विम्मो तो हम उन्हें प्यार से बुलाते हैं उनका पूरा नाम था विमला ।
जब कभी मैं जाड़े के दिनों मे हौस्टल से घर वापस आती वे अम्मा के कहे अनुसार अंगीठी सुलगा कमरे में रख जाती सारा कमरा धुएं से भर जाता मेरी आंखें कड़वा जाती और मैं चिल्लाती ,
” जल्दी बाहर कर बूआ मारेगी क्या ? “
” वे बोलती ,
“भक्क पगली मरे तुम्हारे दुश्मन और खूब हंसती ” ।
विम्मो बूआ दिखने में जितनी अच्छी मन की उससे भी सुन्दर ।
हल्के सांवले रंग उंचे चौड़े माथे पर उनकी छोटी सी काली बिन्दी बहुत भली लगती।
सदैव मीठी जुबान कभी भी किसी की बात पर ना नहीं करतीं ।
हम भाई बहनों की छोटी-मोटी समस्याओं के हल तो चुटकियों में ढ़ूंढ़ लेतीं।
ये अलग बात है दुनिया की नजरों ने उन्हें मन की काली और दुश्चरित्र मान लिया था।
पिताजी के चचेरी बहन की ननद की बेटी उन्हीं के गांव में रहती थीं ।
करम की तो वे शुरू से ही खोटी थीं ।
करीब तेरह वर्ष की ही आयु में जब उनके पिता और उसके तत्काल बाद ही माँ की अचानक से मृत्यु हो गई ।
तो उन्हें अपसगुनी ठहरा कर उनके लालची भाई-भाभी द्वारा आनन-फानन में तीस वर्ष के दुहेजू के हाँथों सस्ते में निपटा दिया गया।
इसे भी विधी का विधान जान वे रोती हुयी चुपचाप ससुराल चली गई थीं।
होनी देखें पति दुहेजू के साथ ही कामी , शराबी और दुराचारी भी मिला था ।
उसके इसी आचरण से पति से उनका आत्मिक सम्बंध कभी भी नहीं बन पाया था ।
नशे में वह उन्हें बेतरह नोचता – खसोटता सुना है बाद के दिनों में तो मारने पीटने भी लगा था ।
आखिर एक दिन घृणा के अतिरेक में हांथ में पकड़े लोटा को उसके सर पर मार बेहोश कर दिया और रातों रात घर से बाहर निकल गई थीं ।
वापस माएके के घर भी नहीं गई किसके भरोसे जातीं भाई ने तो विदा करते के साथ ही मरा मान लिया था ।
उसी गांव के एक धनाढ्य गृहस्थ के घर शरण मिली।
अब ग्रामीण परिवेश जितने मुंह उतनी बातें सर्वसम्मति से वे बदचलन करार दे दी गई ।
सब तरफ से मिली भर्तस्ना और थू- थू से ऊब कर मरने की भी सोंची पर शायद हिम्मत नहीं जुटा पाई थीं ।
एक बार जब मैं और अम्मा दादी के घर गये हुऐ थे ।
तो दादी द्वारा बातों- बातों में विमला की इस हालात का जिक्र आने पर अम्मा ने उन्हें मिलने बुलवाया था ।
उसके आने पर अम्मा ने पूछा ,
” क्यों रे विम्मो तू पति को मार कर भाग आई कितनी बदनामी सह दूसरे के यहाँ पड़ी है शर्म लाज सब बेच दिया ? ” ।
अम्मा द्वारा की गई भर्त्सना सुन कर विमला के सब्र का घड़ा फूट गया , वे फूट पड़ी थीं।
शायद आज तक किसी के भी सामने उन्होंने अपना दुखड़ा नहीं रोया था।
हृदय पत्थर का कर निर्भय – निसंग रहती आईं थी।
पर अम्मा ने तो मानों दुखती रग पर उंगली रख दी थी ,
” तो क्या करते दीदी बोलो ,
बोलो ना !
शुरु में तो मार खा कर भी देह नोचबाते रहे पर फिर उ पतुरिया को घर लाने लगा तो कैसे सहती ? ” ।
” क्या सब नियम काएदा पवित्रता की जिम्मेवारी हमारी ही धरी है ,
मरद मानुष का कुच्छो नहीं “
” और तुम्ही बताओ कहाँ जाते हम भैया का हाल तो जान ही रही हो ? ” ।
” हम राजी खुशी से दूसरे के घर तो नहीं बसे
ना ही पाप के दलदल में धंसे “
” और ये समाज , थोड़ा हंसी फिर बोली यह तो पापी है इसका परवाह खाली हम ही क्यों करें ” ? ।
” और तुम बताओ ऐसे हाल में तुम ही क्या अपने साथ रख पाओगी मुझे ? “
मैंने पहली बार अम्मा को असमंजस में पड़े देखा था ।
उनके उजले माथे पर थोड़े शिकन आ गये थे लेकिन फिर तुरंत ही संभल कर कुछ सोच बोलीं ,
” हां … चलो ईश्वर का दिया काफी है एक जने और सही ” ।
मैं पहले तो अम्मा के इस साहस भरे निर्णय पर हैरान हुयी कि बात-बात पर हमें टोकने वाली अम्मा कितनी सहजता से विमला के बुरे वक्त में उसका हाँथ थामने को तैयार हो गई थीं ।
लेकिन फिर यह सोच,
” किसी बेसहारे को सहारा मिल गया खुश हो गई “।
अम्मा हमारी हीरो बन चुकी थीं।
इसके बाद से विमला बूआ हमारे साथ घर के सदस्य की तरह ही रहती हैं उनके बिना मैं घर की कल्पना भी नहीं कर पाती।
समाप्त
सीमा वर्मा ©®