एक कटोरी सालन  – डा उर्मिला सिन्हा

     ” सो गए।”

  ” नहीं तो।”

 “अभी तक जाग रहे हो”।

“आज तुमने बड़ी देर लगा दी ।”

“हां, आज छोटी के मायके वाले आते थे । चौका-चूल्हा समेटते बारह तो बज ही गये.. खैर….”लंबा नि:श्वास!

“तुमने खाना खा लिया।”

“तो क्या भूखा बैठा हूं।”

  “नाराज क्यों होते हो बाबा ,लो जरा हाथ  बढ़ाओ।”

“अब क्या है…?”

“कुछ है तो जरूर “पोपले मुंह की हंसी।”

    पूस की रात कितनी सर्द होती है ।भला कोई इन बूढ़ी हड्डियों से पूछे। ठंड अस्थि-पंजर तक कड़कड़ा देता है ।कितना भी पहनो ओढो जाड़ा पीछा नहीं छोड़ता।बड़ी मुश्किल से गरमाये थे। अब उन्हें हाथ निकालना भारी पड़ रहा था।

” अब लें भी लो .….”!उस पार से आवाज आई।

एक हाथ इस पार आया। सुगंध से नासिका फड़क उठी। खाने-पीने के बेहद शौकीन प्रसाद जी को इस चटपटी खुशबू को पहचानते देर न लगी। विद्युत गति से हाथ स्वत: आगे बढ़ गया।

“क्या है इसमें “… वे रजाई फेंक उठ बैठे।

“एक कटोरी सालन है और क्या …!”

“सालन एक कटोरी , तो क्या मेरे लिए चुराकर लाई हो छोटे की मां…”! उनकी आंखें ऐसे फैल गई मानों पत्नी को देख पा रहे हों। सीधे,साफ जबकि  हकीकत में  दोनों के बीच  एक आठ इंची ,मोटी सीमेंट कंक्रीट की दीवार थी। इस पार वे और दूसरी तरफ उनकी धर्मपत्नी पार्वती ,इस निर्जीव दिवाल ने दो सजीव आत्माओं को एक दूसरे से कितना दूर कर रखा है उसे नहीं मालूम। मोतियाबिंद से धुंधलाई आंखों के लिए यह दिवार कभी कभी पारदर्शी भी बन जाता है।

इस घुप्प अंधेरे में ,मोटे दिवाल के उस पार बैठी पत्नी के प्रत्येक गतिविधियों पर नजर रखते हैं । पत्नी के लिए भी यह मोटी दीवार कांच की बन जाती है जब वे अपनी मन की आंखों से पति के झुर्रीदार चेहरे के एक एक उतार चढ़ाव को महसूसती हैं।

कैसी बातें करते हो जी , अपने ही बेटे के चौके से चोरी करूंगी। तुम्हें सालन बहुत पसंद है न।चखकर देखो । मैंने पकाया है।”पत्नी का मनुहार । उनकी बूढ़ी आंखें भर आईं।

“तुमने खा लिया?”

“हां जी ,खा लिया …. थोड़ा चखकर बताना कैसी बनी है?”



आज कितने दिनों के बाद पत्नी के हाथ का पका सालन सामने रखा है। उनकी जिह्वा चटपटाने लगी । उन्होंने कटोरी में हाथ डाला ।सालन के नाम पर दो टूकडे थे, तो क्या पत्नी ने अपने हिस्से का सालन लाकर मुझे परोस दिया । खुद नहीं खाया। क्यों करती है ऐसा ।खायेगी नहीं तो खटेगी कैसे ।उनका दिल भर आया।

“सुनो ,तुम्हारे हिस्से का , मैं नहीं खाऊंगा।”

“कैसी बातें करते हो जी,मेरा हिस्सा नहीं है, मैं तुम्हारे लिए ही लाई हूं।जिरह करने की तुम्हारी पुरानी आदत गई नहीं।”

“अब खा भी लो!'”

  अपनी बूढ़ी , कमजोर , लंबी उंगलियों के सहारे सालन का टुकड़ा उठा कर मुंह में डाल लिया। पत्नी के हाथों में जादू है।नीम अंधेरे में,पोपले मुंह में सालन का टुकड़ा चुभलाने लगे जैसे कोई समाधिस्थ योगी अपनी साधना में निरत हो।

 उन्होंने चाट_पोंछकर  सालन खा जब कटोरी इस पार सरकायी तो आधी रात बीत चुकी थी।वे पुनः रजाई में दुबक गए।

पति के प्रत्येक चटखारे पर पत्नी के दिल में हूक सी उठती। अतीत की यादों की गहरी खाई में डूबते-उतराते आंखें झपकने लगी।

….. पति खाने के जितना ही शौकिन थे उतनी ही खुशी उन्हें दूसरों को खिलाकर मिलती थी। इन्हीं हाथों से उसने पांच-पांच सेर सालन बनाया है । वह बहुत दिल लगा कर रसोई पकाती थी ।क‌ई _क‌ई मसाले डालतीं।तेल _मसाले में हाथ डूबे रहते। पति खाने का शौक पाले हो, पत्नी पका खिलाकर निहाल होती हो तो भला दावत उड़ाने वाले वाह- वाही क्यों न करें।हर तीसरे चौथे दिन घर में दावत होती । पति दावत देने। का बहाना तलाशते रहते। चाहे बच्चे। का जन्म दिन हो ,या उसनेे अपना पहला कदम धरती पर रखा हो या प्रथम दांत ही झलका हो।

