“सफरनामा” – कविता भड़ाना

चित्रा जी ने देखा उनका सामान

 बेटे ने कार में रख दिया है और ड्राइविंग सीट पर बैठा उनका ही इंतजार कर रहा है, नम आंखों से उन्होंने अपने घर को नजर भर के देखा, जाने कितनी खट्टी- मीठी यादें आंखों के सामने चलचित्र की भांति चलने लगी थी।

दुल्हन बनकर आई थी वो इस घर में, और बड़े ही अरमानों से सजाया था उन्होंने अपने सपनो का ये महल, पति के साथ बिताए दुख -सुख के पलो से लेकर, जाने कितनी यादें बसी हुईं थी, आंखें बार बार भीग रही थी, पर जाना तो था ही, कोई रोकने वाला भी कहा था ।

इकलौते बेटे के जन्म से लेकर, उसकी शादी के समारोह, दुल्हन का स्वागत, पोते “आरव” के जन्म से लेकर, तीन साल पहले पति के आखिरी दिनों और उनकी विदाई का साक्षी रहा ये घर भी आज छूट रहा था।

हॉर्न की आवाज से वो चौंकी और कार की तरफ चल पड़ी।

 चार साल के आरव ने दादी से जल्दी आने को कहा और उनसे लिपट गया। बहु ने भी बस पैर छुने की औपचारिकता निभाई और आरव को लेकर अंदर चली गई।

पूरे रास्ते चित्रा जी और उनके बेटे में कोई बातचीत नहीं हुई 2घंटे बाद गाड़ी एक “वृद्ध आश्रम” में जाकर रुकी।



बेटे ने मां का सारा सामान कमरे में रखा और जल्दी आएगा कहकर वहा से निकल गया, चित्रा जी को पता था कि अब वो कभी नहीं आएगा।

असाध्य बीमारी “कैंसर” के आखरी पड़ाव पर खड़ी बूढी मां  की रात दिन खांसी से परेशान, बेटे बहु को इससे अच्छा कोई विकल्प नहीं मिला, अस्पताल में पैसे खर्च करने पड़ते, अब क्योंकि डॉक्टर जवाब दे चुके थे और ठीक होने की गुंजाइश नहीं थी तो वहा पैसे लगाने की बजाए बूढ़ी मां को वृद्ध आश्रम में भेजना बेहतर  लगा।

चित्रा जी का मन बहुत विचलित हो रहा था, कमरे से बाहर आई तो देखा उनके जैसे और भी लोग एक दूसरे को सहारा देते हुए बगीचे में टहल रहे है, वह भी एक कुर्सी पर बैठ गई और सोच रही थी की ये पुराना पेड़ नई जगह अपनी जड़े कैसे जमा पाएगा,  तभी उन्हें अपने कंधे पर किसी के हाथों का स्पर्श महसूस हुआ और देखा की  सौम्य मुस्कान चेहरे पर लिए हुए एक उन्हीं की उम्र के वृद्ध खड़े है।

चित्रा जी ने उन्हे नमस्ते करने के लिए हाथ जोड़े और तभी अचानक खुशी से चीख सी पड़ी, अरे मनोहर तुम… तुम यहां कैसे तुम तो हमेशा के लिए बाहर चले गए थे ना?

मनोहर और चित्रा कभी कॉलेज में साथ थे और एक दूसरे से बहुत प्यार भी करते थे, पर जात -पात की बेड़ियों ने उन्हे एक नहीं होने दिया, चित्रा तो शादी के बाद ससुराल चली गई और मनोहर के बारे में बस ये ही पता चल पाया था की वो हमेशा के लिए कही बाहर चला गया है।



दोनो की आंखे बरस रही थीं, चित्रा के बारे में मनोहर को सब पता था, क्योंकि आश्रम के संचालक मनोहर जी ही थे,पर उन्हें ये नही पता था कि उम्र के इस पड़ाव पर, जिसके लिए वो आजीवन कुंआरे ही रहे,उनका पहला प्यार “चित्रा” से कभी मिलना भी होगा,वो भी ऐसे हालात में।…

झूठी मर्यादाओं और रिवाजों के कारण जो कभी एक ना हो पाए, अब एक दूसरे का इस उम्र में साथ देने के लिए ही शायद किस्मत ने उन्हे फिर से मिला दिया है।

मनोहर जी ने चित्रा का हाथ थामा और कहा “जीवन की सुहानी भोर और खुशनुमा दोपहरी ना सही, कम से कम जीवन की शांत संध्या में एक दूसरे के साथी तो बन ही सकते है” चित्रा जी की मौन स्वीकृति के साथ ही, उम्र के इस मोड़ पर आकर दोनो ने एक दूसरे का हाथ थाम लिया।

अब ना कोई बंदिश थी और ना ही मर्यादा की रेखा, अगर कुछ था तो वो था, एक दूसरे के लिए “प्यार और समर्पण”।…

स्वरचित काल्पनिक रचना

#मर्यादा

कविता भड़ाना

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!