अक्सर ऐसा होता है कि हम जो चाहते हैं,वो हमें नहीं मिलता।तब हम ईश्वर से शिकायत करते हैं, फिर वही ईश्वर हमें इतना कुछ दे देता है कि उन्हें समेटने के लिए हमारा दामन कम पड़ जाता है।
दीपा से मेरा परिचय सातवीं कक्षा में हुआ था।वो वनस्थली में नई-नई आई थी और मैं एक साल पुरानी।एक दिन जब होस्टल में लड़कियाँ उसे परेशान कर रहीं थी तो मैंने उसका पक्ष लिया और तभी से हमारे बीच मित्रता हो गई।साथ स्कूल जाने और एक साथ खाना खाते कब हमारी दोस्ती गहरी हो गई, हमें पता ही नहीं चला।
आठवीं कक्षा में तो प्रिंसिपल सर से विनती करके मैंने उसे अपने सेक्शन में ही बुला लिया था।अर्द्धवार्षिक परीक्षा के बाद से न जाने क्यूँ, उसका पढ़ाई से मन उचाट-सा होने लगा।अक्सर मुझसे पापा-मम्मी और बड़ी बहन नीता दीदी की बातें करतीं।ख़ासकर जब घर से चिट्ठी आती तो उसका मन घर जाने को बेचैन हो उठता था।मैं उसे समझाने की कोशिश करती लेकिन घर की लाडली थी,माता-पिता की याद आना तो स्वाभाविक ही था।इसीलिए वार्षिक परीक्षा के बाद जो अपने घर गई तो फिर वापस नहीं आई। लखनऊ शहर के उसी स्कूल में उसने भी दाखिला ले लिया जहाँ उसकी नीता दीदी पढ़ती थीं।पत्र लिखकर वह अपने नये स्कूल और नई सहेलियों की पूरी रिपोर्ट देती और मैं उसे वनस्थली के बारे में अपडेट करती रहती।
दसवीं कक्षा के प्री-बोर्ड की परीक्षा के बाद उसने लिखा कि वह टेक्सटाइल फ़ील्ड में जाना चाहती है।इसीलिए वापस वनस्थली आकर पीयूसी(pre university course) में एडमिशन लेगी।उन दिनों वनस्थली में इंटर नहीं होता था, ग्यारहवीं के बाद ही बीए में एडमिशन हो जाता था।पीयूसी ग्यारहवीं कक्षा का ही रिप्लेसमेंट था।
हम फिर से एक साथ, मैं स्कूल में और वह कॉलेज में।अब हमें पत्र नहीं लिखना होता था, छुट्टी के दिन कभी मैं उसके पास चली जाती थी तो कभी वह मेरे पास आ जाती थी।ग्यारहवीं की परीक्षा खत्म होते ही मैं भी काॅलेज में आ गई।तीन विषयों में टेक्सटाइल विषय ही हम दोनों में कॉमन था।उसी पीरियड में हम एक साथ रहते थें।
बीए की डिग्री मिलने के बाद मैंने एमए में एडमिशन ले लिया और उसने एक वर्षीय टेक्सटाइल डिप्लोमा कोर्स ज्वाइन कर लिया। प्रिंटिंग, वीविंग(कपड़े की बुनाई) और डिजाइनिंग में दक्षता हासिल होते ही वह अपने घर रवाना हो गई और मैं अपना फाइनल ईयर पूरा करने लगी।
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पत्रों के माध्यम से वह अपने जीवन की हर गतिविधि का पूरा-पूरा ब्योरा देती रहती थी।एक पत्र में उसने लिखा था कि उसकी नीता दीदी का विवाह हो गया है।दूसरे पत्र में लिखा कि वह अपना वर्कशाॅप खोलने का प्लान कर रही है।एक पत्र में लिखा कि वह कार चलाना सीख रही है और कुछ दिनों में उसे लर्निंग लाइसेंस भी मिल जाएगा।
