टूटता भरोसा   – डाॅ संजु झा

हम जिन्दगी में कभी-कभी किसी के  धोखे के बुने हुए जाल को समझ नहीं पाते हैं,उन पर भरोसा कर अपना सर्वस्व लुटा बैठते हैं।बाद में पछताने के सिवा हाथ में कुछ नहीं आता है और हम हाथ मलते रह जाते हैं।आज मैं एक धोखे की कहानी लेकर उपस्थित  हूँ।

 

हमारे पड़ोस में उमेश जी और नमिता जी पति-पत्नी रहते थे।उमेश जी सरकारी नौकरी में थे और पत्नी नमिता गृहिणी।दोनों की जिन्दगी में कोई कमी नहीं थी।बड़ा घर,बड़ा बगीचा ,पर्याप्त पैसे और पति-पत्नी में आपस का प्यार। सभी कुछ तो थे उनके पास। कमी थी तो बस एक संतान की।काफी इलाज के बाद भी जब उन्हें संतान का सुख नहीं प्राप्त हुआ  तो उन्होंने यह कहकर संतोष कर लिया-“ईश्वर  ने हमारी किस्मत में संतान सुख नहीं लिखा है।”

 

उमेश जी के दफ्तर  जाने के बाद  नमिता जी एक-दो घंटे अपना समय बागवानी में व्यतीत करतीं।उन्होंने पेड़-पौधों को ही अपनी संतान मान ली थी।कभी आम के पेड़ को फलों से लदे देखकर खुश होकर कहतीं-“इस साल तो खूब फल-फूल रहे हो,पिछले वर्ष  तो रुठ ही गए थे।”

पेड़ भी मानो उनकी बातें सुनकर हवा से झूमने लगतें।

कभी गुलाब के फूलों  को नर्म हाथों से सहलाते हुए कहतीं-“आज तो खिलकर बड़े इठला रहे हो ?तुम्हारी सुन्दरता मेरा मन मोह लेती है।”

 

नमिता जी अपने बगीचे के हर पेड़-पौधोॅ से अपने बच्चों के समान बातें करतीं।उन्हें छूकर प्यार से सहलातीं।उनका कोमल स्पर्श उनके तन-मन में स्फूर्ति भर देता।आम-लीची के मौसम में तरह-तरह की चिड़ियाँ उनके बगीचे में आ जातीं।वे कुछ देर तक भावविभोर  होकर उनका फुदकते देखतीं,फिर इशारे से कहतीं-“अभी रुको,तुम्हारे लिए  अंदर से दाना लाती हूँ।” 

चिड़ियाँ भी मानो उनकी बातें समझती,दाना का इंतजार करने लगतीं।दाना खाकर फुर्र से उड़ जातीं।जैसे ही नमिता जी अंदर आने लगतीं ,तभी कोयल की मीठी कूक कानों में  मिश्री घोलने लगती।थोड़ी देर रूककर  बच्चों के समान उसकी कूक में अपनी आवाजें मिलातीं।प्रकृति के साथ जुडकर उनका समय अच्छा से व्यतीत हो जाता।

 



शाम में जब उमेश जी दफ्तर  से लौटते,तो दोनों पति-पत्नी बगीचे में बैठकर चाय पीते।नमिता जी चाय पीते हुए  प्रत्येक  पेड़-पौधों की जानकारी उमेश जी को देतीं।उमेश जी भी बड़े ध्यान  से पत्नी की बातें सुनते।छुट्टियों के दिन उमेश जी भी पेड़-पौधों की देखभाल करते।नए-नए फल-फूल,सब्जियों के पौधे लगाते।एक कामवाली दिनभर  रहती,जो नमिता जी की मदद करती।दोनों पति-पत्नी खुशी से जिन्दगी बिता रहे थे।छुट्टियों में दोनों कभी रिश्तेदार के यहाँ,कभी घूमने,कभी मंदिर चले जातें।धीरे-धीरे उन्होंने रिश्तेदारों के यहाँ जाना छोड़ दिया।रिश्तेदार कटाक्ष करते हुए कहते -“इतना बड़ा घर,इतना बड़ा बगीचा किस काम का,जब इसे भोगनेवाला ही नहीं है!”

