एक नगर मे एक दुलीचंद नाम का महाकंजूस व्यापारी रहता था।कहने को तो वह करोड़पति था पर उसका परिवार गरीबो जैसा जीवन जीता था। उस की इस आदत से उसके बीवी बच्चे बहुत परेशान हो गए थे। सब कुछ होते हुए भी दुलीचंद खाने पीने तक में कंजूसी करता था। उसका बस चले तो घर में चावल और दाल के अलावा कुछ नहीं बनता।
दुलीचंद के पड़ौस में ही उसका दोस्त खेमचंद का घर था। खेमचंद जितना कमाता था उतने मे ही अपनी जिंदगी शान से जीता था उसका मानना था की कल किसने देखा है । उस के घर में रोज़ हलवा पूरी बनते थे और वो सीना तान कर मस्ती की चाल से चलता था।
खेमचंद के लाइफस्टाइल को देख कर दुलीचंद के बड़े लड़के महेश को बहुत तकलीफ होता था। एक दिन जब उस से रहा नहीं गया तो अपने पिताजी से जाकर बोला, “पिताजी क्या बात है कि हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम ग़रीबों की तरह रहते हैं, छोटी-छोटी चीज़ों के लिए आप के आगे हाथ फैलाना पड़ता है।
ज़रा उधर खेमचंद अंकल को तो देखो। खेमचंद अंकल मामूली नौकरी करते हैं मगर दिल बादशाहों जैसा है। तबियत से बाल बच्चों पर खरच करते है और मस्त रहते हैं है। आखिर बात क्या है।”
दुलीचंद ने महेश की बात बहुत ग़ौर से सुनी। थोड़ी देर चुप रहकर बोला कि “बेटा महेश , तुम जो भी कह रहे हो एक दम शत प्रतिशत सही कह रहे हो।
हम दोनों दोस्त में बस इतना अंतर है कि खेमचंद अभी तक निन्यानवे के चक्कर में नहीं पड़ा है। जिस दिन इस चक्रव्यूह में फँस जाएगा, उस दिन सब मजे की जिंदगी जीना भूल जाएगा।”
पिता की बात महेश को बिल्कुल नहीं जँची और वो अपने पिताजी से से रोज़ बस खेमचंद के बारे में ही सवाल करता था। एक दिन दुलीचंद ने महेश को बुलाकर आदेश दिया कि “शाम को दुकान बन्द करके तुम जब घर आओगे तो पेटी में से एक पोटली में निन्यानवे रूपये डाल कर ले आना। ध्यान रहे कि रूपये निन्यानवे ही हों।”
पिता की आज्ञानुसार महेश ने वो ही किया जो दुलीचंद ने कहा था और शाम को पोटली पिता के हाथ में थमा दी। थोड़ा अन्धेरा पड़ने पर दुलीचंद ने बेटे को अपने साथ चलने को कहा। जब वो खेमचंद के घर के पास पहुँचे तो दुलीचंद ने चुपके से पोटली खेमचंद के आँगन में फेंक दी और अपने घर वापिस आ गया।
सुबह जब खेमचंद ने पोटली देखी तो उसकी उत्सुकता बहुत बढ़ गई। खोल कर देखा तो उस में निन्यानवे रूपये मिले। खेमचंद सोचने लगा और अपने में ही बुड़बुड़ाने लगा, “हे ऊपर वाले, अगर देने ही थे तो पूरे एक सौ क्यों नहीं दिये, ये एक रूपया कम क्यों दिया।” अब सारा दिन खेमचंद इसी सोच में पड़ गया कि पोटली में सौ रूपये कैसे बनें। एक रूपया बचाने के लिए उस ने पहिले अपने रहन सहन में कमी कर दी, फिर खाने पीने में भी कटौती कर दी। जब सौ पूरे हो गए तो खेमचंद ने सोचा कि अब इनको एक सौ एक कैसे बनाऊँ। सौ से एक सौ एक, एक सौ एक से एक सौ दो, एक सौ दो से एक सौ तीन, बस खेमचंद इसी चक्कर में पड़ गया और पैसा जोड़ने के फेर में रोज़ जो हलवा पूरी बनते थे वो सब बन्द हो गये। सारा दिन खेमचंद बस पोटली में रूपया बढ़ाने की फिकर में रहने लगा और जहाँ भी मौका मिलता था वहीं पैसा बचाने की कोशिश करता।