    दावतें होती। अतिथि जमकर खाते। भोजन की तारीफ करते । परिश्रम से पकाने वाली अपनी थकान भूल हंस पड़ती। जिंदगी मजे में चल रही थी।

  दो बेटे।छोटा आदर्श परिवार, अच्छी आय जिंदादिल दम्पति नाते-रिश्तेदार इनके भाग्य पर रश्क करते। दाम्पत्य प्रेम का अनुपम उदाहरण था उनका जोड़ा।

    समय हाथ से निकलता गया। दोनों बेटे अच्छी जगह लग ग‌ए।

  

 ” देखो, पार्वती आज हमारा सपना पूरा हुआ।”

“हां_जी, ईश्वर हमारे जैसा संतान सभी को दें। इतना समझदार,आदर्श,आज्ञाकारी।”

पति-पत्नी फूले न समाते।

  दोनों बेटों की शादी हो गई।बहू मां बाप ने ही पसंद किया। साधारण परिवार की सुलक्षणा कन्या। आंखें नीची कर बहुओं ने घर में प्रवेश किया तो। उनकी। विनम्रता पर पति-पत्नी न्यौछावर हो उठे।कितना सुख _सौभाग्य । ईश्वर मेरे लाल, बहुओं को लम्बी उम्र दें।

  आज्ञा कारिणी बहुएं सास ससुर के आगे पीछे डोलती रहती। कुछ पूछो तो आहिस्ता से जबाव देतीं।सलज्जता की प्रतिमूर्ति दोनों बहुएं।

  समय पाकर आंगन में बच्चों की किलकारियां गूंजने लगी। दोनों बहुओं के आंचल में एक बेटा, एक बेटी।

  अब धीरे धीरे बहुओं का घूंघट सिर से कंधे पर आ गया। और जो होंठ हां और ना में जवाब देते थे वहीं आपस में मुंहतोड़ सवाल-जवाब करने लगे।प्रसाद जी अवकाश प्राप्त‌‌‌ कर चुके थे। परंतु एक बात थी बहुएं। आपस में जितना झगड़ती हों ,सास -ससुर को प्रत्यक्ष रूप से कुछ नहीं कहतीं थी।।लड़ाई झगडे में आड़े तिरछे आक्षेप होते रहते थे, जिसे पति पत्नी नजर‌अंदाज कर देने में ही भलाई समझते हैं। अब जहां चार बरतन होंगे खटकेंगें ही। और यहां तो दो जीती-जागती औरतें थीं।

 दोनों बहुओं को लड़ने का कोई खास मुद्दा नहीं होता था ।बात कहीं से शुरू होकर कहीं पहुंच जाती। बच्चों के झगडे से लेकर अपने अपने मायके तक।

  मितभाषी गमखोर सास -ससुर कभी बड़ी को समझाते कभी छोटी को।

  शुरू शुरू में तो वे मान जाती थीं । परंतु बाद में एक दूसरे को ज्यादा मानने का आरोप उनपर मढ़ने लगीं।

“अरे जाइए मां जी , आप क्या बोलेंगी। आप ने इस छोटी को सर चढ़ा रखा है वरना यह मेरा क्या मुकाबला करती।”

“ऐसा नहीं कहते बहू । तुम दोनों तो मेरी दो आंखें हो । तुम ही चुप लगा जाओ । तुम बड़ी हो।क्षमा बर्न को शोभत है –छोटन को अपराध।”

“अब हमको उपदेश मत दीजिए। छोटी को कुछ कहने के लिए जुबान नहीं है आपके पास।” बड़ी बहू के फुफकार पर सास की आवाज कण्ठ में ही घुटकर रह गई।

“अरे छोटी तुम क्यों बहस करती हो । कुछ तो बड़े छोटे का लिहाज करो।”प्रसाद जी पत्नी के अपमान पर तिलमिला उठे। बड़ी कुछ ऐसा वैसा न सुना दे । इस डर से वे छोटी की ओर मुखातिब हुए।

“हां लिहाज तो मुझे ही करना है न। छोटी हूं इसलिए सब मुझे ही कोसेंगें। बड़ी को कोई कुछ नहीं कहेगा।”आगे के बोल आंसुओं में डूब गए।



  घर कुरूक्षेत्र का मैदान बन गया था। दोनों योद्धा आमने-सामने, एक दूसरे पर वार करने का कोई भी तो अवसर हाथ से जाने नहीं देते।  पति-पत्नी चिंतित हो गए। इस तरह कैसे चलेगा। क्या बुढ़ापा इसी चिक चिक में व्यतीत होगा। बेटे इन्हें क्यों नहीं समझाते। इतना लड़ती क्यों हैं दोनों ।प्रेम से नहीं रह सकतीं।