रिश्तेदारों की जली-कटी सुनकर उन्होंने उनसे किनारा कर लिया।दोनों पति-पत्नी अपनी दुनियाँ में मग्न रहतें।

 

देखते-देखते उमेश जी नौकरी से अवकाशप्राप्त  हो गए।अब वे दिनभर घर में ही रहने लगें।बढ़ती उम्र के साथ अब बागवानी करने में शरीर साथ नहीं देने लगा।उम्र के इस पड़ाव पर आकर उन्हें संतान की कमी महसूस होने लगी।आज तक उन्होंने किराएदार नहीं रखे थे।पड़ोसी उन्हें कहते भी थे-“उमेश जी !इतना बड़ा घर है,कोई किराएदार रख लीजिए ।घर हरा-भरा लगेगा!”परन्तु उन्हें कभी किराएदार रखने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। 

 

वक्त  और हालात के साथ व्यक्ति के विचार भी बदल जातें हैं। आज जब  इंजिनियरिंग  का विद्यार्थी सुमित उनसे रुम माँगने आया,तो पति-पत्नी उसे ना नहीं कह सकें।सुमित का गोरा रंग, ऊँचा कद,बातचीत करने के सलीक़ेदार ढ़ंग ने उन्हें प्रभावित कर दिया।उन्होंने ऊपर का एक कमरा सुमित  तथा दूसरा कमरा अनिल नाम के लड़के को किराए पर दे दिया।सुमित पढ़ाई कर रहा था और अनिल ग्रेजुएशन कर  किसी कम्पनी में नौकरी कर रहा था।सुमित अनिल को हेय दृष्टि से देखता था और उससे दूरी बनाए रखता था।

 

 धीरे -धीरे उमेश जी और नमिता जी भी सुमित  पर जान छिङकने लगें।सुमित काॅलेज से आने के बाद  उन दोनों के पास बैठता।उन दोनों को देश-दुनियाँ की ढेरों बातें बताता।

अब दोनों पति-पत्नी को सुमित बेटा के रुप में नजर आने लगा।उमेश जी किसी दफ्तर या बैंक जाते,सुमित उनके साथ चला जाता।सुमित उन्हें आग्रहपूर्वक कहता -“अंकल जी!मेरे रहते आप कहीं अकेले मत जाया करें।मैं किस दिन काम आऊँगा?

उमेश जी उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों से गदगद हो उठते और उसे सभी जगह साथ लेकर जातें।उमेश जी ने अपने पैसों के बारे में कभी नमिता जी को नहीं बताया था।नमिताजी को  भी रूपये- पैसों के मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं थी।उमेश जी को सुमित पर पूरा भरोसा हो गया था।उन्होंने अपने पैसों की पूरी जानकारी सुमित को दे दी थी।

 

एक दिन उनका दूसरा किराएदार अनिल ने शंका व्यक्त करते हुए कहा-“ऑन्टी जी!मुझे सुमित के चाल-चलन ठीक नहीं लगते हैं।”

नमिता जी भी सुमित  पर पूरा भरोसा कर चुकीं थी।उन्होंने उल्टा अनिल को ही डाॅटते हुए कहा-“तुम सुमित  से जलते हो।याद  रखो कि सुमित मेरा बेटा है।”

 

उनकी डाॅट सुनकर अनिल खामोश  हो गया।

 



