काश! – कंचन श्रीवास्तव 

ठंडी पड़ी पत्नी को कोसता हुआ रमेश करवट बदल सो गया।पर क्यों आखिर क्यों कोस रहा है उसको क्यों नहीं कारण खोजने की कोशिश कर रहा ,आखिर पहले तो ऐसी नहीं थी।

गर ऐसी होती तो शादी के बाद से ही उसका दीवाना बना न फिरता।

ये वही रमेश है जिसने दिन को दिन नही समझा और रात को रात नही , न ही अपनों की परवाह की बस जब देखो तब रेखा रेखा पागलों की तरह उसे खोजता रहता।

कोई क्या कहता है, इसका भी इस पर कोई असर नहीं पड़ता।

ये देख सभी कहते अच्छा ही तो है शादी के बाद प्यार हुआ।

हो भी क्यों न बला की खूबसूरत जो है, नख से सिख तक यौवन की मादकता से महक रही उस पर सौम्य और शालीनता तो मानों उसके यौवन में चार चांद लगा रहे।

सच आते ही उसने सबके साथ साथ रमेश का मन भी जीत लिया।

हर कार्य में दक्ष जहां वो सबके उम्मीदों पर खरी उतरी

वहीं रमेश से पूरी तरह दिवाना था।

 फिर ऐसा क्या हुआ, कि दोनों के संबंधों में कड़वाहट आने लगी।

लोगों ने जानने की कोशिश भी कि पर कुछ खास जानकारी इकट्ठी न कर सके।

और वक्त के साथ उनके संबंधों में दिन प्रतिदिन कडुआहट ने नफरत का रूप ले लिया।

फिर अब तो बच्चे बड़े हो गए ,तो लोगों ने फिक्र करना छोड़ दिया।

देते भी क्यों न उम्र जो हो चली थी ।


पर कहते हैं व्यक्तिगत जरूरतों और इच्छाओं से उम्र का कोई  लेना देना नहीं होता।

एक कसक तो है ही। इस बीच उसने अपने पति के बारे में बहकने की भी उड़ती उड़ती खबर सुनी।

जिसने उसके दिलों दीमाग को एकदम से झकझोर कर रख दिया।

और सोचने पर मजबूर हो गई कि आखिर पुरूष असंतुष्ट होने पर उसके कारण को खोजने का प्रयास क्यों नहीं करता।

यदि कारण को खोजने का प्रयास करे तो शायद वही खुशी दोबारा अपनी ही पत्नी में पा सकता है ,जिसके लिए वो इधर उधर मुंह मारता फिरता है।

आखिर विवाह के शुरूआती दिनों में तो ऐसा नहीं होता।

दोनों ही एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखते हैं और संतुष्ट भी रहते हैं फिर वक्त के साथ वो सिर्फ अपनी संतुष्टि तक ही क्यों सीमित होके रह जाता है।

क्यों नहीं अपने साथी की जरूरतों का ख्याल रहता।

ऐसे में वो कहां जाए क्या इसका ख्याल एक बार भी नहीं आता।

और वैसे भी  स्त्री  स्वभावत:  संकोची होती है ,पर जरूरतों का संकोच से क्या लेना देना।

आज करवट बदल कर कोस कर सोते हुए रमेश को देखकर ठंडी पड़ी रेखा सोचने पर मजबूर हैं कि ये समस्या सिर्फ एक स्त्री की नहीं बल्कि उन तमाम स्त्रियों की है जो शुरू से लेकर उम्रेदराज होने तक इसी कुंठा में जीती है। और जब उनके दिलों दीमाग में ये बैठ जाता है कि कहीं न कहीं पुरूष खुद ही संतुष्ट होगा।तो वो ठंडी पड़ जाती है।जिसका इल्ज़ाम भी उसी के सर मढ़ा दिया जाता है।

काश!

कि पुरुष अपने साथ साथ स्त्री की भावनाओं की भी कद्र करें उसकी जरूरतों को भी समझें तो वो ठंडी ही क्यों पड़े।

सोचते हुए सारी रात बिता दी और भोर होते ही अपने घर के कामों में लग लगी। 

 

स्वरचित

कंचन श्रीवास्तव आरज़ू

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