Moral stories in hindi:
” दीदी…दीजिये ना..पराँठे मैं बेल देती हूँ।” कहते हुए गरिमा अपनी जेठानी सुषमा के हाथ से बेलन लेने लगी।
” अरे नहीं गरिमा..मैं कर लूँगी।तुम अपना नाॅवेल पूरा कर लो..इस समय तो तुम पढ़ती हो।” कहते हुए सुषमा ने गरिमा के हाथ से बेलन ले लिया और पराँठे बेलकर सेंकने लगी।
गरिमा को अच्छा नहीं लगा,धीरे-से बोली,” दीदी…आप तो मुझे कोई काम करने ही नहीं देती…क्या मैं पराई हूँ।मेरा भी दिल करता है कि आप सबके साथ हँसू- बोलूँ…आपका हाथ बँटाऊँ…लेकिन आप तो….।”
” नहीं रे..तू तो हम सबको बहुत प्यारी है।देखती नहीं…पापाजी सबसे तेरी प्रशंसा करते नहीं थकते…।” सुषमा ने मुस्कुराते हुए उसके गाल पर हल्की-सी चंपत लगा दी।
” तो फिर दी…, रूही और अंश मुझसे दूर क्यों रहते हैं।” गरिमा रुआँसी हो गई।
” इसकी कोशिश तो तुझे ही करनी होगी ना..”
” मुझे….!” सोचती हुई वह अपने कमरे में चली गई।
गरिमा ‘चौधरी परिवार’ की छोटी बहू थी।उसके ससुर नारायण चौधरी की शहर के मेन मार्केट में कपड़े की बड़ी दुकान थी।लगन और त्योहारों के अवसरों पर तो उनकी दुकान के बाहर ग्राहकों की लंबी लाइन लगी रहती थी।पत्नी सावित्री सुघड़ गृहिणी थी।अपनी तपस्या से उन्होंने अपने घर को सँवारा और तीनों बच्चों को पढ़ा-लिखा कर एक अच्छा इंसान भी बनाया।बड़ा बेटा सुमेश ग्रेजुएशन करके पिता के कारोबार में हाथ बँटाने लगा और छोटा गौरव दिल्ली के इंजीनियरिंग काॅलेज़ से इंजीनियर बनकर आया तो उसने अपने शहर में ही नौकरी करना पसंद किया।उसका मानना था कि अपनों के साथ रोटी खाने में ही सुख है।
सुमेश की शादी सावित्री जी ने अपने मायके से संबंधित परिवार में कर दी थी।बहू सुषमा उनकी उम्मीदों पर पूरी तरह से खरी उतरी थी।पोती रूही को हाथ पकड़कर चलना ही सिखा पाई थी कि भगवान के घर से उनका बुलावा आ गया।नारायण चौधरी के लिये पत्नी के बिना जीवन काटना बहुत मुश्किल लगने लगा था लेकिन सिर पर जवान बेटी सुगंधा बैठी थी।उसी समय से सुषमा बहू- पत्नी के साथ-साथ देवर-ननद की माँ भी बन गई थी।
सुगंधा की शादी के बाद सुषमा ने ससुर जी से कहा कि अब गौरव का भी विवाह कर देना चाहिये।लड़की उसी की तरह ही सुशील और शिक्षित होनी चाहिए।नारायण चौधरी ने अपने मित्रों के बीच गौरव की चर्चा की तब उनके एक मित्र ने बताया कि हमारे परिचित महेन्द्र जी जो आयरन फ़ैक्ट्री के मालिक हैं, आपके गौरव को बहुत पसंद करते हैं।आप कहें तो बात चलाए।
अगले दिन ही महेंद्र जी अपनी पत्नी के साथ नारायण चौधरी के घर आ गये।स्वागत-सत्कार के बाद महेंद्र जी बोले कि हमारी दो बेटियाँ हैं।एक अपने ससुराल में है और दूसरी गरिमा को आपके घर की बहू बनाना चाहते हैं।हमें आपका गौरव बहुत पसंद है।
नारायण चौधरी बोले कि ये तो हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी लेकिन हमारा परिवार मध्यमवर्गीय है और आपलोग…।
” रिश्ते पैसों से नहीं ,प्यार से बनते हैं नारायण जी।हमें
तो आपका परिवार पसंद है।आप भी एक दिन आकर हमारी बेटी से मिल लीजिये।” महेंद्र जी की पत्नी बोलीं।सुमेश और सुषमा ने भी उनकी बात का समर्थन किया तो अब नारायण बाबू को ना कहने की कोई गुंजाइश ही न थी।
दो दिन बाद नारायण बाबू भी सपरिवार महेंद्र जी के घर पहुँच गये।गौरव और गरिमा ने भी एक-दूसरे को पसंद कर लिया और महीने भर बाद शुभ-मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया।इस तरह गरिमा चौधरी परिवार की छोटी बहू बन गई।
ससुराल में गरिमा को बहुत प्यार मिला।जेठानी के बच्चे भी उससे हिल-मिल गये थें।दो महीने बाद न जाने कैसे उसके ससुर के कारोबार में घाटा होने लगा।कल तक जहाँ ग्राहकों की लंबी लाइन लगी रहती थी वहाँ सन्नाटा-सा छाया रहने लगा।व्यापारियों का भुगतान करने के लिये सुमेश को कर्ज़ लेने पड़ गये।उस समय पड़ोसी-रिश्तेदार उसके ससुर को कहने लगे कि आपकी नयी बहू के पाँव अशुभ है, उसके कदम घर में पड़ते ही आपके दुकान में तो कर्ज़दारों की लाइन गई।
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सुख-दुख अपने हाथ में (भाग 2)
सुख-दुख अपने हाथ में (भाग 2) – विभा गुप्ता : Moral stories in hindi