ये रिश्ते दिलों के रिश्ते!(भाग 3) – नीलम सौरभ

कार रुकी तब उतरते ही मैं चौकन्नी होकर चारों तरफ देखने लगी कि कहाँ आ गयी हूँ मैं। एक छोटे से मगर सुन्दर बंगले के सामने थे हम सब। सारा परिदृश्य एकदम सामान्य लग रहा था। साफ-सुथरी, शान्त-सी हरी-भरी कॉलोनी थी। आम मध्यम-वर्गीय रहन-सहन वाली। देबाशीष की माँ ने बेटे को उनकी भाषा में न जाने क्या समझाया कि वह घर का मेन गेट खोल कर अन्दर गया और झटपट एक छोटे से काँसे के लोटे में पानी, साथ में एक छोटी थाली लिये हुए लौटा, शायद पूजा घर से लेकर आया होगा। मैं हैरान खड़ी देख रही थी जबकि उसकी माँ ने उसके हाथ से थाली ली और उसमें रखी रोली-अक्षत का टीका मेरे माथे पर लगाया और लोटे से जल की कुछ बूँदें छिड़कती हुई ‘तुम्हारा घर में स्वागत है’ कहतीं मुझे अंदर ले गयीं।
सजे-सँवरे ड्राइंगरूम को पार कर उन्होंने मुझे जहाँ बिठाया, वह रसोई, पूजा घर और दो शयनकक्षों से घिरा डायनिंग हॉल था। मेरी आँखें हॉल में नज़र आ रही सभी चीजों का मुआयना करती हुईं एक स्थान पर जाकर टिक गयीं। क्षण भर में ही मन-मस्तिष्क में धमाके से होने लगे। मेरे भीतर से कोई चीख पड़ा___





“ओह्ह! यह..यह क्या…!”
सुनहरे फ्रेम में जड़ी, चंदन हार चढ़ी उस तस्वीर को मैं सम्मोहित-सी अपलक देखती रह गयी थी। रहस्य की परतें अब अपने-आप खुल रही हैं, मुझे लगने लगा।
“दीपान्विता है यह…देबाशीष की बहन…हमारी बच्ची…रूठ कर चली गयी बहुत दूर, हमेशा के लिए…उसके बिना जिया ही नहीं जा रहा…बस साँस ले रहे हैं हम लोग!”
देबाशीष की माँ का भर्राया स्वर गूँजा और मैं अनायास ही चेयर से उठ खड़ी हुई। पीछे मुड़ कर देखा, देबाशीष के पिता भी अपनी आँखें पोंछ रहे थे। बेटा उनके कन्धे से लगा मौन खड़ा था, उसके नयनों से भी गंगा-जमुना बह रही थीं।
मेरे दिमाग़ में सब कुछ धुआँ-धुआँ सा हो रहा था। क्या है ये सब। तो क्या ये माँ-बेटे मुझमें दीपान्विता की छवि की झलक देख अनोखा जुड़ाव महसूस कर रहे हैं!
उस तस्वीर को देख कर मानो पूरी तस्वीर साफ होने लगी थी अब तो। समझ में आने लगा था उनके यूँ मुझे निहारे जाने का रहस्य। दीपान्विता, देबाशीष की बहन की शक़्ल कितनी मिलती-जुलती है मुझसे…जैसे मेरी ही कोई सगी बहन हो या मेरा कोई प्रतिबिंब।
थोड़ी देर बाद भावनाओं के ज्वार से किसी तरह उबर कर उन्होंने मुझे फिर से बैठने को कह कर पसन्द के खाने के बारे में पूछा। पहली बार आयी थी न उनके घर, ऐसे ही कैसे जाने देते। उनके दुःखी मन को तनिक भी चोट नहीं पहुँचाना चाहती थी अब मैं, इसलिए कह दिया____


“मैं कुछ भी खा लूँगी…बस सादा हो और माँ के हाथ का बना हुआ हो।”
देबाशीष और उसके माँ-बाबा उत्साह से भर उठे। तुरन्त तैयारियों में लग गये। माँ के साथ मैं भी रसोई में चली गयी कि जितना बने उनकी सहायता कर दूँ, हालाँकि रसोई के कामों में एकदम अनाड़ी हूँ मैं।
खाने की टेबल पर वे तीनों ख़ुश दिखाई दे रहे थे तो मुझे भी बहुत अच्छा लग रहा था। मन भीग-सा रहा था एक ज़माने के बाद, किसी के लिए तो ख़ुशी का कारण बन सकी, वरना बचपन से इतनी चोटें खायी हैं कि भीतर से एकदम रूखी, नीरस हो चुकी हूँ मैं।
खाने के बाद देबाशीष की माँ मुझे एक कमरे में ले गयीं कि चलो, थोड़ा आराम कर लो, फिर देबू तुम्हें होस्टल छोड़ आएगा। वह दीपान्विता का ही कमरा था। कमरे की हर दीवार पर उसकी कई तस्वीरें लगी हुई थीं। अलग-अलग पोज़ और मूड वाली। सच में हर फ़ोटो में मेरी झलक है, मन ही मन मुझे स्वीकार करना पड़ा। वहाँ बिछे पलँग पर बैठ मेरा हाथ खींच कर उन्होंने मुझे भी पास बिठा लिया। शायद मेरी आँखों में सच्ची सहानुभूति भाँप ली थीं उन्होंने कि धीरे-धीरे मेरे सामने उनके दिल का सारा दुःख, सारा दर्द शनैःशनैः पिघल कर बहने लगा था।
दीपान्विता अपने सहपाठी, अमीर घर के इकलौते बेटे वैभव के प्रेमाकर्षण में सर से लेकर पाँव तक डूब गयी थी। जिस दिन उस लड़के ने मज़ाक-मस्ती छोड़कर उसे सच्चाई बतायी थी कि वह उससे ऐसा वाला प्रेम कतई नहीं करता कि उसे अपनी पत्नी, अपने ख़ानदान की बहू बना ले, उस अति-संवेदनशील लड़की को सारा संसार निस्सार लगने लगा था। वह उसके सामने बहुत रोयी-गिड़गिड़ायी, उससे अपने सच्चे प्यार की दुहाइयाँ दी थीं मगर सब बेकार। जब दीपान्विता ने उसे अपनी ज़िंदगी बताते हुए अपनी ज़िंदगी की भीख माँगी, उसकी यह दीवानगी वैभव को गले की फाँस लगने लगी और उसने बहुत रूखाई से उससे कह दिया था___

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ये रिश्ते दिलों के रिश्ते!(अंतिम भाग )

ये रिश्ते दिलों के रिश्ते!(अंतिम भाग ) – नीलम सौरभ

ये रिश्ते दिलों के रिश्ते!(भाग 2)

ये रिश्ते दिलों के रिश्ते!(भाग 2) – नीलम सौरभ

 

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़

 

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