बहुत खुशहाल जिंदगी थी ,सुधीर जी की प्यारी सी पत्नी अंजू ,दो प्यारे बेटे, खुशहाल सा संसार, अच्छा बिजनेस, एक सुखद गृहस्थी में जो होना चाहिए वह सब कुछ था ।बच्चे बड़े हो रहे थे। बड़े बच्चे ने एमबीए करके पापा के बिजनेस को ही संभालने का मन बनाया, वही छोटा बेटा अपनी पढ़ाई करने के लिए विदेश चला गया।
हम जो सोचते हैं, वैसा नहीं होता। बड़े बेटे की शादी की बातचीत चल ही रही थी। एक दिन अचानक अंजू के सिर में दर्द हुआ, और दर्द ऐसा हुआ कि वह उनकी जान लेकर ही गया।
एक अजीब सा सन्नाटा ,एक अजीब सी उदासी आ गई थी, सुधीर के जीवन में ।
52 वर्ष की उम्र ऐसा पढ़ाव होता है जहां व्यक्ति को जीवन साथी के साथ अपना समय बताने की आवश्यकता बहुत ज्यादा होती है। ऐसा लगा नैया मझधार में पड़ गई।
सब कुछ उदासी से चल रहा था। बड़े बेटे के रिश्ते तो आ ही रहे थे। एक योग्य लड़की देख कर उसका विवाह कर दिया। सारा समय अपनी पत्नी अंजू की कमी लगती रही, और हर वक्त उनकी आंखें नम होती रही। नई बहू का आगमन हो गया। बहु अच्छी थी, उनका ख्याल रखती थी। सभी ठीक चल रहा था, पर एक अजीब सा खालीपन हमेशा महसूस करते थे। उनकी यह उदासी उनके दोस्त भी हर समय महसूस करते थे। अपने दोस्त के जीवन में ऐसा क्या कर दिया जाए जो इसके चेहरे की हंसी वापस आ जाए? इस दिशा में प्रयास करते रहते थे। “जहां चाह वहां राह” थोड़े दिनों बाद ही उन्हें पता चला कि पास के शहर में सुनंदा नाम की स्त्री के पति का निधन हो गया है।
सुनंदा की 3 बच्चियां, दो बच्चियों की शादी कर चुकी थी। एक बालिका अपनी शिक्षा पूर्ण कर रही थी ।परिवार की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी, और रही सही कसर पतिदेव के इलाज में पूरी हो गई थी। सुनंदा की जिंदगी भी खालीपन से भरी हुई थी। दोस्तों ने रिश्तेदारी के माध्यम से सुनंदा और सुनंदा के ससुराल वालों की मनोभावनाओं को समझा, और अपने दोस्त सुधीर को अपने पुनर्विवाह के लिए तैयार किया। सुधीर भी अपने एकाकीपन को दूर करना चाहते थे। अतः स्वीकृति दे दी। लेकिन उनका बड़ा पुत्र, उसकी पत्नी एवं पत्नी के मायके वाले इस संबंध के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। उन्हें लग रहा था क्या पता? नई मां के आने से घर के समीकरण बदल जाएंगे। अपनी बिटिया को सास को निभाना होगा ,।
किसी भी प्रकार से राजी नहीं हो रहे थे,और अपने विरोध को दर्ज कर रहे थे।
विदेश में रह रहा छोटा बेटा अपने पापा की मन स्थिति को समझ रहा था, और उसने सहज ही स्वीकृति दे दी थी।
स्थिति बहुत-् कशमकश की थी लेकिन दोस्तों के प्रयास से किसी तरह से बड़े बेटे, बहू को समझाया ,और उन्होंने थोड़ी कम रजामंदी से हां कर दी। बहुत ही छोटे समारोह में सुधीर जी और सुनंदा का पुनर्विवाह हो गया। सुनंदा अपनी बिटिया को भी लेकर आई, और पूरी तरह से इस परिवार में घुल मिल गई ।
अपनी बहू को भी बेटी के समान स्नेह करती है। उसकी दोनों बेटियां और दामाद बहुत ही सुलझे हुए है, उन्होंने सहज ही स्वीकृति दे दी थी ,और शादी समारोह में शामिल भी हुए थे। सुधीर जी के चेहरे पर चमक आ गई है। उन्हें सुनंदा के रूप में एक मित्र मिल गई थी, जो उनकी मनो भावनाओं को समझती थी और दोनों के जीवन को एक नई राह मिल गई थी।
सच भी है, जीवन कभी इस मोड़ पर कई लोगों को लाकर खड़ा कर देता है, ऐसे दोराहे पर रहते हैं कि वह क्या करें ?
कभी-कभी बच्चे इस चीज को समझ पाते हैं, कभी नहीं समझ पाते लेकिन बच्चों को इस बात को स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए, कि अगर हमारे पापा मम्मी उम्र के किसी पड़ाव पर अगर ऐसा कोई फैसला उन पर आ पड़ता है, तो उनका साथ देना चाहिए, क्योंकि जब बच्चे युवा होते हैं, तब उनके किसी भी फैसलों में माता-पिता भी अपनी सहमति जताते हैं, ताकि बच्चे अपना जीवन जी सके। अगर कभी माता पिता पर ऐसा समय आए तो भी बच्चों को अपने हृदय को बड़ा करके सही निर्णय लेना चाहिए, इस में क्या हर्ज है? और इसका विरोध क्यों???
#विरोध
सुधा जैन
रचना मौलिक है।