विक्रम- बेताल (भाग 1) – साधना मिश्रा समिश्रा

सरसराती हवा, अमावस्या की रात, जंगल से उठती सांय-सांय की आवाज… कभी कोई  वानर कूद जाता पेड़ की डगाल से सोते-सोते तो ऐसा लगता कि तूफान ही आ गया है । लेकिन विक्रम तो ठहरा हठयोगी, निर्विकार,  निर्विचार…पर निर्विचार तो कोई भी नहीं होता है। हाँ…यह सत्य है कि निर्विचार तो कोई नहीं होता है…कोई मुखर होता है तो कोई मौन…सपने तो अंधा भी देखता है। भले भौतिक चीजों को उसने कभी आंखों से देखा नहीं होता है लेकिन अनुभव की टोकरी उसकी भी खाली नहीं होती है।

वह पुनः पेड़ के पास लौट आया और कंधे पर टांगा बेताल को और चलने लगा अपने अभीष्ट की ओर।

बेताल अलग परेशान था कि आखिर यह विक्रम किस मिट्टी का बना है। चाहे मैं  कितना भी परेशान करूँ,  यह तो अपने धुन का पक्का ठहरा। फिर-फिर कर आ जाता है। इससे पार पाना तो बहुत कठिन है।

एक बनावटी अट्टहास के साथ तनिक उपहास के लहजे में उसने पुनः गर्जना की।

हे राजन, तू अवंतिका का राजा, काम चांडाल के जैसे क्यों करता है। मैं मुर्दा… और तू मुझे कांधे पर ढ़ोये फिरता है। नहीं जानता कि तेरा मंतव्य क्या है।तू बार-बार यह क्यों करता है। मै भाग जाता हूँ और तू है कि मेरा पीछा ही नहीं  छोड़तालेकिन सत्य कहूँ तो तेरी इसी प्रवृति पर ही मैं तो रीझा हुआ

हूँ।

चल…यह समय काटने के लिए मैं तुझे एक सत्य  कथा सुनाता हूँ ।

बस शर्त मेरी वही है कि कथा के अंत में तुझसे तीन सवाल पूछूंगा।

तूने जवाब दे दिए तो तेरे मौन भंग की सजा यह होगी कि तेरा सिर हजार टुकड़ों में खंड खंड हो जायेगा और यदि जानते हुए भी नहीं  दिया तो मैं तो  चला।



यों कहते हुए बेताल ने कथा कहना प्रारंभ किया …….

प्राचीन जंबू द्वीप में भारतवर्ष नामक एक देश में एक समय ऐसा आया कि महाभारत काल के बाद हजारों वर्षों तक वहां ऐसी शांति छा गई कि जैसे वह एक अंधेरे के लंबे दौर में  खो गया।

कारण था कि महाभारत के भीषण युद्ध में दूर-दूर तक के राजघराने की तीन से पांच  पीढ़ियों के वंशजों का वैभव समाप्त हो गया।

राज्य के राज्य नष्ट हो गये। अधिकांश पुरुष युद्ध भूमि में मारे गए। जो बचे, उनमें विधवा स्त्रीयाँ, बूढे पुरूष तथा अनाथ बच्चों की बहुतायत थी।

न राजा बचे थे, न राज्य। एक अनुमान के अनुसार करीब एक अरब से भी ज्यादा लोग मारे गए थे इस महा भीषण युद्ध में ।

एक तरह से इसे पहला महा विश्व युद्ध की संज्ञा दे सकते है।

लोग छोटे -छोटे गांव बसाकर जीवन-यापन कर रहे थे। असंगठित थे। सब कुछ गंवाकर हारे हुए थे। नैराश्य का तांडव चहुंओर छाया हुआ था।

इतनी नीरवता छा गई थी कि हजारों साल की कुछ खबर नहीं । कोई इतिहास का प्रमाण इस दौर का स्पष्ट नहीं है।

कालांतर में फिर दौर आया कि कुछ वीर क्षत्रियों ने पुनः भूमि पर अधिकार कर राज्यों  की स्थापना की पर वे भी संगठित नहीं थे। छोटे-बड़े राज्यों में बँटे हुए थे।

