सदा सुहागन – डॉ. पारुल अग्रवाल

आज नंदा की मां सदर्श ताई जी का देहांत हो गया था,सब लोग एकत्रित हुए थे।अधिकतर महिलाओं के मुंह पर एक ही बात थी कि बहुत ही सौभाग्यशाली थी,जो सुहागन ही मृत्यु को प्राप्त हुई।कुछ ये भी कह रही थी कि वैसे भी बहुत ही किस्मत वाली थी जो गरीब परिवार से आई थी और यहां इतने बड़े अमीर परिवार की बहु बनी। पति भी इतने प्रसिद्ध  उद्योगपति जो कि समाज सेवा के लिए कई संस्थाओं से जुड़े हैं। उन सबकी बातें सुनकर ऐसा लग रहा था कि वो मृत आत्मा के लिए शोक प्रकट करने कम अपितु उसकी ससुराल और पति का गुणगान करने यहां आई थी। 

नंदा एक तरफ बैठी ये सोच रही थी कि आज भी किस सदी में जी रहे हैं हम? क्या आज भी किसी महिला का सुहागन मारना और किसी बड़े अमीर खानदान की बहु होना ही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है? ये सब सोच ही रही थी कि ताई जी से जुड़ी सारी यादें एक-एक करके मेरे मन मस्तिष्क पर हावी होने लगी। 

ताऊजी और नंदा के पिता जी कुल मिलाकर चार भाई बहिन थे। पापा सबसे छोटे थे, ताऊजी दो लड़कियों के बाद हुए थे इसलिए दादा-दादी की आंखों का तारा थे। दादाजी की इतनी बड़ी जमींदारी और साथ में चावल की कई मिलें थी। भरा-पूरा नौकरों से भरा घर था। सब ताऊजी को अपने हाथों-हाथ रखते थे। पिताजी, ताऊजी के दस साल बाद पैदा हुए, तब तक ताऊजी को इकलौते वारिस के रूप में खूब दुलार मिला। एक अमीर परिवार का बेटा और ज्यादा लाड़-दुलार होने के कारण सारे व्यसन ताऊजी में आ गए थे। सारे दिन दोस्तों में घूमना,शराब और लड़कियों पर पैसा लुटाना उनके शौक बन गए थे। ताऊजी को पूरी तरह हाथ से निकलता देख दादाजी को थोड़ी चिंता हुई। अब उनको एकमात्र विकल्प ताऊजी का विवाह करवाना ही लगा। एक छोटे से दुकानदार जिसकी दुकान दादाजी के पास गिरवी रखी थी। उसकी पुत्री बहुत ही सुंदर और सुशील थी। उसका कर्ज़ माफ करने के बदले दादाजी ने ताऊजी के लिए उसकी पुत्री का हाथ मांग लिया था। 




वो बेचारा ना चाहते हुए भी अपनी पुत्री का विवाह ऐसे अमीर घर के बिगड़े चिराग के साथ करने को मजबूर था। अगर वो विवाह के लिए मना भी करता तो भी दादा जी उसका गांव में रहना मुश्किल कर देते। ऐसे हालातों में स्वभाव से बहुत ही सौम्य और चेहरे से भी बहुत ही मासूम ताई जी इस घर की बहु बनकर आ गई। शुरू में तो कुछ दिन सब सही रहा पर फिर ताऊजी की पुरानी दिनचर्या शुरू हो गई। घर में इतनी सुंदर पत्नी के होते हुए भी पूरी-पूरी रात घर से बाहर रहना उनकी आदत बन गई थी। बेचारी ताई जी अकेली पड़ी रहती। पिताजी, ताऊजी के सगे छोटे भाई थे पर स्वभाव और आदतों में बिल्कुल उनसे बिल्कुल विपरीत थे। पूरे घर में वो ही सिर्फ ताई जी से हमदर्दी रखते, बात करते और उनका छोटे भाई की तरह ख्याल रखते। पर अब पिताजी को भी उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाना था इस तरह उस घर में ताई जी को समझने वाले अकेले इंसान का साथ भी छूट गया। पर ताई जी ने खुशी-खुशी पापा को विदा किया। 

