“मुझे ना सुनना पसंद नहीं ” दीदी बाऊजी तो ये लाइन बोल कर चले गए। आप तो मेरा साथ दो।मैं कैसे किसी लड़के को बिना जाने ब्याह के लिए राजी हो जाऊँ। ” काव्या चिंतित होते हुए बोली।
“बहन , बाऊजी पिता हैं हमारे ,हमारी जिंदगी का फैसला गलत थोड़े ही लेंगे। सच बताऊँ, ऐसा ही मुझे लगा था जब मेरा रिश्ता पक्का होने वाला था। आज मैं अविनाश के साथ कितनी खुश हूंँ। तुम तो शुरू से ही पापा की लाड़ली हो मैं विश्वास से कहती हूं,पापा की पारखी नजर धोखा नहीं खा सकती। एक बार अंकुर से मिल लो, कविता ने छोटी बहन का दिल बढ़ाया।
काव्या और अंकुर मिले। अंकुर ने दो चार सवाल किए पर काव्या ने नाराजगी में कुछ भी पूछना जरूरी नहीं समझा।
शादी की तैयारियाँ शुरू हो गईं। दोनों खानदान बराबरी के थे तो समाज में दोनों कुलों का रुतबा था। केदारनाथ जी ने बड़ी बेटी की तरह छोटी बेटी के दान दहेज में कोई कमी नहीं छोड़ी।
विदाई का समय बड़ा भावुक था।
केदारनाथ जी ने काव्या के सिर पर हाथ रखा धीरे से कान में कुछ कहा। जिसके बाद काव्या के नेत्रों से अश्रु छलकने लगे पर अधरों पर बड़ी सी मुस्कान आ गई।
काव्या की सारी नाराजगी जैसे एक पल में दूर हो गई “आई लव यू पापा, आई मिस्ड यू सो मच।”
काव्या अंकुर परिणय सूत्र में बंध गए। काव्या विदा हो गई। यूं तो काव्या धीरे -२ ससुराल के रंग में रंगने लगी। नए माहौल के हिसाब से ढ़लने लगी। शादी को एक साल होने आया पर आज भी कहीं न कहीं काव्या को यूं लगता है कि अंकुर उससे प्यार करता है, ख्याल भी रखता है पर सम्मान नहीं करता है।
अंकुर ने अपने पिता और बड़े भाई को यूं ही अपनी पत्नियों पर प्रभुत्व जमाते देखा था। काव्या खुले विचारों की लड़की थी। उसे ससुराल के बंधन बुरे नहीं लगते थे पर पति की इस सोच से उसे दिक्कत थी।
केदारनाथ जी ने बेटी की मुस्कान के पीछे छुपी उदासी पढ़ ली थी। एक दिन उन्होंने बेटी के ससुराल बिना खबर के जाने की सोची।
अंकुर के बड़े भाई प्रकाश की बहुत जोर से चिल्लाने की आवाज आई। काव्या अंकुर दौड़ते हुए बाहर आए।
“जाहिल औरत ,बीस लाख के चेक पर चाय गिरा दी। किसी काम की नहीं हो तुम। दूर हटो मेरी नजरों के सामने से” प्रकाश ने पत्नी दीपा का धक्का दिया।
काव्या ने दीपा को संभाल लिया और बोल पड़ी ,”बड़े भैया ,चाय तो आपसे भी गिर सकती थी । ये तो कोई जान बूझ कर की गई गलती नहीं जो आप भाभी के साथ ऐसा व्यवहार कर रहे।”
दीपा घबरा गई क्योंकि उसे तो इस अपमान की आदत थी पर उनके ऊंचे घराने में औरतों को बोलने की आजादी नहीं थी।
अंकुर को काव्या का अपने बड़े भाई से आंख दिखाकर बात करना गंवारा नहीं था। जैसे ही उसने काव्या को चुप कराने के लिए हाथ उठाया काव्या के बिल्कुल पीछे खड़े केदारनाथ जी को देख वो ठिठिक गया।
काव्या घबराकर पिता के गले लग गई। आज वो दबे आसूं बह निकले।
“बरखुरदार, बेटी की शादी हम अपनी बराबरी के घर में करना चाहते थे। मैने इस खानदान का जितना नाम सुना था आप लोगो को सभ्य, शिक्षित और सुसंस्कृत समझा था।”
केदारनाथ ने काव्या के साथ दीपा को भी दिलासा दिया। पिता का सिर पर हाथ देख दीपा भी फफक फफक कर रो पड़ी।
“जानकी दास और गोदावरी भाभी वृंदावन गए है जानता हूं । नहीं तो ये सवाल मैं उनसे पूछता। शहर भर में लक्ष्मी टेक्सटाइल्स के नाम से इतना बडा़ व्यापार और घर की लक्ष्मीयों का ये हाल। बेहद दुखद । मर्द औरत का अपमान करने से पहले ये क्यों भूल जाता है कि वो भी एक औरत की कोख से जन्म लेकर आया है। मर्दानगी औरत के सम्मान में है उसके अपमान में नहीं। “
प्रकाश और अंकुर सिर झुकाए खड़े थे क्योंकि आज उनकी शानोशौकत मिट्टी में मिल रही थी। घर के समधी के आगे पोल खुल रही थी। केदारनाथ जी ने अपने साथ लाई मिठाई और फल,ड्रायफ्रूट्स के पैकेट नौकर को देते हुए कहा।
“ये आपस में बांट लेना ,बेटी के ससुराल खाली हाथ नहीं जाते इसीलिए ये सब ले आया था। पर ये नहीं सोचा था बेटी को साथ ले जाना पड़ेगा।” केदारनाथ ने काव्या को इशारा करते हुए कहा।
