गोविंद जी को दो होनहार बेटे दिये थे ईश्वर ने। और पत्नी साधना के रूप में साक्षात लक्ष्मी उसके घर में निवास कर रहीं थीं। बच्चों को उत्तम संस्कार, और शिक्षा साधना के ही प्रयासों का फल था। शिक्षक की नौकरी और घर दोनों को साधना ने बहुत अच्छे से संचालित किया था। गोविंद तो व्यवसाय में ही उलझे रहते थे । उनके पास घर के लिए वक्त नहीं होता था। उनकी एक ही चाहत थी। उसका परिवार सुखी रहे। बच्चों को कभी किसी चीज की कमी न हो। इसीलिए उन्होंने दोनों बेटों के लिये मकान बनवा दिये थे। लाखों रुपये के फिक्स्ड डिपॉजिट भी जोड़ रखे थे। वे चाहते थे उनके बेटे उनका व्यवसाय में हाथ बँटायें। लेकिन उनकी व्यवसाय में रुचि नहीं थी। वे तो नौकरी के इच्छुक थे। अतएव गोविंद जी ने उन्हें रोका नहीं। और बच्चे विवाह करके अपने – अपने कार्यस्थलों पर स्थापित हो गये। माँ बाप का हाल चाल पूछने का भी उनके पास वक्त नहीं था। साधना रिटायर्ड होने के बाद अकेलापन महसूस करने लगीं। बच्चों के बाहर रहने के कारण। इस बात का असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ने लगा तो गोविंद जी ने व्यवसाय पर विराम लगा दिया यह सोच कर कि “अब वे परिवार के पालन से मुक्त हो चुके हैं।” उन्होंने तय किया अब उन्हें तीर्थयात्रा और जनहित कर्म करने चाहिए मोक्ष प्राप्ति के लिए। पैसे की कमी नहीं थी उनके पास इसलिए उन्होंने अपनी चाहत पर अमल करना शुरू कर दिया। उन्हें लगभग 10 वर्ष हो गए तीर्थयात्रा करते हुए। लेकिन उनका मन भगवान के चरणों में केंद्रित नहीं हो सका वे जब पत्नी का उदास चेहरा देखते तो उनका ध्यान बच्चों की तरफ भटक जाता। न तो वे बच्चों के ऊपर जोर डाल सकते थे। साथ रहने के लिये और न ही पत्नी को मोह त्यागने के लिए कह सकते थे। अतएव उन्होंने वक्त के हाथों में खुद को सौंप कर एक वृद्धाश्रम की स्थापना की। वहाँ पर आने वाले लोगों के साथ वक्त बिताने में उन्हें अच्छा लगने लगा पत्नी भी खुश रहने लगीं व्यस्त रहने के कारण। उनका पैसा सही जगह खर्च हो रहा है। यह सोचकर पति पत्नी दोनों ही संतुष्ट और खुश थे। उनकी कोई चाहत शेष नहीं थी अब। “चाहत रहित संसार में जीना ही मोक्ष की तरफ ले जाता है। यह छोटी सी बात हम नहीं समझ पाते इसीलिए बैचैन और दुखी रहते हैं। ” यही ज्ञान बाँटकर आजकल गोविंद जी जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
स्वरचित — मधु शुक्ला .
सतना , मध्यप्रदेश.