Moral Stories in Hindi : माया जी के पति और बड़े बेटे ने समझाया कि निशांत से सख्ती से पेश न आयें,गर्म खून है, बगावत कर बैठा तो हम कहीं के न रहेंगे।यद्यपि सुशांत और बहन अराध्या ने अपने छोटे भाई को समझाने का प्रयास किया कि नम्रता और हमारे सोशल स्टेटस में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है।हमारे घर में वो कहीं से भी फिट नहीं हो सकती। तब निशांत ने उन्हें टका-सा जवाब दिया था,” मुझे आपलोगों की पसंद से नहीं, अपनी पसंद से शादी करनी है और मेरी पसंद नम्रता है।”
निशांत के विवाह को लेकर माया जी के घर का वातावरण तनाव-पूर्ण हो गया।माया जी किसी भी कीमत पर हार मानने वाली थी नहीं।फिर उन्होंने कुछ सोचा और निशांत से कहा कि चल, तू जीता और मैं हारी।कल जाकर तेरी नम्रता से मिलकर बात पक्की कर आती हूँ।’ मेरी अच्छी माँ ‘ कहकर वह लिपट गया था अपनी माँ से।
अगले ही दिन फल-उपहार लेकर माया जी नम्रता के घर पहुँच गईं।शानदार कोठी में रहने वाली माया जी का दो कमरे के उस छोटे घर में घुटन होने लगी।अपने को संभालते हुए उन्होंने नम्रता के पिता से कहा कि बेटे की खुशी के लिये मैं आपकी बेटी को अपनाने के लिये तैयार हूँ लेकिन समाज में हमारी एक प्रतिष्ठा है।मैं नहीं चाहती कि लोगों को मालूम हो कि निशांत का ससुराल एक मिडिल क्लास फ़ैमिली है।
इसलिए विवाह के बाद नम्रता का आपसे कोई संबंध नहीं रहेगा।उसके लिये आपलोग…।” उनकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि नम्रता ने उनका लाया उपहार उन्हें वापस करते हुए बोली,” मैं निशांत से बहुत प्यार करती हूँ लेकिन मुझे अपने माता-पिता का सम्मान भी बहुत प्यारा है।जिस घर में जाकर मुझे अपने माँ-बाप को भूलना पड़े,मैं वहाँ कभी नहीं जाऊँगी।”
माया जी अपना अपमान बर्दाश्त नहीं कर पाई।घर आकर पहले तो उन्होंने नम्रता के खिलाफ़ निशांत के कान भरे और फिर लोगों में अफ़वाह फैला दी कि नम्रता का चरित्र अच्छा नहीं है।बदमानी इतनी होने लगी कि नम्रता और उसके माता-पिता का घर से निकलना मुश्किल हो गया था।निशांत नम्रता से मिलकर गलतफ़हमी को दूर करना चाहता था लेकिन तब तक तो नम्रता का परिवार शहर छोड़कर जा चुका था।
निशांत के आगे अपनी माँ की बात मान लेने के अलावा और कोई चारा न था और मोना उसकी जीवनसंगिनी बन गई।अपनी आदतानुसार मोना दिन-दिन भर क्लबों और मित्रों की पार्टियों में व्यस्त रहती।वह जब लौटती तो निशांत सो चुका होता और सुबह जब उठती, तब तक निशांत ऑफ़िस जा चुका होता।
शुरु-शुरु में तो माया जी को मोना का घूमना-फिरना बहुत अच्छा लगा लेकिन एक रात जब वह शराब पीकर आई तब उन्होंने बहू को टोक दिया कि भले घर की बहू को यह सब शोभा नहीं देता।फिर तो मोना ने समय नहीं देखा और अपनी सास को भरपेट सुना डाला।इतनी अपमानित माया जी कभी नहीं हुई थी।उस दिन उन्हें महसूस हुआ कि उनसे तो बहुत बड़ी गलती हो गई है।
