“अपमान का बदला कुछ यूँ लिया” – भावना ठाकर ‘भावु’

“मत डरो तम घिरी राहों के अंधेरों से, जब अंधेरा होता है तभी हम सितारों को देख पाते है” 

कब कौनसी रात का अंधेरा, एक रोशन सितारा लेकर आएगा कोई नहीं जानता।

उम्र के कौनसे पड़ाव में, कौनसी घटना हमारी ज़िंदगी का रुख़ मोड़ देगी कुछ नहीं कह सकते। संभावनाओं से भरी ज़िंदगी जब करवट लेने के मूड़ में होती है तब कोई आपकी ज़िंदगी में किसी बवंडर की तरह ऐसे आता है कि, या तो सब तहस-नहस करके चला जाता है, या तो हमें बुलंदियों पर बिठा देता है। 

कई बार कोई वाकिया ऐसा घटता है कि सच में आपकी ज़िंदगी का रुख़ बदल देता है, या कुछ कर दिखाने का मकसद दे जाता है। कभी-कभी अपमान हमें आत्मसम्मान हासिल करने के लिए उकसाता है, और गुलामी आज़ादी का रास्ता दिखाती है। आज में जो कुछ लिखती हूँ वो ऐसे ही एक वाकिए का फलसफ़ा है।

मेरी ज़िंदगी में कुछ ऐसा हुआ कि, उस वाकिये ने लोकल ट्रेन सी मेरी ज़िंदगी को राजधानी एक्सप्रेस सी गति दे दी। 

मुझे लिखने का शौक़ 15/16 साल की उम्र से था, कुछ न कुछ छोटी मोटी शायरी या रचनाएँ लिखती रहती थी। यार दोस्तों के सामने पढ़ती तो वह लोग वाह-वाही कर देते, तालियाँ बजा देते तो बस हौसला-अफज़ाई हो जाती थी। पर कभी लेखन को गंभीरता से नहीं लिया। फिर तो शादी हुई, बच्चें हुए और लिखना विखना छूट गया, ज़िंदगी ही एक रचना बन गई। 

ज़िंदगी एक लय में बहे जा रही थी, समय बितने लगा था। फिर आया डिज़ीटल युग, मोबाइल जैसे छोटे से मशीन ने सबको दीवाना बनाया था, हम कैसे बचते। पतिदेव ने स्मार्ट फोन लेकर दिया और हमने भी फेसबुक ज्वाइन किया। आहिस्ता-आहिस्ता बहुत सारे ग्रुपों से जुड़ी। जिसमें कुछ साहित्यिक ग्रुप्स भी थे, जहाँ खुद की लिखी रचनाएँ ही पोस्ट करनी होती थी। तो वहाँ से फिर लेखन का कीड़ा सजीवन हुआ। 


एक दिन मैंने सुंदर सी कविता लिखकर एक ग्रुप में ड़ाल दी, और हम तो खुश की आहाआ बस अब सब जल्दी से पढ़े और लाइक कमेन्ट्स का अंबार लग जाए। पर उल्टा दूसरे दिन उस ग्रुप की एडमिन का मेसेज आया कि,

“भावना जी क्या ये कविता खुद आपने ही लिखी है” बस इस सवाल ने मेरी ज़िंदगी को मायना दिया।  मुझे उनके सवाल पर आश्चर्य हुआ, मैंने कहा बिलकुल मैंने लिखी है आप ऐसा क्यूँ पूछ रही है? तो उन्होंने मेरी कविता का स्क्रीन शोट भेजा,

जिसके नीचे किसी ओर बंदे का नाम लिखा हुआ था। एडमिन बोले यह देखिए ये कविता किसी ओर की है, आपने चुराकर ग्रुप में ड़ाली है। पहले तो मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि ये कैसे हो सकता है, बिलकुल मेरे ही मन के भाव किसी ओर के मन में उठे और एक जैसी रचना कैसे लिख सकता है।