वे अपने स्तर से इस मसले को सुलझाने का प्रयास करते। दोनों बहुएं आपस में रेशमी धागे की तरह उलझ ग‌ई थी । सुलझाने के प्रयास में एक सिरा पकड़ो तो दूसरा गायब। जोड़ने पर गांठ ही गांठ।

दोनों के बच्चे स्कूल जाने लगे थे। बढ़ते बच्चों के साथ जरुरतें भी सुरसा के मुंह की भांति बढ़ने लगती है। अब रात-दिन खर्चे का हायतोबा मचने लगा।

  हाय पैसा ,हाय पैसा । दोनों बहुओं को मन का खीझ निकालने का नया सूत्र हाथ लगा। जबकि हकीकत में दोनों के पतियों की अच्छी खासी कमाई थी।

कमाई में भी बरकत वहीं होती है जहां सुमति होता है ।जिसकी आमदनी का मोटा हिस्सा कीमती साड़ी , गहनों, होटलों को भेंट चढ़ जाये। एक रूपया भी दूसरे पर खर्चने में जी जलता हो , वहां पूरा पड़े कैसे?

प्रसाद जी प्राईवेट कम्पनी से प्रबंधक पद से अवकाश प्राप्त‌‌‌ किए थे।शाहखर्च व्यक्ति थे जो कमाया, जी भर कर उड़ाया। पेंशन मिलने का प्रश्न ही नहीं था।जो थोड़ी बहुत जमा-पूंजी थी बहू बेटों की निगाहें लगी थीं। इस तथ्य को वृद्ध दंपति खूब समझते थे। भविष्य का आहार उज्जवल नहीं दिखाई देता था। जवानी में जब कभी पत्नी उनके खुले हाथ पर टोंकती ,संचय का सलाह देतीं।वे हंसी में उड़ा देते।

“तुम भी भाग्यवान ,बस‌। अरे तुमने सुना नहीं है ।पूत कपूत तो क्या धन संचय ,पूत सपूत तो क्या धन संचय। हमारे बेटे सपूतों की श्रेणी में आते हैं ।खाओ पीओ मौज करो।कल किसने देखा है। हमारे बेटों में इतनी योग्यता है कि स्वंय राज भोगेंगे और हमें भी हथेली पर रखेंगे।”

“हां जी , कहते तो आप ठीक ही हैं।”पार्वती की धवल दंत पंक्तियां दूधिया रंग बिखेर देती। सुखी घर गृहस्थी ,प्रेमी पति और सुयोग्य बेटों को पाकर वह निहाल हो उठी थीं। संसार में कितने ऐसे प्राणी हैं जो इनकी तरह हर तरफ से निश्चिंत,सुख सागर में गोते लगा रहे हों।

  प्रसाद जी, पार्वती परोक्ष रूप से उपेक्षित थे हीं अब प्रत्यक्षत: भी अवहेलित थे।

“बहू , थोड़ी भांजी और देना।”तीन चार प्रकार की सब्जियां न हो तो प्रसाद जी को भोजन में आनंद नहीं आता।

“थोड़ा टहलूंगा । “वे पत्नी के सहारे उठ खड़े हुए।”चलो”दोनों धीरे धीरे चहल-कदमी करने लगे।तय हुआ पूरे बरामदे का एक चक्कर लगाया जाय । बैठक के दरवाजे तक आकर उनके कदम ठिठक गए। अंदर से आती स्वर  लहरियों ने उन्हें रूकने पर बाध्य कर दिया।

…..”एक दिन देख लेना इसी तरह तुम्हारे पिताजी टें बोल जायेंगे,सारा बैंक बैलेंस धरा का धरा रह जाएगा।” बड़ी बहू का स्वर था।

“तो क्या हुआ , मां तो रहेंगी।”छोटे बेटे ने कहा।

  “मां उन रूपयों का जेवर गढ़वायेंगी । क्या करेंगी मैं भी तो सुनूं।”बड़ी ने टिहूका।…. “इतना नहीं होता कि रूपया दोनों बेटों के नाम कर दें। आखिर इंसान कमाता किसके लिए है और जमा करता है अपने औलाद के लिए ही तो । दीदी ठीक ही तो कहीं हैं।”छोटी ने बड़ी का पक्ष लिया। बात-बात पर काट खाने को तैयार छोटी के मुंह से “दीदी”सम्बोधन सुन बड़ी भावविह्वल हो गई।

“देख लो छोटी तुम भी–अब इन श्रवणकुमारों को कौन दुनियादारी समझावे।हम तो पैसे पैसे को तरसें और वो इसे दाबकर कुण्डली मारकर बैठे रहें। अब पिता जी के बीमारी में हजार पन्द्रह सौ खर्च हुए कि नहीं। आयेगा कहां से पैसा। इस पर कभी सोचा है इन बुड्ढे बुड्ढी ने।”आखिरी शब्द को बड़ी ने दबे कण्ठ से कहा। कहीं अपने मां बाप के लिए इस शब्द के प्रयोग पर बेटे भड़क न जाएं।

