” चलो जाने देते हैं सब हमारी तरह समझदार नहीं होते हैं ” मैंने आदतनुसार उससे कहा और उसने अपनी बड़ी बड़ी पलकें झपकाकर मेरा समर्थन किया, उसके चेहरे पर एक स्मित हास्य वाली मासूमियत आ गई और एक बार फिर मैं उसका व मेरा अपमान भूल गयी।
आप सोच रहे होंगे की वो कौन हैं जिसका अपमान मेरे साथ हुआ हैं? वो मेरे दिल का टुकड़ा, मेरा अंश हैं और मेरे इस प्यारे बेटे का नाम भी अंश हैं जो दस साल का हैं, उसके जन्म के साथ ही हम दोनों माँ-बेटा जाने-अनजाने में समाज द्वारा किया गया अपमान सहन कर कर रहें हैं।
क्या कहा आपने अपमान क्यों सहन कर रहे हैं, हमारा क्या दोष हैं?
जरूरी नहीं हैं कि सारे अपमान दोषी लोगों के होते हैं कभी-कभी नियति के रचाए कुचक्र में निर्दोष लोग भी फंस जाते हैं।
ऐसे ही मेरा दोष यह हैं कि मैं एक दिव्यांग बेटे की माँ हूँ और मेरा बेटा अंश अपनी उम्र से पीछे हैं, वह बोल नहीं सकता हैं।
अंश का जन्म एक पूर्णतया स्वस्थ बालक के रूप में हुआ था और उसके बड़े होने पर हमें उसकी बीमारी का पता चला मैंने और मेरे पति ने इस चुनौती को सहर्ष स्वीकार करते हुए अंश का हर सम्भव इलाज करवाने की ठानी,मुझे मेरे परिवार का पूरा समर्थन प्राप्त हुआ।
पर सामाजिक अपमान का सिलसिला तभी शुरू हो गया था, परिवार,समाज व हितैषी गाहे-बगाहे अंश की बीमारी का जिक्र करके दिल को छलनी करते रहते थे, ऐसा क्यों हुआ इसके लिए जितने मुँह उतनी बातें थी, निराशा के इस दौर में मेरा मानसिक तनाव हद से ज्यादा बढ़ता जा रहा था।
” बेटी!! अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हैं, मेरी सलाह में तुम्हे इस बच्चे को मानसिक विकलांग बच्चों के आश्रम में छोड़ देना चाहिए और अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाना चाहिए?” रिश्तेदारो में से एक वृद्ध महिला ने बिन मांगी सलाह दी ।
अपने क्रोध पर नियंत्रण रखते हुए और मेरे मातृत्व के अपमान को सहन करते हुए मैं वहा से उठकर चली आयी, पर मेरे चेहरे पर साक्षात चंडी विराजमान हो गयी थी और उक्त महिला घबरा गयी।
माँ क्या आप मुझपर ध्यान देना छोड़ दोगी, क्या आप लोगों की बातों में आकर मुझे किसी आश्रम में छोड़ दोगी? अंश की मासूम आँखो में सवाल थे।
” नहीं मेरे बेटे लोग चाहे कुछ भी कहें मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोडूंगी ” मैंनें अंश को आश्वासन दिया।
चाहती तो उन बुजुर्ग महिला को उनकी भाषा में अपमानित कर सकती थी पर अपने संस्कारों का स्मरण करके चुप रही।
” आपने बहुत बड़ी गलती कर दी अंश के पैदा होने से पहले ही आपको डाक्टरी जांच करवाकर गर्भ से निजात पा लेनी चाहिए थी ” मेरी हमउम्र वाली एक हितैषी महिला बोली।
मैं आश्चर्यचकित व दुखी थी ” आप स्वयं दो बच्चों की माँ हैं इस तरह कैसे बात कर सकती हैं, हर बीमारी गर्भ में पता चले ऐसा जरूरी नहीं हैं क्यों मेरे दिल को बार-बार तोड़ा जाता हैं ? “
मेरे प्रश्नों का उत्तर उनके पास नहीं था, मुझे सभ्य समाज की सोच पर हैरानी हो रही थी, इस बार मेरी आखों के साथ-साथ जुबान ने भी चंडी अवतार धारण कर लिया था, पर वो शर्मिन्दा होने के बजाय वहां से रूठ कर चली गयी, उनका अपमान जो मैनें कर दिया था।
” अंश में उनका अपमान नहीं करना चाहती थी, पर आज स्वयं से नियंत्रण खो बैठी ” मैंने नासमझ अंश से बोला।
इन सब बातों से अनजान अंश अपने नये खिलौने के साथ खेल रहा था, और उसी वक्त थोड़े विलम्ब से ही सही उसने बैठना सीख लिया।
मैं एक नयी स्फूर्ति से भर गयी ” अंश तुम स्वंय भगवान का अंश हो और तुम्हारे जन्म लेने के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य हैं वो ऐसी मानसिकता वाले लोग कभी नहीं समझेंगे ” मेरे अपमान को भूल कर मैं आगे की और चल पड़ी।
पर पिक्चर अभी बाकी थी एक वाक्या जो दिल को तार तार कर गया वो कुछ इस प्रकार हुआ।
” अपने काम से काम रखे मुझसे पंगा ना लें “,आखिर जब पानी सिर से ऊपर चढ़ गया तब थकहार कर मुझे ऐसा बोलना पड़ा।
बात आज से पाँच साल पहले की हैं, मैं मेरे पति व अंश के साथ उदयपुर शहर में शादी समारोह में सम्मिलित होने जा रही थी, सामने वाली सीट पर एक अच्छे घराने के बुजुर्ग दम्पति बैठे थे, वो भी उदयपुर जा रहे थे,रेल अपने नियत समय पर मुम्बई से रवाना हो गयी थी।
जैसा एक सामान्य मानवीय स्वभाव होता हैं की हमें दूसरे के निजी जीवन में ताक-झाँक करने की आदत होती हैं, विशेषकर भारतीय रेल में इस प्रकार की बातें अकसर पायी जाती है।
जैसे ही रेल आगे बढ़ने लगी वैसे ही सामने वाले दम्पति की जिज्ञासा अंश के प्रति बढ़ने लगी, वही चिर परिचित प्रश्नों की बौछार होने लगी जैसे-
उसे वह बीमारी जन्म से ही हैं?