पिताजी पढ़ कर आए, बाहर बहुत अच्छी नौकरी मिल गई और फिर अपनी पसंद की लड़की मतलब मां से शादी कर ली। अपनी पसंद की लड़की से शादी करने पर दादा जी और दादी जी ने मम्मी को स्वीकार भी नहीं किया। वो तो सिर्फ ताई जी थी जिन्होंने मां को गले लगाकर गृह प्रवेश कराया था। मां पिताजी की शादी के दो साल बाद नंदा का जन्म हुआ था तब ताई जी ही थी जिन्होंने मां और नंदा का पूरा ध्यान रखा था। शादी के इतने साल बाद भी अपने बच्चे ना होने पर भी ताई जी ने बिना किसी दुराव के नंदा को अपने गले लगाया था। धीरे-धीरे नंदा बड़ी होने लगी, उसकी पढ़ाई भी बढ़ गई तो गांव आना कम हो गया पर अभी भी ताई जी का उसके प्रति प्यार और लगाव उसको गांव खींच ही लाता था। गर्मियों की छुट्टियों में वो हमेशा गांव आती थी। अब वो बड़ी हो रही थी धीरे-धीरे उसने महसूस किया कि अब ताई जी कई बार अपनी ही दुनिया में खोई रहती, दादी और बुआ से उनको बच्चा ना होने पर बांझ के ताने दिए जाते। ऐसा नहीं था कि उन्होंने डॉक्टर से अपने परीक्षण नहीं करवाए थे पर जांच में उनकी सब रिपोर्ट्स ठीक आती थी। डॉक्टर भी उनमें कोई कमी नहीं बताते थे।डॉक्टर उनके पति की जांच के लिए भी सलाह देते थे। पर ऐसा कुछ भी करना ताऊजी की शान के खिलाफ था। बेचारी ताई जी इतने संघर्ष करने के बाद अंदर ही अंदर टूट रही थी। अब तो नंदा भी मेडिकल की परीक्षा में चयनित हो गई थी। हॉस्टल जाने से पहले वो ताई जी से मिलने आई। वहां पर दादी और बड़ी दोनो बुआ जो की अपनी ससुराल में ना रहकर ज्यादातर वहीं पड़ी रहती थी, तीनों का ताई जी के प्रति व्यवहार देख कर चुप न रह सकी। तब उसको उम्र में छोटी और वो भी लड़की होकर घर के मामलों में हस्तक्षेप ना करने की सलाह देकर चुप करा दिया गया। 




ताई जी की हालत देखकर मन ही मन वो बहुत ही दुखी होती हुईं वापस आ गई। अब जब वो डॉक्टर बन कर वापस आई तब उसने ताई जी को फोन मिलाया पर उनसे बात ना हो पाई। मां-पिताजी से भी कुछ खास पता न चल सका। ज़िद करके वो गांव गई तो देखा ताई जी तो ब्रेन ट्यूमर से लड़ते हुए बिस्तर पर अपनी जिंदगी की आखिरी घड़ियां गिन रही हैं। उनकी सेवा में लगी एक पुरानी काम वाली ने ही बताया कि ताऊजी तो कभी-कभी ही अब घर आते हैं, उन्होंने चावल के मिल वाले बड़े घर में ही अपने से आधी उम्र की एक औरत के साथ रहना शुरू कर दिया। नंदा के मां-पिता जी ने भी ताऊ जी की इस हरकत का विरोध भी करना चाहा पर ताई जी ने ही उन दोनों को ऐसा कुछ करने से रोक दिया। शायद वो संघर्ष करते करते अब थक गई थी। जिस घर और पति के लिए उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, जब वो ही उनका ना हो सका तो वो किसी और से क्या उम्मीद करती। बाकी सब तो वो फिर भी सहन कर गई थी पर जीते जी अपने पति का किसी दूसरी औरत के साथ रहना उनको जिंदा लाश बना गया। तूफानों का उमड़ते संवेग ने उनको ब्रेन ट्यूमर की आखिरी अवस्था में पहुंचा दिया। शायद वो नंदा का ही इंतजार कर रही थी, नंदा की गोद में ही उन्होंने आखिरी सांस ली। ये सब बातें नंदा सोच ही रही थी तभी कुछ औरतों की आवाज़ सुनकर वो अपनी यादों की दुनिया से वापिस आई। वो आपस में अंतिम संस्कार से पहले ताई जी के श्रृंगार करने की बात कर रही थी, मांग भरवाने के लिए ताऊजी को बुलाया जा रहा था। ताऊजी बड़े गर्व से सामने से चले आ रहे थे। उनके चेहरे से लेशमात्र भी दुख नहीं दिख रहा था। नंदा का मन कर रहा था कि वो किसी तरह से ताऊजी को ताई जी की मांग भरने से रोक दे पर उसकी मां ने उसको भावनाओं पर काबू रखने के लिए उसका हाथ दबाकर समझाया। 

आज नंदा को लग रहा था कि वैसे तो किसी भी स्त्री की ज़िंदगी में संघर्ष पर कोई विराम नहीं लगता,पर किसी किसी के संघर्ष भरी रातों की कोई सुबह नहीं होती। केवल चिर निद्रा में सोने के पश्चात ही उसको आराम मिलता है।

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी, अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। हमारा समाज आधुनिकता के इस दौर में भी स्त्री की खुशहाली का आंकलन उसके पति की उपलब्धि पर ही निर्धारित करता है। आज भी पति चाहे जैसा भी हो पर पत्नी का सदा सुहागन होना ही उसके अच्छे कर्मों की निशानी होता है। पता नहीं कब बदलाव होगा और कब हमारा समाज स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान दृष्टिकोण रखेगा। मैं इस कहानी को इस आशा के साथ कि कल हमारा समाज पुरानी सोच से अवश्य बाहर निकलेगा, यहीं पर विराम दे रही हूं।

#संघर्ष

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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