कहते हेना एक स्त्री दीवारों, छत को घर बनाती है ,एक स्त्री घर में सुकून लाती है एक स्त्री घर की अन्य महिलाओं के मनोभावों को समझ ,अपनापन देकर घर को जन्नत बनाती है ।
ऐसे ही सुशीला ने अपने घर को जन्नत बनाया ।
ये कहानी 60 70 के दशक की है ,सामान्य ग्रामीण परिवेश ,जहां बेटी के लिए बस यही कर्तव्य था कि बस चिट्ठी पत्री पड़ने लायक पढ़ाई करा दी जाए और जल्द से जल्द शादी और बस संभाले अपनी ग्रहस्ती।
इन्हीं विचारधाराओं के बीच सुशीला की शादी पास के गांव में 13 वर्ष की उम्र में हो जाती है । कम पड़े लिखे होने का मलाल रहा उसे हमेशा पर ससुराल की परंम्परा थी स्त्रियों का बाहर जाकर पड़ना वर्जित था भले उनके गाँव में 8वीं तक स्कूल था ।
धीरे धीरे समय बीतता गया और वह तीन बेटों की माँ बनी । उसे बेटी का बड़ा चाव था लेकिन भगवान की मर्जी के आगे किसकी चली यही मान कर, तीन बेटों की परवरिश में लग गई।
कभी कभार छोटे मोटे काम सफाई या कपड़ा तह करना आदि काम अगर अपने बेटों से कराती, तो माताजी (सासुमां) की चार बातें सुनने मिल जातीं , अरी लुगाइयां का काम काय कराये मारे छोरों से ,खेलने दे उको। वह कहती माताजी काम तो काम है छोरा छोरी से का अंतर, अपने काम तो स्वयँम करने भी चाहिए हेना , काम पड़ने पर खाना बनाना आये तो भूखे भी न रहेगें छोरे, पर माताजी ठहरी पुरानी परम्पराओंवादी ,पसन्द नहीं था तो नहीं था ।
उनके सामने उसकी न चलती, पर फिर भी वह अपने तीनों बेटों को यही समझाती की स्त्री पुरूष में दोनों बराबर होते हैं अगर कोई काम पुरुष कर ले या पत्नी का जरूरत के वक्त हाथ बटा दे तो उसका ओहदा छोटा नहीं हो जाता बल्कि पत्नी की नजरों में ओर उसके लिए प्यार इज्जत बड़ जाती है।
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समय के साथ माताजी परलोक चलीं गईं और समय अपनी गति से चलता रहा । बड़े बेटे श्याम की शादी की तैयारी भी होने लगी पड़ोस के गाँव के परिवार की लड़की 5वी पास थी बसुधा, उससे रिश्ता तय हुआ ।
शादी के बाद नाते रिश्तेदार का कुछ दिन जमघट रहा , कुछ दिनों में सामान्य दिनचर्या में लौटने के बाद , नई बहू ने आगे पड़ने की इच्छा व्यक्त की ,पर गांव के परिवेश में जहां बेटी की आगे की पढ़ाई को महत्ता नहीं दी जाती वहां बहु का कैसे संभव था।
लेकिन अम्मा समय से आगे की सोच रखतीं थीं , बोली अगर एक पुरुष शिक्षित किया जाए तो केवल वही शिक्षित होता है, ओर अगर एक महिला को शिक्षित किया जाए तो पूरी पीढ़ी शिक्षित होती है।
बड़ा बेटा श्याम 20 किलोमीटर दूर जाकर बैंक में नोकरी कर रहा था उसे भी कोई ऐतराज नहीं था बसुधा की आगे की पढ़ाई के लिए।
कुटुंब के लोगों ने तो अम्मा से कहा हमारे घर की परंपरा नहीं है बहु बाहर जाकर पढ़ाई करे , आखिर करना क्या है इतनी पढ़ाई का चिट्ठी पत्री पड़ लेती है और क्या करना ,सम्भालना तो घर ही है ।
पर अम्मा ने किसी की न सुनी परम्परा अगर किसी अच्छे काम के लिए बदल रही है तो उसमें कोई बुराई नहीं बाऊजी से साफ साफ कह दिया मेरी बेटी नहीं है तो क्या हुआ ,अगर मेरी बहु आगे पड़ना चाहती है तो वह जरूर पड़ेगी अभी मेरे हाथ पैर चल रहे घर में भी संभाल सकती हूं ।
अंततः स्कूल में दाखिला हो गया । बसुधा के मन में अम्मा के प्रति आदर सम्मान और भी बढ़ गया था । वह घर के काम में भी रुचि लेती ओर पढ़ाई भी करती ।
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कुछ साल में दूसरे बेटे की शादी हुई सुमन से उसे भी वसुधा के साथ स्कूल में पढ़ाई का मौका मिला ।
मंझले बेटे की शहर के बिजली विभाग में नोकरी लग गई थी सुबह की बस से जाता शाम को लौट आता ।
रविवार को घर की महिलाओं की एक टाइम के खाने की छुट्टी होती सब भाई मिलकर दाल बाटी बनाते ओर पूरा परिवार साथ खाना खाता ।
अम्मा का काम उस दिन अच्छा सा मीठा बनाने का होता।
आगे जाकर बड़े बेटे ने शहर में घर ले लिया और आगे की पढ़ाई बसुधा ने जारी रखी शहर में ,इस बीच 2 बच्चों की माँ भी बनी । कुछ सम्यपश्चात सरकारी स्कूल में नोकरी भी लग गई। मंझली बहु भी गांव के स्कूल में पढ़ाने लगी ।
अम्मा की परवरिश के कारण नोकरी करने के बाबजूद घर गृहस्थी चलाने में परेशानी का सामना नही करना पड़ा , क्योंकि बेटों को छोटे मोटे काम करने की आदत थी हर चीज के लिए पत्नी पर आश्रित नहीं थे।
अम्मा ने जो परम्परा बदली थी , पीढ़ी दर पीढ़ी उस परंपरा का निर्वाहन अच्छे से हो रहा है , वसुधा की बहू भी कॉलेज में प्रोफेसर है ।अम्मा की दोनों बहुएँ प्रंसिपल पद से रिटायर्ड हुईं और छोटी बहु ने अपनी मर्जी से घर सम्भालना चुना।
अगर घर में स्त्री को प्यार के साथ सम्मान मिलता है, उसकी इच्छा का मान रखा जाता है वह घर जन्नत से कम नहीँ होता ।
नंदिनी
#5वां जन्मोत्सव