किंतु बेटों का खून सफेद हो चुका था।वे पूरी तरह अपनी अर्द्धांगिनीयों की कलुषित मानसिकता के गिरफ्त में आ चुके थे। अपने सामर्थ्य द्वारा अर्जित आय से असंतुष्ट पिता के मामूली बैंक बैलेंस पर ढीठ गडाये हुए थे।जब आंखों पर लोभ का चश्मा चढ़ जाती है तो तुच्छ भी विशिष्ट नजर आने लगता है।

 ” कहती तो तुम ठीक हो किन्तु पिताजी से कहेगा कौन।”बड़ा बेटा सोंच में डूब गया।

”  यह काम तो मुझसे भी नहीं होगा।”छोटे ने भी हथियार डाल दिया।” तुम दोनों बैठे रहो मुंह में चुसनी डालकर। मैं कहूंगी –क्यों दीदी।” छोटी पुनः उसकी। वाह ये लक्ष्मी की महिमा। एक दूसरे के चैन के दुश्मन पैसे के नाम पर कैसे एकमत हो गयीं।

“लक्ष्मी ये जगतारिणी कि तेरो जगत में नाम ।”

पति-पत्नी का चेहरा फक् पर गया तो बात यहां तक पहुंच गई है। बहुएं तो पराये घर की बेटियां हैं पर बेटे तो अपने जाये हैं । इनकी इतनी ओछी मानसिकता। आखिर कहां रह गई खोट।

अब टहलना क्या था। उदास भाव से वे कुर्सी पर निढाल पड़ ग‌ए।

“तुम्हीं बताओ पार्वती मैं क्या करूं।”इतना असहाय इससे पहले वे कभी न थे।

क्या कहूं जी, पर इतना तो तय है कि जब तक इन्हें पैसा नहीं मिलता ये शान्त नहीं बैठेंगे।”…..बहू कम-से-कम थोड़ी सी सब्जी उनके थाल में डाल जाती जरूर , पर सुना सुनाकर छेदने लगती। “अगले से बचें तो बाकी लोग खायें, जरा भी दयानत नहीं है कि घर में बाकी लोग भी खानेवाले बैठे हैं।”प्रसाद जी ठिसुआ जाते। मांगना गरगट हो जाता। थाली में परोसा हुआ भोजन , कभी जूठन छोड़ने की आदत नहीं है। इससे अन्न देवता रुष्ट होते हैं ….सो किसी प्रकार शेष भोजन पानी के सहारे हलक से उतार लेते। पार्वती की आंखें दहक उठतीं।

 “ऐसा भी क्या , थोड़ी सी सब्जी मांग ली तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा,कम है तो साफ मना कर दो  ऐसे बेइज्जत तो नहीं करो।”

“हां, हां मैं तो बेइज्जत कर रही हूं ,हाट जाओ तो मालूम पड़े।’ बहुएं अनाप-शनाप चिल्लाने लगती।

“क्यों मुंह लगाती हो , तुमसे चुप नहीं रहा जाता।” पत्नी को झिड़क देते। आज तक वे कभी भी पत्नी , बच्चों से ऊंची आवाज में नहीं बोले थे। कभी जरुरत ही नहीं पड़ी। अब वहीं बात बात पर पत्नी को झिड़क देते। वह इसका क्या बुरा मानतीं। क्या वो ये नहीं जानती थीं कि इस दिन-रात के नारकीय चिक चिक से उनका शांत, सौम्य, व्यावाहरिक पति ऊब चुका है।निदान का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। जीवन का समीकरण ही बदल गया है।जब इनके पौष्टिक आहार, सुरक्षा, आराम करने की घड़ी आई तो सब-कुछ पानी के बुलबुले की तरह फुस्स हो गया।

समय के साथ आपसी तनाव बढ़ता ही गया। बेटों में भी ठनने लगी। उनके बच्चे भी एक दूसरे की चुगली कर आग में घी डालने का काम करते।

दोनों बहुएं जब लड़कर थक जातीं तो अपने कमरे में रेडियो सुनती,टी वी देखतीं या रोमांचक उपन्यासों में खो जातीं। दोनों के पति होटल से खाना लाते , अपने बीबी बच्चों के साथ कमरे में ही का लेते।जो भी बचा खुचा रहता, मां बाप खा, ठंडा पानी पी राम के नाम की जगह बेटे बहुओं की सुबुद्धि हेतु प्रार्थना करते।

एक सुबह  प्रसाद जी उठने लगे तो उठा ही नहीं गया ।शरीर का पोर पोर दुःख रहा था। आंखें लाल थीं। सिर चकरा रहा था।

“सुनती हो जी….”! पार्वती तुलसी में जल दें रही थीं” क्या है जी!” पति को असमय लेटे देख चिंतित होना स्वाभाविक था।

“अरे, तुम्हारा शरीर तो आग की तरह जल रहा है, बड़े छोटे देखो तो…!”