भूमि की लड़ाई का दोष उनमें भी आ गया था।

वे आपस में  ही एक दूसरे पर कब्जा करने के लिए परस्पर युद्ध रत रहते थे। त्रेतायुग का वह सत्य तो द्वापर में ही टूट गया था जब भाई, भाई के लिए त्याग करने का मार्ग अपनाता था। अब भाई भाई से ही वैमनस्य का भाव रखता है। अपने निहित स्वार्थों के एक दूसरे का गला रेतने के लिए तैयार रहता है।

लेकिन उनकी यह लड़ाई भारत खंड के अंतर्गत ही थी। एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जब उन्होंने विदेशों पर शासन करने के उद्देश्य से आक्रमण किया हो।

कालांतर में उनमें ईर्ष्या का भाव गहराता गया और मैं सुरक्षित तो किसी की परवाह नहीं का भाव रगों में  समाता चला गया।



मान-अपमान का भाव इतना प्रबल हो उठा कि बाहर के लुटेरों को आमंत्रित करने लगे अपने से प्रबल शत्रु पर विजय पाने के लिए।

उनका रास्ता सुगम करने लगे कि मेरे शत्रु को निबटाने में मेरी सहायता करो और जी भर यहाँ की जनता का धन लूट लो।

इस तरह के कृत्यों के फलस्वरूप यहाँ के एक बड़े हिस्से में इन दुर्दांत लुटेरों का ही कब्जा हो गया। ये यहाँ के राजाओं से युद्ध करके उन्हें उनके ही राज्यों को नेस्तनाबूद करने लगे। भीतरघातियों की कमी नहीं थी। हर दूसरा आदमी जयचंद बन गया जान पड़ता था। ऐसे भीतरघातियों ने इनकी भरपूर मदद की तथा कालांतर में इनके ही अनुचर बन कर रह गये।

ये शासक नहीं थे। ये प्रवृति से लुटेरे थे। अतः ये दमन और अत्याचार की पराकाष्ठा पार कर राज करते थे। इनका राज्य तलवार के जोर पर चलता था।

यहां की जनता पर इनके अत्याचारों की कहानी से इतिहास के पन्नों पर काली स्याही पुती हुई है।

ऐसा भी नहीं था कि ये निर्विरोध, अकंटक राज करते थे पर इनका विरोध यहाँ के राजाओं ने संगठित होकर नहीं किया। वे निरंतर लड़ते रहे पर व्यक्तिगत लड़ाई ही लड़े। एक इकाई के रूप में संगठित होकर कभी नहीं लड़े। फलस्वरूप वे हारते रहे तथा उनके शत्रु इन आक्रंताओं का, लुटेरों का साथ देते रहे।

अतः ये दो-तीन सौ साल सत्ता पर काबिज  रहे।

फिर अंग्रेजों ने व्यापार के बहाने भारत में  प्रवेश किया तथा एक कंपनी बना छल-बल के द्वारा इनके शासन को हस्तगत कर लिया।

मात्र चालीस हजार की सैनिक संख्या के बल-बूते ये अंग्रेज संपूर्ण भारतवर्ष में अपना कब्जा जमा लिया। यह सामान्य  समझ की बात है कि भीतरघातियों का साथ उन्हें भी मिलता रहा। चालीस करोड़ की जनसंख्या वाले देश पर कोई तभी शासन कर सकता है जब उसे यहाँ की ही जनता का सहयोग प्राप्त हो ।

अजीब परिभाषा है इस देश में नमक का हक अदा करने की।

थोड़े से पैसों की खातिर आप उस देश से गद्दारी कर सकते हो जो आपकी जन्म भूमि हो और नमक का हक उसे अदा करे जिसने चंद पैसों के टुकड़े फेंक दिये हों।

थोड़े से पैसों की खातिर आप उनके ही साथ हो लेते हो जो आपके ही देशवासियों के साथ अत्याचार कर सकते हों ।

थोड़े से पैसों की खातिर आप अपनों का हक मारने में गुरेज नहीं करते हो और नाम देते हो नमक के हक की।

