तिरस्कार – चंद्रकान्ता वर्मा

मैंनें सहेली के घर बुजुर्गों का जो तिरस्कार देखा निंदनीय है।एक बार मैंनें सहेली को फोन किया —

हैलो कविता मैं मीरा बोल रही हूं।

हमारा तेरे शहर लखनऊ में ही तबादला हो गया है।

कविता… कितनें अरसे बाद तेरी आवाज सुनीं है।

आओ मिलनें को बडा मन है।

ठीक है आती हूं तुम अपनां पता बताओ।

दूसरे दिन मीरा पहुंच गई।दोनों गले लगीं बहुत खुश थीं,मीरा की नजर उसके ड्रांईग रूम पर पडी भोंचक्की हो गई इतनां बडा घर !!

इतनें में तो मेरा पूरा घर है।सुनां तो था कविता की शादी किसी बडे बिजनेस मैंन के घर हुई है।

हम बचपन में साथ पड़े बड़े हुये मोहोल्ला एक ही था।मेरी शादी बी.ए करनें के बाद जल्दी कर दी गई,कविता एम.ए कर रही थी।डेकोरेशन देख कर लगा कोई फिल्मी घर है।

चाय नाश्ता आ गया था हम लोग स्कूल कालेज की बातें करते और हंसते रहे।

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मुझसे रहा नहीं गया बोली तेरा घर तो बडा़  सुंदर है।बोली चलो दिखाते हैं।कई कमरे थे बडा सा घर उपर चार कमरे घर के सामनें लोन जो बहुत सुंदर था।मैंनें पूंछा क्या बिजनेस है तेरा बोली कई दुकानें है हार्डवेयर की।मेरे ससुर के समय से हैं वही चल रहीं हैं। पीछे गई तो एक दरवाजा दिखा मैंनें कहा ये क्या है बोली ये गार्डन की तरफ का दरवाजा हैं।चल बैठें पर इतनें में कोई फोन आया और वो बात करनें चली गईं ।उसकी छोटी बेटी बोली आंटी बगीचा दिखायें मैं खुश हो गई इतनें रहीस है बाग बहुत सुंदर होगा माली होगा मेरे फ्लेट में तो जगह ही नहीं बालकनीं पे चार गमले हैं।एक सासो जी की तुलसी है बस।



दरवाजा खोलते ही अजीब सी महक आई देखा एक पलंग है उस पर दो वृद्ध लेटे हैं जर्जर हालत है।मैंनें पूंछा ये कौन है बच्ची बोली दादा दादी फिर दूसरी ओर का दरवाजा खोलकर बगीचा दिखानें लगी,मुझे वो बिल्कुल नही भा रहा था सब तरह के फूल पौधे थे,

गुलाब बडे बडे मुझे उनमें से बदबू आ रही थी।

मैं लौट पडी वहां से नहीं रुक पाई और मैंने कविता से कहा जाती हूं और अपनी कार में बैठ गाडी स्टार्ट कर दी बोली मीरा फिर आनां जीजाजी को लानां खानां यहीं खानां।

मुझें उसका वो महल झोपड़ी लग रहा था।

कविता का एक दिन फोन आया मीरा आओ इतवार को यहीं खानां खायेंगे,मैं कुछ नहीं बोली 

क्यो चुप हो ?

मैंनें कहा कविता पहले तुम अपनां बगीचे की ओर जानें वाला दरवाजा खोलो और तुम्हारा बाग बहुत सुंदर है पर वो बरगद के दो वृक्ष जिसकी छांव में यह घर बनां जहां तुम्हारे पति फले फूले उसको सींचो वो मुरझा रहे हैं उनकी सेवा करो।अपनीं तरफ का दरवाजा खोल दो जिससे वो पोता पोती को देखकर खुश हों और फिर हरे भरे हो जायें।

मैंनें फोन बंद कर दिया।

एक दिन कविता पति के साथ आई और बोली परसों इतवार है वहीँ आप लोग खानें पे जरूर आयें,और मुझे गले से लगाकर बोली मैंनें वो बगीचे का दरवाजा खोल दिया है,उसकी आंखे गीली थीं।बोली मैं दोनों बरगद की खूब सेवा कर रही फिर से हरिया गये दोनों बरगद सास ससुर। 

 

स्वरचित

चंद्रकान्ता वर्मा

लखनऊ

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