निशांत तो तटस्थ था ही,अब माया जी ने चुप्पी साध ली।फिर एक दिन मोना अपने दोस्तों को अपना ससुराल दिखाने ले आई और कोठी के बड़े हाॅल में पीने-पिलाने के दौर शुरु हो गए।माया जी के पति सहनशील स्वभाव के थें, सोचा कि बहू को समझ आ जायेगी लेकिन जब रात के डेढ़ बज गये और मोना अपने दोस्तों के साथ हा-हू करती रही तब उनसे रहा नहीं गया।हाॅल में जाकर उन्होंने मोना को भला-बुरा कहा और उसके दोस्तों को भी डाँटकर भगा दिया।
उस वक्त तो मोना चुप रही लेकिन अगली सुबह अपना सामान बाँधकर पिता के घर जाने लगी तो माया जी ने उसका हाथ पकड़कर रोकना चाहा।जवाब में मोना ने उनका हाथ झटक दिया और आँखें तरेरती हुई बोली,” तलाक के पेपर पर अपने बेटे से साइन करवा दीजियेगा वरना घरेलू हिंसा का आरोप और निशांत को नपुंसक साबित करने में मुझे एक मिनट नहीं लगेगा।” सुनकर माया जी तो दंग रह गई।जिस सामाजिक प्रतिष्ठा का वो दम भरती आ रही थीं, वो तो उनकी चहेती बहू ने चकनाचूर कर दिया था।
निशांत ने यंत्रवत् तलाक के कागजात पर साइन कर दिये।नम्रता के बिना तो उसकी ज़िंदगी कल भी वीरान थी और आज भी।जब तक ऑफ़िस रहता,काम में व्यस्त रहता लेकिन घर आता तो…।अपने भतीजा-भतीजी के साथ भी उसने बातें करना बंद कर दिया था।बेटे की चुप्पी देखकर माया जी का कलेजा फटने लगा था।एक दिन वे अपने भाई से कह रहीं थी, ” नम्रता पर लाँछन लगाकर जो मैंने अपराध किया था, उसी की सज़ा मुझे मिल रही है।
” निशांत उसी समय ऑफ़िस से आया ही था, उसने माँ की बातें सुनी तो उसे मानसिक आघात पहुँचा और वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा।उसे किसी चीज की सुध नहीं रहती।डाॅक्टर की दवाइयाँ भी अक्सर वह फेंक ही देता था।कुछ पूछने पर टुकुर-टुकुर देखता या फिर चिल्लाने लगता।कभी-कभी तो घंटों बैठकर नम्रता की तस्वीर निहारता।बेटे की हालत देखकर माया जी का कलेजा मुँह को आ जाता।
माया जी की बड़ी कोठी जो कभी गुलज़ार रहा करती थी, वहाँ अब मुर्दनी-सी छाई रहने लगी थी।बेटे की विक्षिप्तता का ज़िम्मेदार अपनी पत्नी को ठहराकर उनके पति ने भी उनसे मुँह मोड़ लिया था।यहाँ तक कि मृत्यु के समय भी उन्हें पत्नी का मुँह देखना गँवारा न था।
ससुर की मृत्यु के बाद सुशांत की पत्नी ने भी अपनी सास के साथ रहने से इंकार कर दिया।बेटी ने अपने मायके आना छोड़ दिया, कभी आती भी तो अकेले।बच्चों को उनसे दूर रखना ही उसने मुनासिब समझा।सुशांत के जाते ही उनके नौकरों ने भी अपना अलग ठिकाना कर लिया।बेटा साथ रहकर भी माँ से बात न करे, उसकी तरफ़ देखे नहीं तो माँ के लिये इससे बड़ी सज़ा और क्या हो सकती थी।रात-दिन रोते हुए वे यही सोचती कि अपने अपराध का पश्चाताप कैसे करुँ।दिन-प्रतिदिन बेटे के गिरते स्वास्थ्य से चिंतित होकर अब वो रोज मंदिर जाने लगीं।डाॅक्टर की दवा तो काम न आई,शायद भगवान ही कोई चमत्कार कर दे।कल वो मंदिर से ही लौट रहीं थीं कि उन्हें चक्कर आ गया और नम्रता से उनकी…।”
” माताजी…., कहाँ उतरना है?” कहते हुए ऑटोवाले ने ब्रेक लगाई।ऑटो का पहिया रुकते ही माया जी भी वर्तमान में लौट आईं।
” अरे…गाड़ी क्यों रोक दिया?”