“क्या है मां..!”दोनों बेटे दौड़े आए।

पिता का तीव्र ज्वर देख दोनों बेटे सच-मुच चिंतित हो उठे। फ़ौरन डॉक्टर से दिखाया ,दवा लाये ।तीन चार दिनों तक घर में शांति रही। शायद बहुएं भी स्थिति की गंभीरता देख चुपचाप थीं।

ज्वर उतर चुका था। सिर्फ थोड़ी कमजोरी रह गई थी। पार्वती पल भर भी अपने पति का साथ न छोड़ती थी।

आखिरकार पति-पत्नी ने फैसला कर लिया। बेटे उनके बारे में कैसा विचार रखते हैं इसे जानकर भी अनजान बने रहे। इसके पूर्व कि कोई विस्फोटक स्थिति आ जाये । उन्होंने अपनी सारी जमा-पूंजी बेटों के नाम कर दिया।

…..”बड़े छोटे यह लो। अब मेरे पास कुछ भी शेष नहीं है!”बेटों को पासबुक थमाते प्रसाद जी थोड़े भावुक हो गए।

“ऐसी-भी क्या जल्दी थी , पिता जी।” बड़ा बेटा सिटपिटा उठा।

छोटा बेटा उचकर पासबुक में राशि की संख्या पढ़ने लगा। वह बचपन से ही हिसाब किताब में चुस्त था। बहुओं ने अपने पतियों के हाथ से पासबुक यूं झपट लिया, जैसे चील मांस का टुकड़ा।अपनी विजय पर वे कहां तक प्रसन्न हुए वे तो वहीं जाने । परंतु मां-बाप के चेहरे पर घिरी विषाद की रेखाओं को उन्होंने अनदेखा अवश्य कर दिया।बिन मांगे मोती मिलने की खुशी में वे भूल बैठे कि उनके इस व्यवहार से माता-पिता कितना आहत हुए।

थोड़े दिनों तक सब ठीक ठाक रहा। दोनों बहुएं सज-धजकर ,नये फैशन का जूड़ा बनाकर , ऊंची एड़ी का सेंडिल खटखटाती रोज शापिंग पर जाने लगीं। रंग-बिरंगे कपड़ों का ढेर लग गया। होटल के लजीज व्यंजनों की डकार घर में सुनाई देने लगी।उलूल जुलूल खिलौनों से बच्चों की पेटियां भरने लगीं।

अचानक हाथ आया मुफ्त का पैसा खर्चते भला देर ही कितनी लगती है । बहुएं मस्त तो बेटे भी खुश। उनकी खुशी में ही इनकी खुशी थी।”चलो अच्छा हुआ।कम से कम घर में सुख-शांति तो है।”

परन्तु बाढ़ के पानी की तरह पैसा समाप्त होते ही पुनः तनाव बढ़ने लगा। दोनों बहुओं की जिह्वा अब और धारदार हो गई थी।आपस में इतना झगड़ती कि सामने वाला खौफ खा जाय। सास-ससुर को भी खरी- खोटी सुनाती रहती। बेटे भी आपस में उलझ पड़ते। एक दिन तो नौबत हाथापाई तक पहुंच गई थी।

अब एक साथ निबाह न होगा , यह तय होते ही घर की प्रत्येक वस्तु को दो हिस्सों में विभक्त किया जाने लगा। पिता का पैसा पहले ही बंट चुका था। पति-पत्नी मूक , असहाय बेटों का लुच्चापन देख ठंडी सांसें भरते। उनके पास शेष ही क्या था जिसके बल पर हस्तक्षेप करते।बीच बचाव कभी उनकी मजबूरी बन जाती तो बेटे डपट कर चुप करा देते। नहीं तो बहुएं कटु वाक्यों के तूणीर से उनकी वाणी अवरुद्ध कर देती।



पहले दिल बंटा फिर सामान बंटे। घर के दो हिस्से हुए। अब बारी आई मां-बाप बांटने की।

बड़े के हिस्से में बाप और मां छोटे  के । बेटे की इस हृदय हीनता पर पार्वती बिलख उठी” हे करमजलों कुछ तो भगवान से डरो । सब-कुछ बांटकर तुम लोगों का दिल नहीं भरा जो मां बाप को बांटने चले हो।”

मां के इस फरियाद का कोई असर नही हुआ। पिता इस अप्रत्याशित प्रसंग पर मौन। पत्नी को करता सांत्वना दें। किसी की मृत्यु हो गई हो तो शोक प्रकट किया जाये। परंतु जहां दिलों में प्रेम की जगह नफ़रत की दरिया बहने लगे।बैरभाव फन निकाल फुफकार , एक दूसरे को नीचा दिखाने में मां बाप का वात्सल्य नकार दिया जाये वहां किसकी मातमपुर्सी मनाई जाये।

वर्षों पहले कहीं पढ़ी हुई पंक्तियां याद आ गई। “मनुष्य अपने जीवन काल में कभी न कभी नारकीय यातना अवश्य भोगता है । उसी तरह सुख की प्राप्ति भी निश्चित है। विधाता किसी के साथ अन्याय नहीं करता। यह बात पृथक है कि सुख सागर में खोए हुए व्यक्ति को उसकी अवधि अल्प प्रतीत होता है और दुःख के चंद दिन द्रोपदी के चीर की तरह लंबा होता है।”

तो क्या वे जीवन के इस चौथे पन में वे भी सपत्नीक इस नारकीय यातना को भोगने के लिए अभिशप्त हैं। आज तक वेदना ,कष्ट, बिछोह का एक कतरा भी उनके खुशहाल जीवन पर नहीं पड़ा था।

