चाँद आज यौवन के घोड़े पर सवार हो,चाँदनी बिखेर रहा है। चकोर भी भाव विभोर हो तृप्त हो रहा है। पर इस सम्मोहक-वातावरण में भी वातायन से झाँकते वेदैही के झील से दो नयनों में अश्रु-कण झिलमिला रहे हैं ।
सौम्य-शीतल चाँदनी में भी उसके भीतर ज्वालामुखी फूट रहा है , जिसका लावा उसके तन-मन को जलाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा।
बरसों से वह जल रही है।
लेकिन क्यों?
आज वह जिस मुकाम पर है , नहीं होती यदि उसने विरोध करके, आगे कदम न बढ़ाया होता तो। एक प्रशासनिक-अधिकारी होना कोई छोटी बात नहीं है।
जब-जब चाँदनी धरा को चूमती है तब-तब उसका सर्वांग जलने लगता है। वो भी तो एक सुरम्य-शीतल चाँदनी रात ही तो थी जो उसके जीवन में तूफान बनकर आयी थी। उसे क्यों नहीं भूल जाती हूँ
लेकिन कैसे भूले? जिसको उसने अपना सर्वस्व लुटाया था उसी ने उसको, अपनी महत्त्वाकाँक्षा पूर्ण करने के लिए दाँव पर लगाने का विचार बना लिया था।
विवाह के बाद पाँच वर्ष तो स्वर्ग की सैर करते ही बीते थे। अचानक एक दिन विमोह के बॉस की नजर उस पर पड़ गई।
विमोह ठहरा वहाँ का एक अदना-सा अधिकारी। एक दिन बॉस ने विमोह को तलब किया।
“सर! आदेश कीजिए,” विमोह ने निवेदन किया।
“महँगाई के दौर ऊपर से छोटी-सी तन्ख्वाह, घर चलाने में तो मुश्किल आती होगी।”
जी! आती तो है पर—–
“पर, क्या?”
“वो काफी अरसा हो गया, प्रमोशन भी नहीं हुआ, जबकि मेरे बाद में आने वालों का हो गया।”
“तुम्हारा भी हो जाएगा, मेरे सचिव पद पर।”
“वो कैसे? सर!” पूछते हुए विमोह खुशी के समंदर में गोते लगाने लगा, तूफान का अंदेशा किए बगैर।
“सुना है तुम्हारी पत्नी उर्वशी-सी है।”
“वो,वो तो—–जी! हाँ,” हकलाते हुए बोला।
” एक रात हम भी इन्द्र बनकर रसस्वादन कर लेंगे और तुम्हें जो चाहो मिल जाएगा। यदि चाहो तो—–।”
“लेकिन,सर! वो मेरी पत्नी है।”
“मैंने कब बोलो की मेरी पत्नी है। लेकिन, वेकिन छोड़ो, आजकल यह सब बातें नॉर्मल है, ज्यादा मत सोचो केवल प्रमोशन की सोचो।”
“ठीक है।”
कहकर विमोह घर की ओर चल दिया लेकिन इसी उधेड़बुन में रहा कि वेदैही से कैसे बात करेगा? क्या वेदैही मानेगी?
उसे मानना ही होगा। फिर गाड़ी-बंगला, नौकर-चाकर सब होंगे, एक आलिशान जिन्दगी होगी, इसी तरह विचारों की शृंखला चलती रही और घर आ गया।
वेदैही चाय लेकर आई तो विमोह को खोया देखकर—–।
“कहाँ खोये हो?”
विमोह जैसे धड़ाम से धरती पर गिरा।
“कहीं नहीं , यहीं हूँ ।”
कहकर विमोह ने बात टाल दी।
समय अपनी गति से अनवरत बहता रहा। असमंजस की स्थिति में दो दिन बीत गए। लेकिन विमोह, वेदैही से कुछ कह नहीं पाया।
जैसे कोई एवरेस्ट की चढ़ाई चढ़नी हो।
” विदैही को कहना, पहाड़ पर चढ़ने जैसा ही है।” अवचेतन मन बोल पड़ा।
आखिर कहना तो पड़ेगा ही, प्रमोशन चाहिए—–।
चाहिए, आज तो कह ही दूँगा।
ऑफिस से आया तभी से विमोह को मधुकर की तरह गुनगुनाता देखकर वेदैही पूछ बैठी।
“आज बड़े रोमांटिक हो रहे हो, क्या बात है?”
“आओ पास बैठो तो बताऊँ।”
“यह लो,आ गई। कहिए कौनसा खजाना हाथ लगा है?”
“मेरा प्रमोशन होने वाला है।
अच्छा! यह तो वाकई खुशी की बात है।”
“कब हो रहा है?”
“पहले एक शर्त रखी है बॉस ने।”
“कैसी शर्त?”
“एक रात उनके घर पार्टी में जाना होगा।”
“तो चल लेंगे।”
“तुम्हें अकेले जाना है।”
“यह सम्भव नहीं है।”
“फिर प्रमोशन भी नहीं होगा।”
“नहीं चाहिए मुझे आपका ऐसा प्रमोशन, जो मुझे दाँव पर लगाकर मिले। एक बात बताओ, आपके मन में यह विचार आया भी कैसे? कि मैं इस बात के लिए , हामी भर दूँगी।”
“वो प्रमोशन—–।”
“भाड़ में गया प्रमोशन, तुमसे घिन्न आने लगी है । लालच में अन्धा होकर,कोई कैसे इतना गिर सकता है? अपनी पत्नी को गैर की बाहों में भेज सकता है। छि: डूब मरो थोड़ी शर्म बाकी हो तो।”
“अरे! आधुनिक युग में भी तुम रुढिवादी बातें कर रही हो।”
“अब चुप हो जाना वर्ना—–, मेरे हाथ से तुम्हारा खून हो जाएगा।”
“तुम अपने आधुनिक युग के साथ रहो,मैं चली।” कहकर वेदैही अपना सूटकेश पैक करने लगी।
शकुंतला “अग्रवाल शकुन”
भीलवाड़ा राज.