” कब से तो पूछ रहा हूँ कि उतरना कहाँ है लेकिन आप तो न जाने…।”
” हाँ-..केनरा बैंक के सामने जो बड़ी कोठी है ना…”
” माया निवास!..अच्छा तो आपको वहाँ जाना है।”
नम्रता से मिलने के बाद माया जी के मन में एक नई आस जगी।उनकी आँखों के सामने बार-बार नम्रता का मुस्कुराता हुआ चेहरा आ रहा था।शायद भगवान उन्हें पश्चाताप करने का अवसर देना चाहते हों। उनके ओंठों पर एक मुस्कुराहट की लहर दौड़ गई।उन्होंने एक बार निशांत को देखा जो अपनी माँ की इच्छा से अनजान अपनी ही बनाई दुनिया में मगन था और फिर एक नज़र अपनी वीरान पड़ी कोठी पर डाली।शायद ये फिर से चहकने लगे।शायद निशांत फिर से….।इन्हीं ख्यालों में उन्होंने रात काटी और अगले दिन उन्होंने दिये हुए पते पर जाकर कॉलबेल बजा दी।दरवाज़ा खोलकर नम्रता अपनी चिर-परिचित मुस्कान बिखेरते हुए बोली,” आईये ना माया आंटी…।” उन्हें कुरसी पर बैठाते हुए बोली,” घर में सब कैसे हैं?”
” मेरी छोड़ो…तुम बताओ..क्या कर रही हो? मम्मी-पापा…।”
” मम्मी-पापा तो रहे नहीं..।” कहते हुए नम्रता उदास हो गयी।फिर बोली, ” बदनामी के कारण तो हमने शहर छोड़ ही दिया था।नया शहर पापा को रास नहीं आया।सेहत बिगड़ने लगी और फिर एक दिन…।फिर यहाँ के एक स्कूल में नौकरी मिल गई तो फिर से आना पड़ा।निशांत के बारे में सुना तो मिलने आना चाहती थी लेकिन…।”
” कोई बात नहीं बेटी…, मैं चाहती हूँ कि तुम…।”
” नम्रता…,कल वाली फ़ाइल…।अरे आंटी आप! कैसी हैं?” नम्रता को पुकारता विवेक बाहर आया तो माया जी को देखकर आश्चर्य-से पूछा।
” आंटी…ये मेरे पति हैं।” नम्रता ने विवेक का परिचय कराया।
” ओह!…,अच्छा..,मैं चलती हूँ।” माया जी उठकर जाने लगी।
” आप कुछ कहना चाहती थी ना..।”
” नहीं …कुछ नहीं…।”चेहरे पर एक उदास मुस्कान लिए वे थके कदमों से वापस अपनी वीरान कोठी में आ गईं जहाँ वे अपने विक्षिप्त बेटे को देखती और पश्चाताप के आठ-आठ आँसू बहाती रहती।अपने अहंकार और सामाजिक प्रतिष्ठा के दंभ में उन्होंने नम्रता को बदनाम किया, अपने बेटे से उसकी ज़िंदगी छीन ली और नम्रता के पिता की मृत्यु का कारण बनी।इतने पापों का बोझ!…अब उन्हें उम्र भर पश्चाताप की आग में तो जलना ही पड़ेगा।
विभा गुप्ता
#पश्चाताप स्वरचित
एक माँ के लिए औलाद की खुशी ही सबसे बड़ी दौलत होती है।लेकिन माया जी ने अपने अहंकार पर बेटे की खुशियों की बलि चढ़ा दी जिसका पश्चाताप उन्हें उम्र भर करना पड़ा।