“अरे चन्दू, ये कैसी बहुरिया लाया है रे तेरा बेटा अपने वास्ते! ये तो अपने माथे पर काली बिंदी लगाए घूमती है| जब से हवेली में कदम रखा है इसने, मैंने तो कभी इसे नई नवेली सुहागिन जैसी लाल बिंदी लगाते नहीं देखा| तुझे न पता क्या, काली बिंदी को तो वशीकरण की निशानी कहते थे अपने गाँव में बड़े बुजुर्ग|”
“अरे क्या मौसी, तुम भी किस जमाने की बात करती हो! शहर में कोई न मानता ये सब बातें| बेटा शहर में पढ़ता था, भा गई शहर की लड़की इसे, तो हम भी कह दिए ब्याह लो| अब शहर की लड़कियां, सिंदूर लाली चूड़ी| ये सब न पहना करे हैं मौसी और बिंदी का क्या है! लाल हो या काली, माथा तो सजावे है न!”
चंदन कुमार, जो कि गांव के रईस थे उनकी इकलौती बहू को देखने पूरा गाँव आया था| हवेली में ही रहा करती थी चंदन कुमार की मौसी, जो कि पुराने ख्यालात की थी| शहरी बहू की काली बिंदी से उन्हें हमेशा परेशानी रहती| कभी वशीकरण, कभी मनहूसियत, तो कभी मातम को दर्शाने वाला समझती थी मौसी उस काले रंग को|
यहाँ शहरी बहू मीनू को काला रंग बेहद प्रिय था| अंडाकार चेहरा, गोरा रंग, मछली सी तरल कजरारी आँखें और उस मुखड़े पर बड़ी काली बिंदी बहुत जँचती थी मीनू पर| ऊपर से मीनू के पति पंकज ने भी कह रखा था कि काली बिंदी देखकर पंकज की नजरें मीनू से हटती ही नहीं| दीवाना सा हो जाता है पंकज| बस यही गाना मिलकर सुना करते, बिंदिया चमकेगी|
शहर जाने का दिन नजदीक आ रहा था| चंदन कुमार जी चाहते थे कि बेटे और बहू के शहर लौटने से पहले हवेली में मंदिर का पुनर्निर्माण का काम पूरा हो जाये और घर की लक्ष्मी के हाथों मंदिर में कान्हा जी की मूर्ति स्थापित हो जाये| इसलिए जल्द से जल्द काम पूरा करवाया गया| आखिरकार मंदिर में मूर्ति स्थापना का दिन आ गया| पूरे गाँव को न्यौता दिया गया| ज्यों ही मीनू हाथों में कान्हा जी की मूर्ति लिए मंदिर में प्रवेश करने लगी तो मौसी सर पटककर बैठ गई|
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“घोर कलयुग है, इस पगली को इतना भी न पता कौन से दिन त्यौहार में कौन सा रंग पहना करे!” मीनू ने काले रंग का सिल्क का सलवार कमीज पहना और हर बार की तरह माथे पर काली बिंदी भी सजाई| मौसी की हरकत पर यूँ तो सभी लोगों ने ध्यान दिया मगर अब जो मीनू ने किया, उसपर सभी लोग मान करने लगे| मीनू ने हाथ से मूर्ति ले जाकर गर्भगृह में रखी और पलटकर मौसी से बोली, “मौसी जी, अगर काला रंग इतना ही बुरा होता तो फिर बाल गोपाल कृष्णा जी की माता उन्हें इतना प्यार क्यूँ करती! जरा गौर से सोचिए|”
मीनू के इतना कहते ही गाँव के सभी लोग भजन गायन करने लगे, ‘यशोमति मैया से बोले नन्दलाला, राधा क्यूँ गोरी, मैं क्यूँ काला!’ मीनू की कजरारी आँखों में आत्मविश्वास और सच्चाई थी साथ ही उसकी बेबाकी और मासूमियत ने मौसी जी की दकियानूसी सोच को कैद से आजाद करवा दिया| इसका प्रभाव इतना सकारात्मक था कि अगले दिन पंकज और मीनू की शहर वापसी पर मौसी जी ने खुद मीनू को उपहार और आशीर्वाद स्वरूप रंग बिरंगी बिंदियों के साथ काली बिंदी का भी पत्ता दिया और कहा, ” इसे हमेशा अपने माथे पर सजाये रखना बहू, काला रंग बुरी नजर से भी तो बचाता है|”
सकारात्मक सोच के साथ मौसी जी ने बच्चो को विदा किया|
पूर्णतः मौलिक व स्वरचित रचना
मनप्रीत मखीजा