गंजी अम्मा आई हैं जाओ उनके पैर छूकर आओ” माँ ने धीरे से फुसफुसाते हुए कहा। क्या गंजी अम्मा आ गयी ? स्कूल से वापस घर आते ही यह ख़बर सुनी तो मैं खिल उठी। गंजी अम्मा का आना मतलब घर में भूनी मूंगफली भुने ताल मखाने और और सूखे मेवों का आना! हर बार कुंभ के मेले में गंगा स्नान करने गंजी अम्मा इलाहबाद आया करती थी। गंगा के घाट पर उनका एक महीने का शिविर लगता था जहाँ वह अकेली रहती। वहीं खाना बनाती, गंगा स्नान करती, मंदिर में कीर्तन करती और महीना ख़त्म होने के बाद कुछ दिन हम हमारे घर रहती और फिर अपने घर अल्मोड़ा वापस चली जातीं। उत्तराखंड में स्थित अल्मोड़ा यूँ तो प्राकृतिक छटाओं व नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर है परंतु यहाँ की औरतों का जीवन उतना ही दुष्कर है। ‘पहाड़ की रीढ़’ कही जाने वाली यहाँ की औरतें पहाड़ की अर्थव्यवस्था की धुरी हैं. घर के काम करने के साथ जंगलों में घास काटने, चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियां बटोरने और चारे और लकड़ी के ढेर को अपने सिर पर लादकर घर लाने तक का सारा काम हँसते -हँसते करती हैं। अम्मा का जीवन इससे कुछ भिन्न नहीं था बस अंतर इतना था कि वह यह सारा काम अपने लिए नहीं दूसरों के लिए करती थीं।
इलाहबाद फ़ोर्ट में काम करने के कारण अम्मा के गंगा शिविर में रहन-सहन का समस्त प्रबंध मेरे पिताजी की ज़िम्मेदारी होती थी।
अम्मा केवल एक समय का भोजन करती थीं। बिना मसाले की बनी उनकी सब्ज़ी में गज़ब का स्वाद था। हमें भी कभी-कभी प्रसाद के रूप में उनका भोजन मिल जाता था लेकिन कभी उनकी बनी दाल खाते हुए ऐसा लगता कि अम्मा दाल में अदरक लेकर कूद पड़ी हों वो भी मोटा- मोटा कटा हुआ। बाक़ी समय अम्मा दिनभर भूनी मूंगफली या ताल मखाने खाया करती थीं। उनके इस दूसरे आहार पर हम सबकी नज़र रहती थी जो वह हमें बड़ी कृपणता से देती थी।
गंजी अम्मा का नाम “गंजी अम्मा’ कैसे पड़ा यह तो नहीं जानती परंतु उनके सिर पर एक-एक इंच के बाल, सफ़ेद धोती, ऊँचा क़द और दिव्य मुस्कराता चेहरा अभी तक मेरी आँखों के आगे नाचता है। बाल विधवा अम्मा ने ७-८ वर्ष की उम्र से इसी वेशभूषा में जीवन जिया था।
समाज की कठोरता तो देखो! बाल विधवा औरत को सफ़ेद धोती और सिर गंजा करके इतना कुरूप बना दिया जाता था ताकि वह समाज के ही भेड़ियों से बच सके। ऐसी एकल और बदरंग जीवन को जीकर भी गंजी अम्मा के चेहरे पर आत्माभिमान झलकता था। उन्होंने कभी किसी के आगे अपने अकेलेपन या दुर्भाग्य का पिटारा नहीं खोला। आज जब लोगों को तनावपूर्ण जीवन जीते हुए मानसिक डॉक्टर के चक्कर काटते हुए देखती हूँ तो 50 वर्ष पुरानी गंजी अम्मा की बरबस याद आ जाती है । जिस औरत ने कभी बचपन नहीं जिया, जवानी नहीं देखी, बुढ़ापा दूसरों के आश्रय में काटा वह कैसे अपने जीवन के तनावों व एकाकीपन से लड़ती होगी। मुझे याद है जब तक मेरे दादाजी जीवित थे हर माह गंजी अम्मा के लिए अल्मोड़ा कुछ पैसे भिजवाते थे। j
मेरे दादाजी अंग्रेजों के ज़माने में अफ़सर थे। अल्मोड़ा के सालम गाँव में ग़रीब घराने में पले मेरे दादाजी अपने परिश्रमी व होनहार छात्र थे। प्राथमिक शिक्षा के बाद ज्ञान की भूख उन्हें किसी तरह दिल्ली तक ले आई और यहीं पर नौकरी करते-करते वह अफ़सर बन गए लेकिन वह अपने गाँव व गाँववालों को नहीं भूले । दफ़्तर के बाद वह ट्युशन करते और उनसे मिले पैसों से अपने गाँव के ज़रूरतमंदों की सहायता करते। उन्हीं में से एक गंजी अम्मा भी थीं। जहाँ तक रिश्ते की बात करें, तो मुझे अभी तक नहीं पता कि वह रिश्ते में हमारी या दादाजी की क्या लगती थीं। अपनों की मदद करके “वसुधैव कुटुम्बकम’ का पाठ दादाजी ने हमें जाने अनजाने सिखा था।
गंजी अम्मा की हास्यवृति भी ग़ज़ब की थी। हम चार बहनें हैं सबसे छोटी पूनम अत्यधिक चुलबुली और शैतान थी। अम्मा उसे देखकर ज़ोर से कहती “अरे तू तो चौथी है और ‘चौsssssथ’ कहकर चिढ़ाती। पूनम बिचारी का मुँह उतर जाता और उसे इस अवस्था में देखकर अम्मा मुस्कराने लगती फिर अपने पिटारे से लड्डू या मूँगफली निकाल कर उसके हाथ में उसके हाथ में धर देती।
गांवों में रिश्तेदारों के बीच रहकर बाल विधवा का जीवन काटना आसान नहीं इतना नीरस जीवन जीते हुए भी अनपढ़ गंजी अम्मा कितना बड़ा संदेश दे गई, इसका आभास मुझे आज होता है। जीवन से शिकायत नहीं करो जो मिले उसे समेट लो और मुस्कराते रहो।
आज हम सब कुछ होते हुए भी परेशान रहते हैं छोटी -छोटी बातों में तनावग्रस्त हो जाते हैं। मेरी साड़ी का रंग ठीक नहीं है, काम वाली नहीं आई, दफ़्तर में बॉस ठीक नहीं। हम भूल जाते हैं कि यह सब तो अस्थाई है और मेरे मुँह से ‘हम दोनो’ सिनेमा का गाना निकल पड़ता है ‘जहाँ में ऐसा कौन है जिसको ग़म मिला नहीं, अभी ना जाओ छोड़कर…………..।
सुजाता पंत