छह महीने बाद उसने एक पत्र में लिखा कि उसकी ‘हैंड प्रिंटिंग वर्कशॉप’ के खोलने की तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकी है।दो दिनों के लिए वह अपनी नानी से मिलने जा रही है।वहाँ से आते ही अपने वर्कशॉप का उद्घाटन कर देगी।उसका सपना पूरा हो रहा है,यह सोचकर मैं बहुत खुश थी।
उस पत्र के बाद करीब डेढ़ माह तक उसका कोई पत्र नहीं आया।मैं बहुत चिंतित थी,ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।मन कई आशंकाओं से घिरने लगा था।फिर एक दिन सुमित्रा जीजी(हमारी वार्डन)ने अपने कमरे में बुलाकर कहा कि तुम्हारी सहेली दीपा का एक्सीडेंट हो गया है और उसका…।कहकर उन्होंने एक चिट्ठी मेरे हाथ में दे दिया।पत्र अंकल(दीपा के पापा) ने लिखा था।उन्होंने लिखा कि जब वे तीनों कार से नानीजी मिलने जा रहें थें तब दीपा ने ड्राइविंग करने की ज़िद की।वह सावधानीपूर्वक ही ड्राइव कर रही थी लेकिन होनी को कौन टाल सकता है।तेजी-से आती हुई एक ट्रक ने उनकी कार को टक्कर मार दिया जिससे दीपा कार से बाहर गिर पड़ी और उसका दाहिना हाथ पहिये के नीचे आकर दब गया।हम दोनों भी बेहोश हो गयें थें।आसपास के लोगों ने हमें हाॅस्पीटल में भर्ती कराया।मुझे और तुम्हारी आंटी को तो थोड़ी ही देर में होश आ गया था लेकिन दीपा की हालत गंभीर थी।उसका ऑपरेशन चल रहा था।डाॅक्टर साहब ने बताया कि ऑपरेशन कामयाब रहा लेकिन पहिये के नीचे दबे रहने के कारण उसके दाहिने हाथ में संक्रमण हो गया जिसके कारण हमें उसे काटना पड़ा।
हे भगवान! मेरी सहेली के साथ ये क्या हुआ! मैं वहीं बैठी रोने लगी।वार्डन जी ने मुझे चुप कराया।मैं कमरे में आकर पत्र आगे पढ़ने लगी।अंकल लिखते हैं कि हाॅस्पीटल से घर आने पर दीपा बहुत गुमसुम रहने लगी है।अपना काम स्वयं करने का प्रयास करती रहती है लेकिन हाथ खोने और सपना पूरा न होने का दुख उसे अंदर से खाये जा रहा है।बेटा,अगर तुम उसे पत्र लिखकर उसकी निराशा कम कर सको तो बड़ी मेहरबानी होगी।
मैंने तुरंत दीपा को पत्र लिखा कि खोना-पाना तो जीवन की रीत है और फिर संघर्ष बिना जीवन में आनंद भी तो नहीं आता है।तुमने तो हेलेन केलर के बारे में पढ़ा ही है।रवीन्द्र जैन जी ने कैसे अपने जन्मांध होने की कमी को पूरा किया है, ये भी तुम जानती हो, फिर तुमने कैसे हार मान ली? मैथिलीशरण गुप्त जी लाइनें तो तुम्हें याद है ना- कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो, न निराश करो मन को।यह समय तुम्हारे इम्तिहान की घड़ी है,तुम्हें तो अभी बहुत कुछ करना है।अपना सहारा आप बनकर औरों के भी जीवन में खुशियाँ भरना है।रात कितनी भी लंबी क्यों न हो,सवेरा अवश्य होता है, इतना याद रखना।हाँ, अब तुम रोज मुझे एक पत्र लिखोगी।
उसने तुरंत जवाब दिया।उसके आड़े-तिरछे अक्षरों से लिखे अधूरे वाक्यों को मैं वैसे ही समझ गई जैसे कि एक माँ अपने शिशु की भाषा समझ लेती है।लिखते रहने से उसका अपने बाएँ हाथ पर नियंत्रण बढ़ने लगा और अब वह कुछ डिज़ाइन भी बना कर मुझे भेजने लगी।कुछ दिनों बाद अंकल का पत्र आया।उन्होंने लिखा कि दीपा ने अपना वर्कशॉप शुरु कर दिया है।अभी दो-तीन स्टाफ़ ही हैं पर अखबारों मे इश्तिहार दे दिया है।तुम्हारी आंटी भी अब दीपा के वर्कशाॅप में दिलचस्पी लेने लगी हैं।परीक्षाएँ समाप्त होने पर लखनऊ आना,दीपा को खुशी होगी।
