शारदा जी कई दिनो से बहुत बेचैन हैं ।किसी से कुछ कह ही नहीं पाती ।कोई समझेगा भी नहीं ।पति कुछ साल पहले गुजर गए थे ।दो बेटे हैं ।राजीव और रंजन ।पति के रहते ही दोनों की शिक्षा पूरी हो गई है
अब दोनों की नौकरी भी लग गई थी ।बड़ा बेटा मुम्बई में और छोटा नोयेडा में है।दो साल पहले राजीव की शादी हो गई है ।रंजन की शादी छह महीने पहले हुई है ।दोनों अपने परिवार के साथ खुश हैं ।छोटे भाई के शादी में आया राजीव तो बहुत जिद किया “” माँ आप भी हमारे साथ चलने की तैयारी कर लो “” पर शारदा जी ने मना कर दिया “” ना बेटा, मुझे तो यहीं रहने दो, अपने घर में, यहाँ तुम्हारे पापा की यादें हैं, उन्ही यादों के सहारे जी लूंगी ।”” फिर राजीव चला गया ।”” नयी नौकरी है न,अधिक छुट्टी नहीं मिलती “” ।
रंजन भी शादी के दो दिन बाद पत्नी को लेकर नोयेडा चला गया था ।शारदा जी अकेले ही रह रही थी ।एक काम वाली बसंती को दिन रात के लिए रख लिया था ।शादी के बाद के बचे खुचे काम भी तो निबटाना था ।दो महीने का समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला ।नाते रिश्ते दारो को ले दे कर विदा भी तो करना होता है ।अकेली क्या क्या करें ।इस बार रंजन ने बहुत जिद करके टिकट भेज दिया “” अम्मा, तुम्हारे लिए टिकट भेज रहा हूँ, चली आओ,मै कोई बहाना नहीं सुनना चाहता हूँ “”।
क्या करती, बेटे की जिद थी ।पर एक खुशी भी थी बेटा बुला रहा है आग्रह से, जाना ही होगा ।चार दिन बाद का टिकट था ।शारदा जी दिल्ली पहुंच गयी ।बेटा बहू स्टेशन पर लेने आये ।बहुत खुश थी वह ।कितना लायक बेटा है ।दिन अच्छे से गुजर रहा था ।बहू भी नौकरी करती थी ।दोनों सुबह नौ बजे ऑफिस के लिए निकलते तो रात को नौ बजे तक आते ।थके हुए रहते दोनों ।थोड़ी देर आराम करने के बाद रसोई की तैयारी होती ।खाते पीते सोने में रात को बारह बज जाते ।यही इनकी दिन चर्या थी।
यहाँ रहने वालों की ,सब की यही जिंदगी थी।दिन भर शारदा जी अकेले ही समय काटती।सोसायटी में बहुत अच्छा फ्लैट था ।सारे सुविधा से भरपूर ।बीसवां तल्ला पर ।बाप रे! सोसायटी का मकान था, बहुत सारे लोग थे ।फिर भी अकेलापन ।किसी को किसी से मतलब नहीं ।सामना भी हो जाये तो एक मुस्कान में भी कंजूसी ।किसी को कुछ हो जाए तो कोई देखने वाला नहीं ।इससे तो अच्छा अपना शहर ।
बरामदे में भी खड़ा होती तो रोड पर जाने वाले बहुत से परिचित ।फिर नमस्ते और प्रणाम का सिलसिला शुरू होने से लेकर बाल बच्चों की खैरियत पूछने की बातें खत्म होती तो रसोई में आज क्या बना, उसकी फेरहिस्त का आदान-प्रदान होता ।कितना अच्छा लगताथा ।जैसे सब अपने ही हो।दिन भर शारदा जी क्या करें, न टीवी चलता, न कोई अखबार, पत्रिका ही आता ।किसी को फुर्सत कहाँ थी पढ़ने की ।बस भागम-भाग की जिंदगी ।