प्रकाश ने अब तक अपने ननिहाल वालों और ससुराल वालों को अपने पिता के आगे झुकते ही देखा था। ऐसा पहली बार हो रहा था कि किसी समधी ने आंख उठाकर बात की हो। वो समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। बात बाहर गई तो उनके खानदान का नाम खराब होगा, दूसरी तरफ उसका अहम उसे झुकने भी नहीं दे रहा था।
काव्या बैग बनाने लगी। अंकुर कमरे में गया उसकी अलमारी जोर से बंद करते हुए धमकाने लगा।
“काव्या ये मत भूलो, तुम्हारी शादी हो चुकी है अब तुम्हारा मेरे बिना रहना संभव ही नहीं, समाज तुम्हेँ और तुम्हारे घरवालों को जीने नहीं देगा। इससे अच्छा है ये बेफकूफी मत करो बहुत पछताओगी। एक बार घर से बाहर पैर रखा तो फिर इस घर में कभी पहले जैसा सम्मान नहीं पाओगी।”
काव्या मुस्कुराने लगी ” सम्मान ,मिस्टर अंकुर इस शब्द का मतलब भी समझते हो ।शादी दो लोगों का जीवन भर का साथ होता है जिसमें दोनों एक दूसरे को समझते है, प्रेम-प्यार ,विश्वास के साथ परस्पर सम्मान होता है। यहां तो मैंने सिर्फ औरतों को मर्दों का सम्मान करते देखा। न पापाजी ने मम्मी का , न भईया ने भाभी का कभी सम्मान किया। आपके व्यवहार में शिक्षा से ज्यादा आपके माहौल का प्रभाव पड़ता है। जो आपका स्वभाव बन जाता है। मेरे पिता ने मुझे विदाई के समय ही कह दिया था- बेटा, सबका मन जीतने को कोशिश करना, सबको प्यार और सम्मान देना। जहाँ हार मानने से कलह खत्म होता हो, वहां हार मान लेना लेकिन बात जब आत्म सम्मान पर आए तो याद रखना तेरे पिता तेरे साथ है। बस पिता की इसी सीख को याद रख मैंने बारह महीने में, आपको या घर के बड़ों को एक शिकायत का मौका नहीं दिया लेकिन आज पापा नहीं आते तो आप हाथ उठा चुके थे।”
काव्या ने अपना सूटकेस बाहर निकाल लिया। केदारनाथ जी इंतजार करते रहे थे। प्रकाश और अंकुर को अपनी गलती का एहसास हो गया था पर भाई लड़के वाले कहां झुकते हैं।
काव्या को निकलते हुए दरवाजे के पीछे खड़ी दीपा दिखाई दी जो हाथ जोड़े खड़ी थी। उसके हाव भाव से ऐसा लग रहा जैसे वो कहना चाह रही हो..
“काव्या घर छोड़ना समस्या का हल नहीं ,खानदान की बदनामी होगी। पापा जी की नाराजगी और बढ़ जाएगी। तुमसे तो हमे बदलाव की उम्मीद है जो सबक तुम्हारे पिता ने सिखाया है वो बहुत है । मम्मी जी और मेरा सोच कर रुक जाओ। अब जो क्रांति की चिंगारी तुमने लगाई है, उसे आग बनने से कोई नहीं रोक सकता। इस घर के मर्दों को औरतों का सम्मान सीखना होगा।”
काव्या ने सूटकेस वही छोड़ दिया। पिता गुस्से में थे। काव्या ने जाकर समझाया ,”पापा मुझे पता है आपको ना सुनना पसंद नहीं है फिर भी अब यही मेरा घर है। दोनों घरों का मान-सम्मान मेरी जिम्मेदारी है। मेरे आत्मसम्मान की लड़ाई में आप सिर्फ साथ दीजिए, आगे मैं सब संभाल लूंगी । मैं सिर्फ आपकी बेटी या इस घर की बहु नहीं, इस परिवार की एक नए बदलाव की उम्मीद हूंँ। सो आप जाइए आपकी बेटी सब कुछ ठीक करके जल्दी मिलने आयेगी”
प्रकाश और अंकुर शर्मिंदगी से धरती में नज़रें गड़ाए खड़े थे।
केदारनाथ को अपनी बेटी के इस फैसले पर कितना गर्व हो रहा था, ये एक बेटी का पिता ही समझ सकता है।
धन्यवाद दोस्तों।
अंकुर उन मर्दों में से था, जिन्हें इस बात का गुमान होता है कि अब हमारा परिवार ही हमारी पत्नी का परिवार है। जिस हाल में रखा जाए इनको रहना ही पड़ेगा। अपनी इस सोच को वो औरतों के मन-मस्तिष्क पर इस तरह हावी कर देते है कि औरतें असुरक्षा से घिर जाती हैं। खुद को असहाय और कमजोर महसूस करने लगती है। अपने साथ होते अन्याय या मेंटल टॉर्चर को अपनी किस्मत मान लेतीं हैं। ऐसे में मेरी कहानी की नायिका और उसके पिता का उठाया कदम आपको कैसा लगा?
आप काव्या के फैसले से कितने सहमत हैं? आपके विचारों का इंतजार रहेगा।
आपकी दोस्त
आरती खुराना (आसवानी)
Bahut hi badia kahani
काव्या का फैसला समसामयिक और बिल्कुल सही था। घर छोड़कर जाना भूल और भय है। परिस्थितियो से लड़ना , सुलझाना, और उसे सही कर लेने मे ही समझदारी है जो काव्या ने किया।
काव्या का फैसला सही है। औरत मै ही वो ताकत है। जो खुद भी बदल सकती है। और औरो को भी ।।।
Bhaut acha