मैंने उस मेरी रचना चुराने वाले को मेसेज करके पूछा की क्या ये कविता आपकी है, आपने लिखी है? तो बोला नहीं किसी ग्रुप में देखी, अच्छी लगी तो काॅपी पेस्ट करके चिपका दी। दर असल मेरी एक दोस्त ने मेरी वाॅल से काॅपी पेस्ट करके किसी ग्रुप में डाली थी, और उस बंदे ने वहाँ से उठाई थी।

इधर मैंने एडमिन से बहुत कहा, हाथ पैर जोड़े कि ये मैंने लिखी है मेरा यकीन कीजिए। पर किसीने मेरी बात को सच नहीं माना, मेरी ही लिखी पोस्ट की कमेन्ट बोक्स में ग्रुप के सारे मेम्बर्स मेरी बेइज्ज़ती कर रहे थे, और जो मन में आए सुना रहे थे। ऐसे में खुद को निर्दोष साबित कैसे करती, फेसबुक का ज़्यादा ज्ञान नहीं था। कितने समझाने पर भी मुझे उस ग्रुप से हटा दिया गया। 

उस दिन पहले तो मैं खूब रोई कि अगर मैं कोई बड़ी लेखिका होती तो यही लोग अगर मैं दूसरे की लिखी रचना पोस्ट करती तो भी तारीफ़ों के पुल बाँधते। मैं नई उभरती लेखिका हूँ इसलिए मेरा कोई मोल नहीं। फिर मेरे दिमाग में ट्यूबलाइट हुई

कि मैं तो सही हूँ, फिर मैं क्यूँ रो रही हूँ? क्यूँ न अपने हुनर को हथियार बनाकर अपने लेखन को बढ़ावा दूँ और कुछ बनकर सबकी बोलती बंद कर दूँ। और खुद को साबित करके अपमान का बदला कुछ यूँ लूँ, कि वो मोहतरमा जहाँ खड़ी है

उसके दो पायदान उपर चढ़कर दिखा दूँ। बस उस दिन एक ठोस निर्णय के साथ आँसू पोंछते लेखन को अपना जुनून बनाने का फैसला लिया और एक साल में 1100 रचनाएँ, 40 कहानियाँ और 130 लेख लिख ड़ाले। हर रोज़ देश के कई राज्यों के पेपर, पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ

और लेख छपने लगे। हर साहित्यिक प्रतियोगिता में विजेता बनकर 300 से ज़्यादा प्रशस्ति पत्र पाएँ और दो अवार्ड से सम्मानित हुई। सात साझा संकलन और दो एकल कविता संग्रह पब्लिश हो गए, एक कहानी संग्रह छपने जा चुका है। उस दिन की अनमनी घटना ने मेरी ज़िंदगी का रुख़ बदल दिया। 

आज भी वो एडमिन महोदया किसी न किसी ग्रुप में मिल जाती है, और मेरी रचना पर नाइस या बेहतरीन लिखने से नहीं चुकती। मैं भी अपनी गुरु का धन्यवाद बड़ी अदब से करती हूँ, आफ़्टर ऑल आज एक जानी-मानी लेखिका बनकर उभरने का श्रेय मैं उस एडमिन  मोहतरमा को देना चाहूँगी।

उन्होंने उस दिन मेरा अपमान न किया होता तो आज भी किसी ग्रुप में छोटी-मोटी कविताएँ लिखकर आत्मसंतोष मानकर कुएँ का मेढ़क बनी रहती, मेरी शुष्क सी ज़िंदगी में अल्फाज़ों के फूल नहीं खिलते, माँ सरस्वती का आशीर्वाद नहीं मिलता, और देश के हर राज्यों में अपने लेखन द्वारा खुद की जो पहचान बना पाई वो हरगिज़ नहीं बना पाती। यूँ किसीके द्वारा किए गए अपमान ने मेरी ज़िंदगी को नये मायने दिए। 

भावना ठाकर ‘भावु’ बेंगलोर

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!