बच्चे बहुत अच्छे हैं पर तालमेल नहीं बिठा पा रही है वह ।शारदा जी को अब कुछ समस्या का सामना करना भारी पड़ रहा है ।सब से मुसीबत तो तब होती जब एक ही रसोई में मीट मुर्गा रोज बनता ।इन लोगों को हरी सब्जियां अच्छी ही नहीं लगती ।क्या खायें? शारदा जी को हरी सब्जियां बहुत पसंद थी।ला तो देते सब ।पर कब बनाये ।और अकेले कितना खायें ? याद आता उन्हे जब ब्याह कर आई थी तो विदा के समय माँ ने अपने दामाद जी को कहा था “” मेरी बेटी को इन चीजों से परहेज है मेहमान जी, थोड़ा खयाल रखिएगा,वह नहीं खाती मीट मछली “” पति देव ने आश्वासन दिया था कि आप निश्चित रहें, ऐसी कोई दिक्कत नहीं आयेगी ।ससुराल में रोज बनता यह सब ।शारदा जी पूरी निरामिष,एक दम शाकाहारी ।नानी, दादी घर सभी शाकाहारी यहाँ पति देव को रोज ही चाहिए थी।परिवार के साथ थी तो देवरानी, जेठानी, ननदे बना देती ।अलग क्वाटर में शिफ्ट हो गई तो पति खुद बना लेते ।”” तुम चिंता मत करो, मै खुद बना लूँगा, सासू माँ को वचन जो दिया है मैंने “” बस तुम तेल मसाला दे देना ।
फिर एक समझौता बन गया ।वे सामने बैठ कर सब कुछ देती,एक ही जगह बैठ कर खाती ताकि उन्हे भी अच्छा लगे ।दोनों को एक दूसरे के लिए सोचना था रिशता तो ऐसे ही प्रेम से निभता है ।पति उनके लिए सोचते तो अपना भी तो फर्ज बनता है कि हम भी उनके लिए सोचते ।जिन्दगी मजे में गुजर रही थी ।कोई तनाव नहीं था ।कभी वे मजाक करते ” थोड़ा सा चख कर तो देखो, कितना अच्छा लगता है खाने में “” “” नहीं जी मै ऐसी ही ठीक हूँ ।
जब ईश्वर ने हमें खाने को बहुत सारे चीज दियें हैं तो किसी को मार कर क्या खाना? पति चुप हो जाते ।फिर उन्होंने कभी जोर नहीं दिया खाने के लिए ।जिसे पसंद है वह खायें जिसे नहीं पसंद उसे जबरदस्ती नहीं करना चाहिए ।और आज समस्या होने लगी थी ।एक ही जगह, एक ही रसोई, एक ही बर्तन मन जाने कैसा हो जाता है ।कैसे खाएं इन बर्तन में? अपनी गृहस्थी थी तो अलग चूल्हा, अलग बर्तन था ।अम्मा जी को बुरा लगता था कि मेरे बेटे की कमाई है और उसे पूरे बर्तन नहीं दिया खाने के लिए ।
लेकिन वे हंस कर कहते “” जाने दो ना अम्मा, कभी ऐसे वातावरण में नहीं रही है तो खराब लगता होगा इन्हे ।” मन को समझाती “” शारदा, बरतन में क्या रखा है, होटल में, पार्टी में तो खाती हो कि नहीं?” सभी नाते रिश्ते दारो में जाने पर उसी बर्तन का खाती हो फिर अपने घर में क्यो?”” फिर लगता दूसरे जगह तो लाचारी है अपने मन का नहीं चलेगा ।