इन्हीं नमक के दारोगाओं की बदौलत अंग्रेजों ने भी दो सौ सालों तक यहाँ  अपना राज चलाया और इस देश को भूखे-नंगे होने तक लूट-खसोट कर अपने देश का खजाना भरते रहे।

लेकिन जिस देश में ऐसे नमकहराम नमक के दारोगाओं की कमी नहीं है, उसी देश में  स्वतंत्रता के दीवानों की भी कमी नहीं थी।

उन आजादी के दीवानों ने  इन अंग्रेजों की सत्ता को नकार कर जो हुंकार भरी तो देश को आजादी के मुहाने पर पहुँचा दिया।



देश को येन केन प्रकारेण आजादी तो हासिल हुई पर एक बहुत बड़ी छति के साथ।

पहले के मुगल लुटेरों के वंशजों ने, तलवार के बल पर परिवर्तित विदेशी धर्म के नाम पर देश को दो भागों में  विभाजित करवा ही लिया।

अब देश स्वतंत्र है। करोड़ों की बलि चढ़ी मुगलों के शासन में, लाखों की बलि चढ़ी अंग्रेजों के साथ स्वतंत्रता संग्राम के युद्ध में ।

दस लाख लोग हताहत रहे देश के बंटवारे में। अनुमान है कि इन हजार वर्षों में दस करोड़ की बलि चढ़ गई इस देश में। इ देश की शस्य श्यामला धरती रक्त रंजित हो गई। इतिहास जो लिखा जाता है वह वस्तुपरक होता है, भावनात्मक नहीं। वह यह तो बताता है कि मुगल राजवंश भी अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ा पर यह नहीं  बतलाता कि वे तब तक इतने शक्तिहीन हो चुके थे कि इसके सिवाय उनके पास कोई  चारा नहीं  बचा था। उनका विचार था कि अंग्रेजी शासन के बाद सत्ता उन्हीं के हाथ आयेगी पर ऐसा हुआ नही…सत्ता उनके हाथ आई जो इस देश के, इस सनातन के थे। बौखलाये मुगलों के मानस वंशजों ने उसकी कीमत भी वसूल ली धर्म के नाम देश का बँटवारा करके और आज फिर देश धर्म के नाम पर लड़ रहा है क्यों ? 

इतनी बलि देने के बाद भी देश की किसी भी समस्या का समाधान अभी तक हुआ नहीं है…क्यों ?

वह सभी समस्याएँ वही की वही रही जो स्वतंत्रता के पहले थी। वजह थी तब के देश के कर्णधारों की दूरदर्शिता की कमी।

उन्होंने यह नहीं सोचा कि जिन कारणों से आज हम विखंडित भारत देख रहे हैं अगर यही व्यवस्था बनाये रखेंगे तो क्या आने वाले समय में यही समस्याएँ पुनः विकराल रूप नहीं  धारण करेंगी। नतीजा  सामने है वह भी इतने अल्प समय में ?

आजादी के पश्चात भारतवर्ष में लोकतंत्र की स्थापना हुई यानी जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार ।

माने जनता अपने प्रतिनिधि चुनेगी तथा ये प्रतिनिधि जनता तथा देश के प्रति जवाबदेह समझें  जायेंगे ।

हर पाँच वर्ष के शासन के उपरांत ये जनता के दरबार में  हाजिर होंगे तथा इनके  किये कार्यों के मूल्यांकन के आधार पर जनता इन्हें मतों के आधार पर पुनः चुनेगी या नहीं चुनेगी।

लेकिन सभी व्यवस्थाओं के बावजूद  सत्तर साल की आजादी के तुरंत बाद ही उन्हीं  समस्याओं ने भारत भूमि को पुनः घेर लिया है। आज पुनः देश की समरसता ,अखंडता दांव पर लगी हुई  है।

हे राजन, मेरे तीन सवाल हैं  तुमसे…….

1– आखिर देश की यह दशा स्वतंत्रता के इतने अल्प समय में ही क्यों पुनः निर्मित  हो गई है ?