एक विचार आया सपत्नीक कहीं भाग जायें । किंतु कहां?गांठ में दमड़ी नहीं ।जो था बेटों को दे दिया। शारीरिक शक्ति बची नहीं कि नये सिरे से गृहस्थी शुरू की जाए।लोग क्या कहेंगे। बेटों पर थू-थू करेंगे।वे कांप उठे।…कितना अच्छा होता जवानी में ही अपने हिस्से का कष्ट भोग लिया होता। इस बुढ़ापे में मिट्टी पलीद तो नहीं होती।

उनका सोंचा कुछ भी काम नहीं आया। घर के दायें हिस्से में बड़े बेटे के साथ बाप और बायें  हिस्से में  छोटे  के साथ मां।

“बड़ा बेटा बाप का और छोटा बेटा मां का “इस लोकोक्ति को उनके दोनों बेटों ने पूर्णतः चरितार्थ  कर दिखाया था।

इधर बड़े के यहां सालन में छौंक लगता तो छोटे का चौका मछली के तीखे गंध से भर उठता।

  “आज क्या खाये जी “पार्वती धीरे से पूछ बैठतीं ।”और तुमने क्या खाया”प्रत्युत्तर में प्रसाद जी प्रश्न कर देते।उस वक्त पार्वती को लगता कि धरती फट जाए और वे उसमें समा जायें। किंतु वे सीता म‌ईया न थीं।

सास पर सारा काम छोड़कर , छोटी दिन भर मटरगश्ती किया करती। बड़ी जलभुन कर ससुर को सुनाने लगती।

“छोटी बड़ी धूर्त निकली सास को अपनी ओर रखा। घर का सारा काम उनसे करवाती है और खुद मजे करती है।खोटा भाग्य तो मेरा ही है न। हुक्म सिरे सब-कुछ कुर्सी पर ही चाहिए।”

तो क्या अब मुझसे भी बरतन मंजवायेगी बड़ी बहू। पत्नी को उन्होंने बड़ी सहेजकर रखा था। अपने जानते किसी भी प्रकार का अतिरिक्त भार उनपर नहीं दिया था। अच्छा कमाते थे ।खर्च करते थे।उसकी बुढ़ापे में ऐसी दुर्दशा। और वे कुछ भी कर नहीं पा रहे हैं।

…..धिक्कार है उनपर।

“पार्वती, पार्वती यहां आओ मेरे पास बैठो।”वे उन्मादित चीख उठे। उनकी चीख की प्रतिध्वनि दीवाल से टकराकर वापस लौट ग‌ई। पार्वती के कानों तक उनकी आवाज पहूंची या नहीं यह तो वहीं जानें। लेकिन दिल ने क्या कहा वे हाथ का काम छोड़ दौड़ पड़ी।

  ” 

“क्या है जी।”

“तुम यहीं रहो मेरे पास।।।”

पार्वती काम अधूरा और घर खुला छोड़ आईं थीं । पति का सानिध्य पा वह सब-कुछ भूल ग‌ईं। उन्हें कुछ भी होश नहीं रहा। प्रसाद जी ने उनके खुरदुरे हाथों को अपने हाथ में लेकर कहा “क्या हाल है?”

पार्वती ने अपनी मैली धोती की ओर देखा ।रूखे बाल, सूखे पडपडाये होंठ, शक्ति से अधिक खटने से निस्तेज हुई काया।

“नहीं जी मैं तो भली चंगी हूं।”आंखें सावन भादों बन गई।”अभी मैं जिन्दा हूं। अब हमें कोई जुदा नहीं कर सकता।”

पति के संरक्षण में पार्वती आश्वस्त हो पातीं कि छोटी बहू शेरनी की तरह फाटक खोल अन्दर घुसी।बहू को सामने देख प्रसाद जी ने पत्नी का हाथ छोड़ दिया।

“तो यहां लैला मजनू का खेल चल रहा है और वहां सारा दूध बिल्ली पी गई। घर खुला छोड़कर आने की क्या जरूरत थी। इतना ही चाव है तो यहीं रहिए । मेरे पास आने की जरूरत नहीं है।”छोटी 

का क्रोध सातवें आसमान पर था।

“जाओ,जाओ , नहीं जायेगी पार्वती तुम्हारे यहां। अब जहां मैं रहूंगा वहीं पत्नी रहेगी।”उनका सोया पुरूषार्थ जाग उठा था।

“हां, हां देखती हूं कितने दिन बिठाकर खिलाते हैं दोनों को।किसके घमण्ड में है आप , मैं अच्छी तरह जानती हूं।”

बस इतना ही काफी था। बड़ी बहू रणचण्डिका बनकर प्रकट हुई और फिर प्रारंभ हुआ महासंग्राम। एक से एक बढ़कर एक विशेषणों से एक दूसरे को विभूषित किया गया।सास ससुर के लिए ऐसे ऐसे शब्दों का खुलकर प्रयोग हुआ कि उनके वाक् चातुर्य पर आश्चर्य होता है।

