“दीदी! तुम यह साड़ी पहनकर अपनी ननद के घर जाना, तुम्हारे ऊपर ख़ूब जंचेगी।” प्रिया की छोटी बहन ने एक सुंदर-सी साड़ी निकाल कर उसे देते हुए कहा।
प्रिया अपनी छोटी बहन रिया से साड़ी लेना नहीं चाहती थी परंतु उसके बार-बार ज़िद करने की वजह से उसने रिया की साड़ी लेकर पहन ली। प्रिया ज्योंहि तैयार होकर बाहर निकली उसकी बड़ी मां वहां खड़ी मिलीं। वे ऊपर से नीचे तक प्रिया की साड़ी को निहारने लगीं।
“यह साड़ी तेरे पास कहाँ से आई?” उन्होंने मुस्कुरा कर व्यंगात्मक लहज़े में पूछा।
प्रिया ने सकुचाते हुए कहा, “बड़ी माँ यह साड़ी मुझे रिया ने पहनने के लिए दी है।”
बस इतना सुनना था कि वे तपाक से बोल पड़ी, “रिया, तूने इतनी कीमती साड़ी इसे क्यों दे दी? इसे महंगी साड़ियां पहनने की आदत नहीं। बेकार में इसे नाश कर देगी।” कहते हुए बड़ी मां वहां से चली गईं।
यह बात प्रिया के कानों में पिघले शीशे की तरह पड़ी और उसकी आँखें भर आईं। वह अपनी बहन की साड़ी बदलकर अपनी साड़ी पहनने लगी।
“बड़ी मां ठीक ही कह रही थी रिया! मुझे अच्छी साड़ियां पहनने की आदत नहीं, मेरी वाली साड़ी ही मुझ पर ज़्यादा अच्छी लगेगी।” प्रिया ने सजल नेत्रों से अपनी बहन से कहा।
“दीदी तुम भी ना! क्यों बड़ी मां की बातों को अपने दिल से लगाकर बुरा मान रही हो। उन्हें तो हमेशा से बढ़-चढ़कर बोलने की आदत है। मेरी अच्छी बहना, मेरी बात मानो और यह साड़ी पहनकर हीं अपनी ननद के घर जाओ।” प्रिया की छोटी बहन उससे मनुहार करने लगी।
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दरअसल प्रिया और रिया दोनों बहने एक ही समय पर मायके आई हुई थीं। प्रिया की ननद का घर भी उसी शहर में था। उन लोगों ने अपने बच्चे के जन्मदिन के उपलक्ष में एक पार्टी रखी थी जिसमें सम्मिलित होने प्रिया जा रही थी। उसकी छोटी बहन ने बड़े प्यार से अपनी साड़ी निकाल कर प्रिया को पहनने के लिए दी थी, जिसके लिए उसकी बड़ी मां ने उसपर कटाक्ष किया था।
यूँ तो अक्सर प्रिया के कपड़ों को लेकर उसकी बड़ी माँ उस पर तंज कसा करती थीं, जिसके कारण उसका मन बहुत दुखता था। उसकी बड़ी मां को अपने मायके के पैसों का काफ़ी घमंड था। वे हर घड़ी अपने मायके के ही गीत गाती रहतीं।
उनका अपना बेटा एक गंभीर बीमारी के कारण चल बसा था। इस कारण कोई उनकी बेतुकी बातों का भी जवाब नहीं देता था।
देखा जाए तो प्रिया का परिवार बहुत सुखी था; छोटा-सा घर और उनके छोटे-छोटे सपने। उसके पति,अश्विन दिन-रात मेहनत करने वाले एक सरकारी अधिकारी और प्रिया, घर को अपनी पीठ पर संभालने वाला कछुआ। वे दोनों एक दूसरे के पूरक थे, अश्विन दफ़्तर से वापस आते तो दोनों साथ बैठकर मूंगफली खाते। प्रिया दिन-भर की बातें बताती और अश्विन बड़े ध्यान से सबकुछ सुनते। परिवार की जिम्मेदारियों के कारण उनकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी। इस कारण प्रिया या उसके बच्चों के पास साधारण कपड़े ही होते थे। प्रिया को इन सब बातों का मलाल नहीं था। वह ख़ुश थी अपनी गृहस्थी को संवारने में।