2– ये लोकतंत्र की व्यवस्था का खोट है क्या ?

3—  भारतवर्ष का भविष्य आज की दशा में  तुम्हें  कैसा नजर आता है ?

विक्रम ने सभी इतिहास की बातों  पर गौर करते हुए सोचने लगा कि देश की दशा में  सुधार तो आना चाहिए था।

आखिर अब राजशाही का युग तो रहा नहीं, जनता के प्रतिनिधियों की सरकार देश की शासन व्यवस्था संभाल रही है तो देश की दशा क्यों नही सुधरनी चाहिए ?

लोकतांत्रिक व्यवस्था तो समय की माँग है, यह सबसे खूबसूरत प्रणाली है जहाँ आधिपत्य जनता का होता है।

पर ये चुने हुए प्रतिनिधि देश सेवा से ज्यादा अपनी शक्ति प्रदर्शन, अपने लाभ को प्रमुखता में रखते हैं । जब तक ये बाहुबली बनने के भाव से चुनाव लड़ेंगे और चुने जायेंगे  तब तक तो व्यवस्था में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है ।

इस तरह के प्रतिनिधियों की अपेक्षा  सेवा भावी को चुनना देश को विकास की ओर ले जाना होगा। अतः जनता को ही सतर्क रहना होगा चयन करते समय।

रही बात सामाजिक समरसता और अखंडता की रक्षा की तो सामाजिक समरसता तभी कायम रह सकती है जब देश वासियों में  प्रेम हो, सद्भावना हो, एक ही झंड़े तले रहने की जिजीविषा हो।

अन्यथा यह एक हाथ की ताली से बजने वाला नहीं।  जो यह नहीं  समझेगा , कीमत वही चुकायेगा। क्योंकि तब से अब तक गंगा में इतना पानी बह चुका है कि कोई भी आंख दिखाकर अब जीत नही पायेगा। जो हठी होगा ,वह मिटेगा।



अब इस देश के विखंडन का सपना देखने वालों का ही सर्वनाश तय होगा। क्योंकि बाजी सिर्फ सत्ता के हाथ नहीं रह गई है, बाजी अब सत्ता को चुनने वाली जनता के हाथों में  हैं ।

वह तो देश के संप्रभुता के खिलाफ जाने वालों को जड़ से उखाड़ फेंकेगी।

देश की अधिकांश जनता इस भाव से ऊपर उठ चुकी है कि ” कोई हो नृप हमें का हानि…चेरी छोड़ न होइब रानी ” जनता जानने लगी है कि वह अब जिसे राजा चुनेगी, वही उसका भाग्य संवारेगा या डुबायेगा। लगाम अब उसके हाथों में है।

रही बात भारतवर्ष के भविष्य की, तो वह उज्जवल ही है क्योंकि अब की संतति प्रारब्ध को अपनी.नियति मान बैठने वाली नहीं है। वह अपने लिए, अपने देश के लिए लड़ना जानती है।

जब आवश्यकता होगी वह संगठित होकर लड़ेगी और फैसला अपने पक्ष में  हर कीमत पर हासिल करेगी।

अब जरूरत इतिहास से सीख लेने भर की रह गई है। आगे की राह तो खुद को ही चुनना होगा।

विक्रम को इस तरह सोच-विचार में  डूबे देखकर बेताल अट्टहास करते हुए बोला।

मैं जानता हूँ  राजन, तेरे पास सब सवालों का जवाब है पर तू नहीं  बोलेगा क्योंकि कड़वा सत्य सुनना कौन चाहता है। जमाना ही वह है कि सत्य मत बोलो क्योंकि सत्य सहने की क्षमता लोगों में  रह ही नहीं  गई है।

पर सत्य तो सत्य ही रहता है। वह बोला जाए या न जाए।

जिसने सत्य की आहट नहीं सुनी, वह तो गया।

जैसे मै भी चला …….

और बेताल उड़ा एवं पुनः वापिस पेड़ की डाल पर उल्टा लटक गया।

साधना मिश्रा समिश्रा

स्वरचित, सुरक्षित

दिनांक-१०-६-२०२२

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