माधव जी सकते में पत्थर हुए बैठे हैं। कमरे का माहौल ऐसे शांत हो गया है जैसे अमावस की रात में खाली आसमान।
दोपहर में पत्नी का क्रियाकर्म कर के वापस आये तब से घर मे गहमा गहमी मची हुई थी। शाम तक दूर के रिश्तेदार वापस जाने लगे थे। बचे हुए भाई बन्धु बैठ कर आगे कैसे करना है विचार कर रहे थे कि अचानक उनका बेटा बोल पड़ा, आप सब देख लो जैसे भी करना है, मैं कल शाम की फ्लाइट से वापस जा रहा हूँ, मुझे छुट्टियां नही है। वैसे भी अब जो होना है दुनिया को दिखाने के लिए करना है।मेरा काम तो खत्म हो गया।
किसी को कुछ सूझ नही रहा था क्या कहे क्या करें। एक एक कर सब कमरे से चले गए। बेटा भी जाकर सो गया।
माधव जी अकेले आंसू बहाते बिस्तर पर पड़े सोच रहे थे कि सालो पहले लिया गया फैसला गलत था या सही।
बड़े अधिकारी माधव जी ने शुरू से अकेले बेटे को होस्टल में रख कर पढ़ाया ताकि वो दुनिया दारी अच्छे से सीख सके। ज़माने से कदम से कदम मिला कर चल सके उनकी तरह बड़ा आदमी बने जिसकी घर परिवार समाज मे इज्जत हो।
उसकी छुट्टियां होती तो कभी घर ले आते कभी किसी हिल स्टेशन घुमा लाते।रिश्ते नाते परिवार के ताने बाने से अनजान बेटा कुछ ऐसा तरक्की करता गया कि विदेश में जाकर बस गया। न उसने पिता का पसीना चखा न माँ की ममता का शहद। जीनियस, उत्कृष्ट,टॉपर का तमगा सीने पर लटकाए बस आगे बढ़ता गया। माता पिता सब जगह उसके गुणगान करते फिरते, उसकी तारीफ से रिश्तेदारों के चेहरे उतरते देखते तो बड़ा सुकून मिलता। फिर एक दिन वहीं किसी सहकर्मी से शादी कर बस जाने का ऐलान कर दिया उसने। मन मार कर उसके बिना घर पे एक छोटी सी पार्टी कर रिश्तेदारों को सूचना दे दी।
बचपन से जैसे रिश्ते देखे उसने वही आज निभाया। जैसे बाकी सब वैसे ही माँ बाप। अंतर करना कहाँ आया रिश्तो में उसे। सिखाया किसने उसे की कौन कितना करीब।
माधव जी रात के अंधेरे में लेटे हुए सोच रहे थे। मौत किसकी हुई इंसान की या रिश्तो की।
संजय मृदुल
रायपुर