लेकिन अपने घर, अपने बच्चे? मन क्यो नहीं समझता ? “” हाँ ठीक तो है ना, बरतन तो धुल जाते हैं ? बर्तन में क्या रखा है? यहाँ शारदा जी ने दो जगह विमबार रख दिया है ।एक सब्जी वाले बर्तन के लिए, एक मीट मुर्गा के लिए ।बहू भी आज्ञा का पालन करती।सावन आया तो एक महीने बन्द हो गया ।बहुत अच्छा लगा उनको।मन हल्का हो जाता है ।पर बच्चे खीज उठते “” ये कैसा सावन और कार्तिक?”” खाना खाने पर पाबंदी लगाने की बात क्यों? खाने का मन करे तो खाना चाहिए ।शारदा जी ने तो कभी रोका ही नहीं ।यह फैसला तो बहू का था ।करीब करीब रोज कुछ आता ।
शारदा जी उस दिन शाम को ही भर पेट नाशता कर लेतीं और सो जाती ।रात में खाना के लिए मना कर देती ।”” भूख नहीं है “” आखों से देखने का ही है, न देखो तो कुछ नहीं ।पर मन का क्या करें ।जब भी बनता, मन कसैला हो जाता ।दिमाग में बहुत बातें आती किसी निरीह जानवरों को बेदर्दी से काट देना और पका कर खाना ।लोगों का तर्क होता “” ताकत आती है “” अरे, ताकत के लिए प्रकृति ने बहुत सारे चीज दियें हैं उन्हें खाओ ना? बेकार का तर्क क्या करना ।यह तो कहो कि जीभ के वशीभूत हो गये हम।
किसी के मर जाने पर छूत मानते हैं और किसी को मार कर पेट में डाल लेते हैं यह कहाँ की दलील है ।दो महीने बीत चुके हैं ।अब वह अपने घर जाना चाहती है ।जहां अपने मन की कर सकती है ।कितना परहेज से रही थी पर एक समय ऐसा भी आ गया कि दूसरे के मर्जी से रहूँ ।पति ने एक बार कहा था कि अगर मैं बीमार हो जाउँ और डाक्टर ने यही सब खाने के लिए कहा तो कैसे बना कर दोगी? “” मै बना दूँगी, लेकिन हाथ से नहीं, चिमटा से पलट कर “” उसका लिजलिजा पन मै बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी ।
पति बस मुसकुराते ।कितने महान थे वे ।उनके नहीं रहने पर बहुत अकेलापन महसूस होता ।रोज खाने वाले पति ने कभी जबरदस्ती नहीं किया कि तुम खाओ या बना कर दो ।उन्हे याद करते हुए आज भी आखों में आंसू आ जाते हैं ।बहुत अच्छे थे वे ।शारदा जी का टिकट हो गया है जाने का ।एक सप्ताह और ।मन में खुशी भी है ।पर अपने बच्चे भी बहुत अच्छे हैं खयाल रखने वाले ।अब खाने का तो उनको यही पसंद है तो वे भी क्या करें ।लेकिन यह तो उनका अपना संस्कार है कभी देखा नहीं बचपन से ।आगे की सोचती है वह ।दिनों दिन स्वास्थय गिर जायेगा, उम्र बढ़ेगी तो अकेले कैसे रहेगी ।फिर लौटना होगा अपनो के पास ।सोचती है जाने दो ।बेड पर रहेगी तो कोई कैसे खिलायेगा इसका क्या सोचना ।
पेट है, भूख है तो खाना ही पड़ेगा चाहे जैसे भी ।जब तक शरीर में ताकत है इनसान सुख सुविधा खोजता है ।लाचार हो जाने पर बच्चे ही तो काम आयेंगे।लेकिन फिर भी शारदा जी शायद अपने मन की बात किसी को कह नहीं पायेगी, कह भी दिया तो कोई समझेगा भी नहीं ।सारी दुनिया इसी के पीछे दौड़ रहा है ।बहुत बेचैनी है उनके मन में ।जाने की खुशी भी है और अपने बच्चों से दूर जाने का दर्द भी ।क्या करें वह अपने मन का।शायद कोई समझ पाये ?
# मन के भाव
लेखिका : उमा वर्मा