अचानक एक दिन उमेश जी को दिल का दौरा पड़ गया।उमेशजी की हालत नाजुक थी,परन्तु सुमित ने अस्पताल  ले जाने में जान-बूझकर  देरी कर दी।आखिर अनिल और नमिता जी उन्हें लेकर अस्पताल पहुँचे। बाद मेंसुमित  नमिताजी को दिखाने के लिए  दौड़-धूप करता रहा,परन्तु उमेशजी नहीं बच सकें।उमेश जी की मौत के बाद  सुमित  अपने धोखे की जाल बुनने लगा।नमिता जी सुमित की चाल से बेखबर थीं।उन्होंने आँखें मूंदकर सुमित पर पूर्ण  भरोसा कर लिया।नमिताजी बिल्कुल अकेली रह गईं।अब सुमित  हमेशा नमिताजी के आस-पास ही रहता।उसकी इंजिनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी।वह अब बड़े सपने देखने लगा था।वह कभी उमेश जी का मृत्यु प्रमाण-पत्र  बनवाने, कभी बिजली बिल भरवाने,कभी मकान-टैक्स भरवाने के बहाने नमिता जी से हस्ताक्षर करवाने लगा।नमिता जी भी उसपर आँखें मूंदकर भरोसा करने लगीं।

 

अनिल  सुमित के छल-प्रपंच को पूरी तरह समझ चुका था।अनिल  ने एक बार फिर नमिताजी को आगाह करते हुए  कहा-“ऑटी जी! सुमित के कहने पर सभी पेपर पर दस्तखत  मत कीजिए। “

इस बार भी नमिताजी ने अनिल को ही डाॅटते हुए कहा -“अनिल!सुमित के खिलाफ मैं कुछ नहीं सुन सकती हूँ।”

फिर अनिल के पास चुप रहने के सिवा कोई चारा नहीं था।

सुमित   एक दिन नमिता जी को बैंक ले  गया और उनसे कहा-ऑटी जी!आपको बार-बार बैंक नहीं आना पड़े,इस कारण  बैंक मैनेजर को मेरा परिचय दे दीजिए। ‘”

 

सुमित की बातों में आकर  नमिता जी ने बैंक मैनेजर से कहा -“मैनेजर  साहब!सुमित  मेरा बेटा है।इसे जब जितने पैसे चाहिए, दे देंगे।”

 अब सुमित जब बैंक जाता,तो जानबूझकर नमिताजी का फोन  बंद कर देता।सुमित  ने धीरे-धीरे उनके बैंक के खाते से  सारे पैसे निकाल  लिए। 

 

 पन्द्रह  दिनों के लिए घर जाने की बात  कहकर सुमित  चला गया।दो महीने बीतने पर भी जब सुमित नहीं लौटा तो  नमिता जी ने चिन्तित होते हुए अनिल  से पता लगाने को कहा।अनिल ने पता लगाकर कहा-” ऑटी जी !सुमित  आपके सारे पैसे लेकर अमेरिका पढ़ने चला गया।उसने आपको धोखा दे दिया।”

नमिता जी अब भी सुमित के धोखे पर विश्वास  नहीं कर पा रहीं थीं।

कुछ दिनों बाद  जब उन्हें मकान खाली करने की नोटिस मिली,तब उन्हें सुमित की चाल समझ में आ गई। वे अनिल को पकड़कर रोने लगीं -” अनिल बेटा! मेरे झूठे  विश्वास  ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा।अब इस बुढ़ापे में मैं कहाँ जाऊँगी?क्या करूँगी।सुमित से मुझे इतने बड़े धोखे की कतई उम्मीद नहीं थी।”

अनिल ने उन्हें ढ़ाँढ़स बढ़ाते हुए कहा-“ऑटी जी!मेरी माँ नहीं है।मैं शुरु से आपको माँ के रूप में देखता हूँ।आप इस गरीब बेटे के साथ सम्मानपूर्वक रह सकेंगी।”

नमिता जी ने अनिल को गले लगाते हुए कहा-“बेटा!तू कहाँ गरीब है?गरीब तो विश्वासघाती सुमित है,जो एहसानफरामोश और धोखेबाज है।”

 

समाप्त। 

लेखिका-डाॅ संजु झा।

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