आज नींद कोसों दूर थी आँखों से,,गिनती भी गिन ली, सरहाना भी बदल लिया पर न जाने कहाँ कहाँ के ख्याल आ जाते और फिर नींद उड़ जाती कल्पनाओं के देश में। इसी उहापोह में भोर होने को आई और थक हार कर नींद भी बोझिल पलकों में समा ही गई।
एक बार फिर सपनों के संसार में क्या देखती हूँ कि बहुत सुंदर युवती दरबार में नृत्य कर रही है। महाराज, युवराज, गणमान्य सामंत, श्रेष्ठी ,,वाह वाह!! कर उसके सौंदर्य पर मुग्ध हुए जा रहे थे और खून पसीने की कमाई उस पर लुटा रहे थे।
उसका नाम उर्वशी था । वह नगर की मशहूर गणिका थी। जितना धन और प्रशंसा मिलती उतना ही अधिक जोश बढ़ता जा रहा था उसका। नृत्य समाप्त हुआ और वह थक कर चूर हो गई। अब वह बिल्कुल अकेली थी, पैरों में घुंघरू की रगड़ से रक्त झिलझिलाने लगा था। उसके सौंदर्य के पुजारियों में कोई ऐसा नहीं था जिसने उसके दिल पर दस्तक दी हो, जो उसके दर्द पर तड़प उठे, जो प्यार से उसके घावों पर मल्हम लगाये।
आँखों में आँसू भर आये उसके कितनी मजबूर थी न वो। उसकी अपनी मर्ज़ी का कोई महत्व ही नहीं था, चाहे शरीर में खड़े होने की भी ताकत न हो पर उसे लोगों का मनोरंजन करना ही पड़ता । यूँ तो हर वक़्त भीड़ से घिरी रहती वो पर उनमें मन की सुनने कहने वाला कोई नहीं था।
तभी एक आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई,, भिक्षां देहि,, उसने अट्टालिका से नीचे झांक कर देखा। एक युवा सन्यासी हाथ में कमंडल लिये भिक्षा के इंतज़ार में खड़ा था। उसके चेहरे पर अपूर्व तेज था। एक उचटती सी नजर उसने उर्वशी पर डाली और नज़रें फेर लीं। ऐसा तो उसके जीवन में
पहली बार हुआ था जब उसका सौंदर्य किसी पुरुष के लिये बेमानी था वरना उसकी एक झलक पाने के लिए लोग आतुर रहते थे।
उसने दासी से कहा कि उन्हें आदर सहित ऊपर ले आये पर उन्होंने साफ इंकार कर दिया। उनके जाने के काफी देर बाद तक भी उर्वशी सम्मोहित सी वहीं बैठी रही। उस धीर, गंभीर, संयमी पुरुष ने उसके मन की वीणा के तारों को झंकृत कर दिया था। उसके स्त्री मन को लंपट और सौंदर्य लोलुप पुरुष कभी आकर्षित नहीं कर पाये लेकिन आज किसी की अवहेलना ने उसके दिल में पहली बार प्रेम के बीज अंकुरित कर दिये थे।
उसने आशा का दामन नहीं छोड़ा और बार बार दासी को उन्हें बुलाने भेजती रही और हर बार निराशा ही मिली उसे। आखिर उसने स्वयं उनके पास जाने का निश्चय किया। उसे लगा शायद उनकी शरण में जाकर मन कुछ शांत हो।
रात्रि के तीसरे पहर में वो जब घर से निकली तो उसका अंग प्रत्यंग रत्न विभूषित था। अंधेरे में रत्नाभरण भरे अंगों में ऐसे सुंदर लगते थे ज्यों प्रफुल्ल वल्ली पर सौ सौ जुगनू जगमग करते थे। उसे लग रहा था शायद आज उसका सपना साकार हो जाये और उसकी प्रेम याचना स्वीकृत हो जाये।
पर वाह री किस्मत!! उसके प्रिय ने एक नजर उठाकर भी नहीं देखा।
सन्यासी ने बड़े ही विनम्र स्वर में कहा, आदरणीया यह स्थान आपके लिए उपयुक्त नहीं है। मैं आपकी कोई सेवा नहीं कर सकता। आप सुख सुविधामय जीवन जीने की अभ्यस्त हैं। कृपया अपने घर जाइये लेकिन एक वादा करता हूँ जब सच में आपको मेरी जरूरत होगी, जब कोई आपका साथ नहीं दे तो आप दिल से मुझे याद करना, मैं अवश्य आऊंगा।
उर्वशी भारी मन से वापस लौट आई। समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। अब यौवन ढलने लगा था और चाहने वालों की संख्या भी न के बराबर रह गई थी। अकेलापन काटने को दौड़ता उसे, धन भी घटने लगा।
कई दिनों से खाँसी हो रही थी उसे कोई दवा असर नहीं कर रही थी। चेहरा पीला पड़ने लगा और शरीर भी बेहद कमजोर हो रहा था। एक दिन खाँसी में खून आया। वैद्य को दिखाने पर पता चला कि क्षय रोग हो गया है। अब तो सबके चेहरों से नकाब उतरने लगे। अपनेपन का दंभ भरने वाले उसकी परछाईं से भी बचकर चलते। बीमारी से ज्यादा उपेक्षा ने तोड़ दिया उसे।
तभी उसे वही स्वर सुनाई दिया,, भिक्षां देहि,, न जाने कहाँ से उसके तन में स्फूर्ति आ गई । दौड़ती हुई आई और सन्यासी के चरणों में गिर पड़ी। उन्होंने उसे उठाया और अपने आश्रम में ले आये। जीवन की अंतिम सांस तक सेवा की उसकी । शायद प्रेम की मर्यादा इसी को कहते हैं।
डोरबेल की आवाज़ ने स्वप्न के आकाश से हकीकत के धरातल पर ला खड़ा किया लेकिन वह सपना उसे बार बार याद आता है।
#मर्यादा
कमलेश राणा
ग्वालियर