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दीपा फिर से ज़िन्दगी की तरफ़ रुख करने लगी है,मेरे लिए इससे बड़ी खुशी और क्या हो सकती थी।जी में आया कि अभी उड़ कर उसके पास चली जाऊँ।
एमए फाइनल की परीक्षाएँ समाप्त होते ही मैं लखनऊ उसके घर पहुँच गई।उसके घर के बाहर ‘संबल क्रियेशन ‘ लिखा बोर्ड देखा तो मेरी आँखें खुशी से छलक पड़ी।घर के बड़े हाॅल में दो लड़कियाँ बैठी कपड़े पर वैक्स की कोटिंग कर रहीं थीं और एक लड़का कपड़े को धागे से बाँधकर बाँधनी का काम कर रहा था।उनके बीच बैठी दीपा अपने हाथ से डिजाइन बना रही थी।मेरी आवाज़ सुनकर वह दौड़ी आई और गले मिलते ही हम दोनों की आँखों से अविरल जलधारा बह निकली।कुछ महीनों पहले हुई दुर्घटना के काले बादल अब छँट चुके थें।खुशियों की नई-नवेली किरणों से उसका चेहरा दमक उठा था।उसने अपनी हिम्मत और हौंसले से जीवन में आये अंधकार को मात दे दिया था और अब अपने जैसे लोगों में नई ऊर्जा का संचार कर रही थी।आंटी ने बताया कि काम करने वाले तीनों लोग भी किसी न किसी तरह के हादसे से शिकार हुए हैं।दीपा उन्हीं लोगों को काम देना चाहती थी जिन्हें समाज अपंग-अपाहिज कहकर दुत्कार देता है।
एक दिन बाद मैं अपने घर आ गई।मेरी शादी हो गयी और मैं अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गई लेकिन हमारे बीच पत्रों का सिलसिला चलता रहा।उसके बनाये गये कपड़ों की डिमांड बढ़ने लगी, उसका वर्कशॉप कॉटेज इंडस्ट्री में तब्दील हो गया था।अंकल ने दो साल पूर्व ही वाॅलेंटरी रिटायरमेंट ले ली और पूरी तरह से दीपा के काम की कमान संभाल ली।
मेरा दूसरे बेटे के जन्म पर उसने बताया कि अब वह बुनाई-केन्द्र का भी संचालन कर रही है।हथकरघों से बने कालीन, छोटे-बड़े गलीचों और साड़ियों के आर्डर उसे दूसरे राज्यों से भी मिल रहें हैं।
समय बीतता गया,मेरे बच्चे बड़े हो गये और उसने भी एक मुकाम हासिल कर लिया था।कुछ वर्ष पहले उसे उत्तर-प्रदेश सरकार की ओर से बेस्ट महिला उद्यमी’ पुरस्कार से नवाज़ा गया था तब मैं उसे बधाई देने गई थी।उम्र के सैंतालिसवें पड़ाव में भी उसके हौंसलें में कोई कमी नहीं आई थी।बालों में सफ़ेदी आ गई थी लेकिन आत्मविश्वास दुगुना हो गया था।
एक दुर्घटना से बेशक उसकी जिंदगी में कुछ समय के लिए अंधेरा छा गया था लेकिन फिर खुशियों के उजाले भी आये जिसने उसके साथ कई अन्य ज़िन्दगियों को भी जीने का हौंसला दिया।किसी ने ठीक ही कहा है कि दुख में ही इंसान अपनी आंतरिक शक्ति को पहचान पाता है।इसीलिए जीवन में कभी कठिनाई आये तो धैर्य रखना चाहिये क्योंकि मौसम की तरह ज़िन्दगी भी रंग बदलती है और हर रंग का एक अलग-ही आनंद होता है।
— विभा गुप्ता
#कभी_धूप_कभी_छाँव