शाम को दोनों बेटों के आने पर दिन की घटना की पुनरावृत्ति हुई। बेटों ने इसे गंभीरता से लिया।एकरारनामे के अनुसार बड़े के यहां पिता और छोटे के साथ मां को रहना था। बेटों के निर्णय के समक्ष पति-पत्नी की एक न चली।

“जैसी प्रभु इच्छा”दोनों पुनः अलग कर दिए गए।

 पार्वती छोटे के भंडार गृह में सोती थी  जिसमें छोटी सी खिड़की थी।उसदिन की घटना ने दोनों को छलनी कर दिया था।

अब और छीछालेदर, उनकी जर्जर काया और दुःखी हृदय बर्दाश्त नहीं कर पायेगा। दोनों ने अपनी स्थितियों से समझौता -सा कर लिया। जिंदगी पुनः जैसे-तैसे चल निकली।

बड़ी बहू का भाई सपरिवार आया हुआ था, कुछ दिनों के लिए। घर में फालतू तो पिता जी ही थे। बैठक से उनका बिस्तर  हटा कर भीतर गलियारे में लगा दिया गया।

स्थान -परिवर्तन पर व्यक्ति के आंखों से नींद वैसे भी गायब हो जाती है। और प्रसाद जी के आंखों से नींद उसी दिन  हवा हो गई थी जिस दिन उनके लाडलों ने मां बाप को निर्जीव बस्तु की तरह बांटकर एक दूसरे से बिल‌ग कर दिया था।

“खट” हल्की सी आहट ने उन्हें चौंकना कर दिया।चूहा होगा। उन्होंने करवट बदल ली।”खट खट “वे उठ बैठे। टार्च की रोशनी पड़ते ही एक मोटा चूहा कूद कर भागा। उन्होंने नजरें उठाई तो एक आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता की लहर उनकी बूढ़ी हड्डियों में दौड़ पड़ी।

उनके प्रसन्नता का कारण एक छोटी सी खिड़की थी। वर्षों से बंद जंग लगी। सिटकिनी खोलने लगे तो टस से मस नहीं हुआ। अब क्या करूं। असहाय से इधर उधर देखने लगे।तेल की कटोरी पास ही पड़ी थी। गठिया के दर्द से घुटनों में बिना तेल लगाये नींद नहीं आती। पहले पार्वती नियमित रूप से उनके घुटनों में सरसों का तेल मालिश करके  ही सोती थी । परंतु अब पत्नी कहां।वे खुद ही अपने अनभ्यस्त हाथों से तेल चुपड़ लेते थे।तेल ही तेल । उनकी आंखें चमक उठीं। उन्होंने खिड़की में लगे लोहे की सिटकनी पर सरसों का तेल उड़ेल दिया। कुछ मिनटों के बाद जोर लगाने पर हल्की चरमराहट के साथ खिड़की खुल गई। उन्होंने झुककर टार्च की रोशनी दूसरी ओर फेंका। तख्त पर पार्वती गुड़मुड़ाकर बेखबर सोई हुई थी।

“पार्वती, पार्वती ” वे फुसफुसाये। जैसे चोरी छिपे मिल रहें हों कोई देख न ले।

“क्या है जी “पार्वती नींद में बड़बड़ाई।

“पार्वती इधर देखो , मैं हूं”! वे चौंककर उठ बैठी।

टार्च की रोशनी के साथ एक हाथ भी निकला इस ओर छोटी सी खिड़की के रास्ते।

उधर से दो हाथ इधर के  दो हाथ।आपस में आबद्ध हो ग‌ए। इस स्पर्श में कितना सुख था कोई उन दो आत्माओं से पूछे।स्पर्श सुख से आंखें बरस पड़ी। दोनों का दिल रो पड़ा।

शायद कोई राजा महाराजा किला फतह करने पर भी इतना आनंदित नहीं हुआ होगा। जितना ये वृद्ध दंपति।

 सोनी ने कच्चे घड़े के सहारे उफनती नदिया पार की थी ।शीरी ने आत्मोसर्ग किया था,प्रेम के नाम पर। तो इन दोनों ने भी अभेद्य दीवार में छेद कर मिलने का अद्भूत नायाब तरीका ढूंढ निकाला था।

दोनों का बिस्तर खिड़की के पास खिसक आया। इस पार गंगा,उसपार जमुना। मकान का यह उपेक्षित भाग था।बिल्ले ही कोई इधर आता था।



  जब पूरा परिवार स्वप्न लोक में खो जाता । दोनों वृद्ध खिड़की के रास्ते एक दूसरे के दिल में उतर जाते। दुःख की बातें कम और पुराने खुशहाल दिनों की चर्चा ज्यादा होती। अतीत की स्वर्णिम स्मृतियां उनकी अनमोल पूंजी थी। जिस पर वर्तमान की काली छाया वे किसी भी हाल में पड़ने नहीं देना चाहते थे।

