाला भी नहीं था। राममनोहर से अब उसका यह हाल देखा नहीं जा रहा था और अपने स्वार्थी परिवार वालों को गालियां बकने के अलावा वो कर भी क्या सकते थे। जैसे तैसे उन्होने रामभरोसे के परिवार वालों को खबर पहुंचायी और रामभरोसे को उसके घर भिजवा दिया, साथ में दवा दारू का पर्याप्त धन भी दे दिया लेकिन अब राममनोहर की खेाज खबर लेने वाला भी कोई न था, एक एक दिन बड़ी मुश्किल से कट रहा था लेकिन घर वालों को तो जैसे कोई फर्क ही नहीं पडता था कि तभी रामभरेासे के जाने के तीसरे दिन एक लड़की दरवाजे पर आ खड़ी हो गयी, उम्र होगी यही कोई 16 साल। 

राममनोहर से बोली,’’बाबा मैं रामभरोसे की बड़ी बहन रमणी हूँ । भैया ने बताया आपकी सेवा के लिये कोई नहीं है तो जब तक वो बीमार है, मैं ही आपकी सेवा करूॅंगी।’’

राममनोहर को तो मानो भगवान मिल गये, उसने रमणी को सारा काम समझा दिया और चिंता मुक्त हुये लेकिन ये क्या, राममनोहर की बहुओं   ने रमणी पर भी कब्जा जमा लिया, अब रमणी से तो पूरे घर का काम ले रही थी। बेचारी रमणी इतनी सीधी थी कि कुछ बोल नहीं पा रही थी और दिन भर चार घर के काम में खटी जा रही थी। धीरे धीरे राममनोहर ने देखा कि उसके चारो बेटे अब पहले की अपेक्षा घर पर ज्यादा रहने लगे हैं और जिस दालान में पहले कुत्ते लोटा करते थे अब वहाॅं उसके बेटे डेरा डाले रहते हैं। 




राममनोहर को अब माजरा समझ आ रहा था कि ये चारों रमणी की खूबसूरती पर फिदा थे और उस पर डोरे डाला करते थे इसलिये उनकी पत्नियाॅं घर में कम आने देती थी और जब रमणी का काम खतम हो जाता था तो उन्हे दालान में नहीं आने देती थी। एक दिन ऐसा भी आया कि बहुंओं को रमणी का घर में आना खलने लगा क्योंकि वह यह नहीं चाहती थी कि उनके पति किसी और के रूप का गुणगान करें या किसी और पर लट्टू होते फिरें और क्या भरोसा कल को सौतन ही बन कर सर पर बैठ जाये तो क्या करेंगी। रोज रोज घर में कलेश और झगड़े होने लगे। राममनोहर ये सब देख रहा था और मन ही मन खुश भी हो रहा था कि अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे क्योंकि बहुयें रमणी को घर से भगाने को कह नहीं सकती वरना राममनोहर का खाना पानी, सेवा सत्कार उन्हे करना पड़ेगा और अगर रमणी घर पर रहती है तो उनका वैवाहिक जीवन नष्ट होता जायेगा। 

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एक दिन चारों बहुंओं ने आपस में बातचीत की और यह निष्कर्ष निकाला कि अपने ससुर से इस बारे में बात करेंगी। चारों बहुयें राममनोहर के पास पहुंची और राममनोहर से साफ साफ बोली कि ’’रमणी को निकाल बाहर करो। जवान लड़की है, कल को कुछ ऊँच नीच हो जाये तो किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।’’

“ऊँच-नीच? क्या कहती हो बहू? कुछ खुल कर कहो।’’ राममनोहर ने सबकुछ जानते हुये भी अन्जान बनते हुये कहा। 




“कुछ नहीं पिता जी, लेकिन कोई भविष्य तो नहीं देख पाया। कुछ हो जाये तो।’’ अब बहुंये अपने पतियों की हरकतें खुलकर कैसे कहती सो बात घुमाते हुये बोली। 

“अरे नाहक परेशान होती हो। वो तो यहीं दालान में पड़ी रहती है। मेरा खाना पानी बनाती है, मेरी सेवा करती है। कुछ नहीं होगा और अगर उसे हटा दिया तो मुझ बूढे को तो कोई एक गिलास पानी भी नहीं पूंछता। रामभरोसे की जगह तो मैं अब रमणी को ही हमेशा के लिये रख लूंगा। खाना भी अच्छा बनाती है।’’ राममनोहर ने बहुंओं का जी जलाने की कोई कसर न छोड़ी 

चारों बहुंओं ने एक दूसरे का मुंह देखा और आंखों ही आंखों में फैसला हो गया। 

” आप परेशान मत हो, अब आपको किसी की जरूरत नहीं होगी, हम चारों आपका सारा काम करेंगे। कोई कमी नहीं होगी। बस आप रमणी को हटा दो।’’

“सोंच लो, अगर मुझे फिर से कोई परेशानी हुई तो रमणी का गांव दूर नहीं है, मैं फिर से उसे बुला लूंगा।’’ राममनोहर ने अपना आखिरी दांव भी फेंक दिया। 

चारों बहुंये राममनोहर के पैरों में लोट गयी और जीवन भर राममनोहर की सेवा करने का वचन दिया। राममनोहर ने रमणी को विदा किया और ठाठ से दीवानखाने में रहने लगा। बहुयें पूरी लगन से अपने ससुर की सेवा करती और अपने पतियों को भी पिता की सेवा करने को कहती। अब घर की बेटियाॅं भी पूरे सम्मान से अपने घर आती जाती थी। राममनोहर आज भी रमणी को दिल से धन्यवाद देता है कि अगर रमणी न आयी होती तो उसका बुढ़ापा दालान में ही अनाथों की तरह बीत गया होता और उसकी बहुंओं ने उसकी कभी सुध न ली होती।




 सच ही है “भय बिना होत न प्रीत।’’

#जन्मोत्सव विशेष 

मौलिक 

स्वरचित 

अनुराधा श्रीवास्तव “अंतरा “

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