हाँ, मायके आने पर उसकी बड़ी मां का व्यावहार उसे काफ़ी आहत करता था। उसकी छोटी बहन रिया के पति के ऊपर घर की ज़्यादा ज़वाबदेही नहीं थी, तो आर्थिक रूप से वे लोग सुखी व संपन्न थे। साफ़ शब्दों में कहें तो उसके पास सुंदर कपड़े व गहने हुआ करते थे।
वक्त तीव्र गति से गुज़रता रहा। प्रिया के दोनों बच्चे बड़े हो गए थे और उनका चयन उच्च शिक्षा के लिए अच्छे कॉलेज में हो गया था। उसके पति का भी प्रोमोशन हो गया था। उसकी आर्थिक हालत भी पहले से बेहतर हो गई थी।
आज कई वर्षों के बाद प्रिया की बड़ी माँ अपनी बीमारी के इलाज़ के लिए उसके घर आने वाली थीं। डॉक्टरों ने अचानक से अपनी रिपोर्ट में उन्हें कैंसर होने की पुष्टि की थी। उन्हें आनन-फानन में प्रिया के घर मुंबई लाने की तैयारी चल रही थी। बड़ी माँ की बीमारी सुनकर प्रिया काफ़ी दुखी हो गई थी, परंतु उनके मुँह-फट स्वभाव के कारण प्रिया थोड़ी घबराई हुई थी। उसे डर था कि अब तो उसके अपने बच्चे भी बड़े हो गए हैं, कहीं उनके सामने बड़ी माँ कुछ उल्टा सीधा ना बोल दें।
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ख़ैर! अब प्रिया की बड़ी माँ उसके घर आ गई थीं। प्रिया और उसके पति जी-जान से उनकी सेवा में जुटे हुए थे। प्रिया की बेटी श्रेया भी अब डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी। वह भी अपनी बड़ी नानी का विशेष ध्यान रख रही थी। इतनी पीड़ा में होने के बावजूद प्रिया की बड़ी माँ के चेहरे से एक आत्म-संतोष का भाव झलक रहा था, जिसे देखकर प्रिया को आंतरिक ख़ुशी मिल रही थी।
प्रिया की बड़ी माँ की बहन की बेटी(नेहा) मुंबई में ही रहती थी जो उनसे मिलने के लिए प्रिया के घर आई थी। प्रिया उनके स्वागत-सत्कार में लगी हुई थी। अचानक प्रिया के कानों में उसकी बड़ी मां की आवाज़ पड़ी।
“कितना सुखी-संपन्न परिवार है प्रिया का। देखकर मन गदगद हो गया। इनकी अच्छी परवरिश का ही कमाल है कि दोनों बच्चे कैरियर में इतना अच्छा कर गए। प्रिया की बेटी को तूने देखा नेहा, डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही है और घमंड थोड़ा भी नहीं। सुंदरता के साथ-साथ इतना तेज़ दिमाग। कितने नसीबो वाली है प्रिया।” बड़ी माँ प्रिया के परिवार की तारीफ़ करते नहीं थक रही थीं।
यह सब बड़ी माँ के मुंह से सुन प्रिया के मन का सारा मैल धुल गया। उसके आँसू उसके मन के ग़ुबार को निकालने में उसका साथ दे रहे थे। इतने दिनों से उसके अंतर्मन को कौंधने वाले सवालों के ज़वाब उसके कर्मों ने दे दिए थे।
सच दोस्तों! ज़िंदगी में ऐसे पड़ाव आते हैं, जब हम ख़ुद को सवालों और अनिश्चिताओ और आत्म-संदेह से घिरा पाते हैं। इस वक़्त बहुत आसान होता है दो टूक जवाब देकर बढ़ जाना। परंतु हमेशा ज़वाब देना भी अच्छा नहीं होता। यह हमें क्षणिक चैन तो दे देता है लेकिन लंबे समय में यह हममें कड़वाहट भर सकता है। हमारे शब्दों के ज़वाब के बजाय कर्मों के ज़वाब एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
आरती श्रीवास्तव