“कभी अपनी और अपने परिवार की औक़ात देखी है? तुम्हारे लिविंग स्टैंडर्ड से कहीं ज्यादा अच्छी कंडीशन मेरे घर के नौकरों की है। …और मेरे घर वाले हमारी शादी के लिए तो तब मना करेंगे न, जब मैं तुमसे शादी को राज़ी होऊँगा। मेरे ख़्वाब ऊँचे हैं, बिज़नेस मैनेजमेंट की ऊँची डिग्री और विदेश में सैटलमेंट वाली जॉब…इन सब में तुम जैसी गँवार बहनजी कहाँ फिट बैठती है?
…बेहतर होगा, सपनों की दुनिया से बाहर आ जाओ। हाँ, मानता हूँ कि तुम जब मुझसे रिश्ता दोस्ती से आगे बढ़ा रही थीं, मैंने तब तुम्हें यह सब पहले नहीं बताया था…लेकिन मुझे भी कोई सपना तो आया नहीं था कि तुम इस हद तक सीरियस हो इन सब फालतू के मामलों में।”
उसने उस लड़के से अन्तिम विनय की, तुमको भूलने से पहले एक बार, बस एक बार तुम्हारे परिवार से मिलना और तुम्हारे घर को अन्दर-बाहर सभी ओर से जी भर कर देखना चाहती हूँ। फिर…फिर उसके… महलनुमा पाँच मंज़िला घर की छत से कूद गयी थी वह।
____”संसार में सबसे ज्यादा प्यार करता था मेरा देबू अपनी बहन से…उसके जाने के बाद जीना भूल गया था हमारा होनहार बच्चा…जिन्दा लाश हो गया था…
बस जिस दिन से तुम्हें देखा है,..फिर से जीवन की ओर कदम बढ़ा रहा है!”
उस बेबस माँ की सिसकियों में अब मेरा रुदन भी शामिल हो चुका था। और फिर कब उस परिवार के सुख-दुःख मेरे अपने सुख-दुःख हो चले, मालूम ही नहीं हुआ।
उस एक दिन और उस मुलाकात ने मेरी और मेरे अपने परिवार की ज़िंदगी भी एकदम से बदल कर रख दी। कई ज़िंदगियों ने नयी करवट ले ली थी। आधे-अधूरे कई लोग मिल कर एक नेह के बन्धन में बंध कर अब पूरी तरह से पूरे हो चले थे।
आज शुभ-विवाह है मेरा, प्रोफेसर अनुराग जैसे हर प्रकार से सुयोग्य वर के साथ, जिन्हें देबाशीष के माता-पिता ने मेरी माँ और बहनों की सहमति से मेरे लिए चुना है…जिन्हें व जिनके परिवार को मैं बेहद पसन्द हूँ। लग्न-मण्डप के नीचे विभिन्न रस्मों के बीच जब-जब वे मेरी ओर स्नेहिल दृष्टि से देखते हैं, शरमा कर दूसरी ओर देखने लगती हूँ मैं।
देबाशीष ब्याह की सारी रस्मों में भाई वाला रोल निभा रहा है, आख़िर उससे पहले मेरा कोई भाई जो नहीं था, हम तीन बहनें ही थीं, अपनी अकेली माँ की सन्तानें। जन्मदाता पिता हम सबको बेसहारा छोड़ कर दूसरी औरत के साथ तब चले गये थे, जब मेरी सबसे छोटी बहन निवेदिता का जन्म हुआ था।
उससे बड़ी नीहारिका को भी पिता की थोड़ी सी भी याद नहीं है। लेकिन मुझे आज तक सब कुछ जस का तस याद है। तब सात-आठ साल की थी मैं। जाते समय वे मेरी माँ पर अपशब्दों की बौछार करते हुए आरोप लगा गये थे कि तीन-तीन लड़कियों का बोझ मेरे मत्थे मढ़ दिया है इस ज़ाहिल औरत ने। हम निरीह बच्चियों की ओर देखे बिना ही चले गये थे फिर वो।
….वह दिन…वह समय, जब-जब स्मृतियों में कौंधता था पहले, हर बार मन में नफ़रत, गुस्से और दुःख की लहरें उठने लगती थीं। बहुत देर तक मन अशान्त रहता था। पुरुषों के लिए एक अज़ीब सी चिढ़ वाली कुंठा लेकर बड़ी हुई थीं
हम भ्रातृ-पितृविहीन तीनों बहनें, लेकिन देबाशीष के परिवार के हमारे घर-परिवार में शामिल होते ही सबकुछ बदल गया था। उसके धीर-गम्भीर पिता जिन्हें अब हम बहनें भी बाबा कह कर पुकारती हैं, उन्होंने हम सबके जीवन में एक आदर्श पितृपुरुष की जगह भर दी है और देबाशीष ने पूरी तरह से एक आदर्श भाई की। मेरी माँ बाबा को भाईसाहब कहती हैं
और वे दोनों पति-पत्नी माँ को ‘दीदी-मोनी’…बड़ी बहन के लिए बांग्ला में प्यार का, आदर का सम्बोधन। जिन नेह-पगे आत्मीय नातों के लिए हमारा मन बचपन से तरसता आया था, अब पूरी तरह से तृप्त होकर सभी के लिए संवेदना और प्रेम से छलकता रहता है।
देबाशीष की माँ कभी-कभी कहती हैं____
“एक बेटी छीनी ऊपर वाले ने पर तीन-तीन बहुत प्यारी बेटियों से मेरी झोली भर दी है उसने। दीपान्विता के ऐसे असमय चले जाने का दुःख तो बहुत है और वह तो अपने जिगर के टुकड़े के लिए अन्तिम साँस तक रहेगा…लेकिन अब ऊपर वाले से शिक़ायतें नहीं रहीं।”
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°समाप्त°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
ये रिश्ते दिलों के रिश्ते!(भाग 3)
ये रिश्ते दिलों के रिश्ते!(भाग 3) – नीलम सौरभ
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़
बहुत भावपूर्ण एवं सुन्दर रचना है। इसमें एक भाई और पिता की कमी और उसकी भरपाई का अंदाज बहुत ही रोचक और मनोरंजक है। इसके साथ ही एक जुगुप्सा भी जगाए रहता है ताकि पाठक कहानी के अंत तक बंधा रहता है।यह सामाजिक और पारिवारिक परिवेश में भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने की भी ताकत है।