दो प्राणियों के स्वर्गिक प्रेम की चांदनी में वे आपादमस्तक डूबे हुए थे।

 खिड़की गली की ही परिणति थी—वह एक कटोरी सालन। फिर तो वे दोनों सुख दुःख बांट लेते। खाद्य पदार्थों के साथ साथ मन की अनुभूतियों तक। एक दूसरे के पहलू में आ वे अपने-अपने सारा दुःख दर्द भूल जाते। जीने का एक सुंदर तरीका ढूंढ लिया था। जिसमें सिर्फ वे दोनों थे । तीसरा कोई नहीं।

बड़ी बहू का भाई चला गया। परन्तु प्रसाद जी ने अपनी नई जगह नहीं छोड़ी। बड़ी बहू को भी सहुलियत हो गई। क्योंकि उसके नज़रों में कबाड़ घर का उपयोग ही क्या था। वैसे भी पिता जी के बैठक में पड़े रहने से उनकी शान में बट्टा ही लगता था।

फूलों की सुगंध को छुपाया जा सकता है भला। सूरज के किरणों को कोई कैद कर सकता है । ऐसे ही खिड़की के रास्ते दोनों वृद्धों का मिलन भी राज ने रह सका। फिर क्या था दोनों बहुओं का तन -बदन सुलग उठा।

 छि: इस उम्र में भी। अब खिड़की बंद करवाना ही होगा। प्रसाद दम्पति को भी भनक लग गई।वे दोनों उदास हो उठे। बेटे इतने नीच,क्रूर हो सकते हैं। जिस इज्जत,जगहंसाई ,आबरु के लिए वे बेटे बहुओं की हर जायज़ नाजायज बंधनों में जकड़ते गये थे।वे इन्हें इस प्रकार जलील करेंगे। आखिर क्या सुख मिलता है उन्हें मां बाप को पीड़ा पहुंचाकर, सिर्फ अपनी अंह की संतुष्टि। एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति को उन्होंने प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है।सगे भाइयों ने कैसा घातक बैर पाल रखा है , जिसकी बलि वे मां बाप की भावनाओं से खिलवाड़ कर दे रहें हैं। ओह , यह दिन भी देखना बदा था। दोनों बहुएं कैसी घिनौनी टिप्पणियां कर रही थी। अपने सास-ससुर पर और बेटे गुटुर गुंटुर सुन रहे थे। लानत है ऐसी जिंदगी पर।

 कल रविवार है। छुट्टी का दिन। मिस्त्री बुलाकर खिड़की के बल्लों के स्थान पर ईंटें चुन देगा। खर्चा दोनों भाई आधा -आधा करेंगे।

 उन्हें लगा उनके बेटे वहां खड़े हैं जहां सूई के बराबर भी एक दूसरे का प्रवेश निषिद्ध है। क्या यही संस्कार दिए हैं , उन्होंने अपनी संतानों को।

  उस रात वृद्ध दंपति ने भोजन नहीं किया।भूख -प्यास छू मंतर हो गया था। बातें करने का दिल न हुआ। क्या कहना , क्या सुनना।

   रविवार के प्रात: चौक पर बजरंग बली का अखाड़ा सजा हुआ था। कस्बे के नवयुवक, युवा पहलवान उसमें शामिल होने के लिए इकट्ठा ही हो रहे थे। किसी अनहोनी की आशंका से पार्वती निवास की ओर सरपट भागे। युवा पीढ़ी,नया खून, नूतन जोश।

   वे ठिठक पड़े , उन्होंने देखा कि छोटी सी खिड़की के रास्ते दो जोड़ी हथेलियां एक दूसरे में आबद्ध है।मोटी दीवार के इस ओर प्रसाद जी एवं दूसरी ओर पार्वती का निर्जीव शरीर पड़ा हुआ था। दोनों बहुएं उनका हाथ छुड़ाने का असफल प्रयास कर रही थीं।

    “खबरदार जो इन्हें अलग किया “युवकों का प्रेमी हृदय।  हाहाकार कर उठा। जिसके हाथ जो लगा दीवार तोड़ने के काम आया। ईंटें खिसकने लगी।लोग होश खो बैठे थे। दाम्पत्य प्रेम का अनुपम उदाहरण उनके सामने था। वे उनके सगे न थे।पर प्यार की परिभाषा से परिचित थे। हृदय में प्रीति , निष्ठा की ज्योति जलाये उनकी आत्मा सारे बंधनों से मुक्त हो चुकी थी।क्रूर ,स्वार्थी , नफ़रत की दुनिया को उन्होंने अलविदा कह दिया था। दीवार ढह चुकी थी।

भीड़ ने देखा , दीवार के दोनों ओर वृद्ध दंपति के दोनों बेटे हतप्रभ खड़े थे। उनके गैरजिम्मेदाराना हरकत ने कैसा अनर्थ कर डाला। मां बाप को उन दोनों ने भले ही शरीर से पृथक कर दिया था, पर दिल से जुदा न कर पाये।

#प्रेम 

   सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना –डा उर्मिला सिन्हा

 

1 thought on “एक कटोरी सालन  – डा उर्मिला सिन्हा”

  1. , hridaysparshi rachna

    Par mata pita ko bacchon ke aage itna bhi nahi jhukna chahiye….Aakhir unki apni zindagi bhi hoti hai.

    Mata Pita ko koi thos nirnay lete dikhati aap to zyada accha lagta

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