हमने उसके इलाज के लिए क्या किया है?
क्या वह मेरा इकलौता बेटा हैं?
और भी ऐसे कई प्रश्न जिनका उत्तर मैं व मेरे पति बेमन से दे रहे थे, आखिर बड़ी मुश्किल से हम लोग सोने चलें गए तब जाकर उन दोनों की जुबान पर विराम लगा।
दूसरे दिन सुबह जागने के पश्चात फिर वही प्रश्नो का सिलसिला शुरू हो गया,मैं बहुत उकता चुकी थी,बातों ही बातों में अपनी नाराजगी भी जाहिर कर चुकी थी ,पर वो दोनों कुछ समझ नहीं रहें थे, उन्हें तो बस अपनी यात्रा का समय निकालना था,इस तरह के बेतुके प्रश्न अभिभावकों को चोट पहुंचाते हैं ये वो लोग नहीं समझ पा रहे थे।
हद तो तब हो गयी जब मेरे पति पानी लेने के लिए नीचे उतरे, साथ साथ सामने वाले अंकल भी उतरे तभी उनकी पत्नी ने बड़ी रहस्यमयी आवाज में कहा ” बेटी तुम्हें पता है ऐसे बच्चे का जन्म तब होता हैं जब उसके जन्म की नींव अमावास्या कि तिथि को रखी जाती हैं,” मैं शर्म व गुस्से से लाल हो गयी।
अब मैंने उनसे पूछा ” आंटीजी आपकी बहू व बेटी मेरी समान आयु की होगी, क्या उनके बच्चे हैं?”
वे बोली ” हाँ मेरे दो पोते व एक नातिन हैं सभी स्वस्थ हैं ।”
“अवश्य ही आपने ये सलाह उनको भी दी होगी ” अपमान को अपमान से काटना पड़ा।
मेरे इतना कहने पर आंटी गुस्से में आकर बोली ” मैं तुम्हारी माँ की उम्र वाली हूँ, तुम्हें शर्म नहीं आती हैं ऐसी बात करते हुए।”
मैंने कहा ” आन्टी आप भी सारी मर्यादा रेखा पार कर के अपनी बेटी की उम्र वाली औरत से इस प्रकार की घटिया बात कर रही है ,आपको भी कहाँ शर्म हैं ?”
” आपने मुझे जवाब देने पर मजबूर कर दिया हैं, मैंने आपकी उम्र का बहुत लिहाज किया पर अब पानी सर से ऊपर गुजर गया हैं। “
” मुझे इस प्रकार के अन्धविश्वास में कोई दिलचस्पी नहीं है, कृपया अपनी सलाह अपने पास रखे,मुझसे पंगा ना ले अन्यथा अपने निरादर के लिए तैयार रहे।”
मैं दिल से किसी बुजुर्ग का अपमान नहीं करना चाहती थी,पर उनके अशोभनीय व्यवहार ने ऐसा करने पर मजबूर कर दिया, मैंने बड़ी कठिनाई से अपमान के कड़वे घूंट पिए मुझे लगा की माँ चन्डिका मेरी आखों व जुबान के साथ-साथ मेरी हरकतों में भी हावी हो रही हैं और मैं इस दुष्ट समाज का संहार कर दूंगी।
तभी अंश अपनी अस्पष्ट आवाज में कुछ बोला और मैंने देखा वो मुझे पानी की बोतल थमा रहा था, आखों में आँसू लिए हुए उसका मासूम चेहरा व बोलती आँखे देखकर मैं हंस पड़ी आज फिर एकबार मेरे नासमझ बेटे ने समझदार लोगों को उनकी मर्यादा समझा दी,उसके मन में राग, द्वेष, मान-अपमान, परनिन्दा जैसी कोई भावना नहीं हैं, फिर क्यों ना मैं उसे भगवान का रूप कहूँ?
पर मेरा एक प्रश्न हैं क्या विशेष बच्चे की माँ को औरों की तरह खुलकर सांस लेने का भी हक नहीं हैं, क्यों लोग अनावश्यक हस्तक्षेप करते रहते हैं ना जाने कितने अंश और कितने अभिभावक इस स्थिति का सामना करते हैं?
अगर आप किसी का दुःख दूर नहीं कर सकते तो कृपया करके उसे बढ़ाया ना करें, आपके द्वारा नासमझी में किया गया कृत्य भी अपमान ही कहलाता हैं।
आपकी प्रतिक्रिया के इंतजार में
पायल माहेश्वरी
यह रचना स्वरचित और मौलिक हैं ।
धन्यवाद।
#अपमान।