ममता जीत गई – गीता वाधवानी : Moral Stories in Hindi

ज्योति के जीवन का सफर अपने पति निशांत के साथ एक सामान्य भारतीय परिवार की कहानी जैसा ही था। आठ साल पहले उसके और निशांत के विवाह के बाद सभी ने उम्मीद की थी कि जल्द ही उनके परिवार में नन्हा मेहमान आएगा। लेकिन संतान सुख की प्रतीक्षा में बीते सालों ने इस खुशी को एक दर्द में बदल दिया। समय बीतने के साथ ही घर में कुछ तनाव भरा माहौल बनता चला गया। निशांत की माँ, सुमित्रा देवी, पारंपरिक सोच की महिला थीं, जिन्हें वंशबेल और खानदान का नाम आगे बढ़ाने की गहरी चिंता थी।

सुमित्रा देवी अक्सर संतान को लेकर ज्योति को ताने देतीं और उसे जली-कटी सुनातीं। ज्योति यह सब चुपचाप सह लेती और हमेशा अपनी सास के हर ताने का मूक भाव से सामना करती। पति निशांत भी अपनी मां के इस व्यवहार से दुखी था, परन्तु वह समझता था कि माँ की भावनाएँ भी उनकी परवरिश और पुरानी परंपराओं का परिणाम हैं। ज्योति के मन में भी माँ बनने की प्रबल इच्छा थी, परंतु किस्मत ने उसे इस सुख से अब तक वंचित रखा था। वह न तो किसी से कुछ कह पाती और न ही कोई हल निकाल पाती थी।

इसी मानसिक द्वंद्व के बीच, एक दिन ज्योति ने हिम्मत जुटाई और निशांत से अपनी दिल की बात कही, “क्यों ना हम एक बच्चा गोद ले लें? एक माँ की ममता सिर्फ अपने खून से नहीं होती, हर बच्चे में भगवान का रूप होता है।” निशांत को ज्योति की बात में सच्चाई महसूस हुई और उसने इसे एक सकारात्मक पहल के रूप में देखा।

जब निशांत ने इस बारे में अपनी माँ से बात की तो सुमित्रा देवी का चेहरा एकदम तमतमा गया। उसे यह विचार स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने झुंझलाते हुए जवाब दिया, “बच्चा गोद लेना? ना जाने किसका खून होगा! हमारे खानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ। एक अनजान खून को अपने परिवार का हिस्सा कैसे बना सकते हैं?” निशांत ने अपने तर्क के जरिए माँ को समझाने की कोशिश की कि ज्योति पर क्या बीत रही है, लेकिन उनकी माँ नहीं मानीं। उनके लिए वंश परंपरा बहुत महत्वपूर्ण थी, और उन्हें लगता था कि एक गोद लिया बच्चा इस परंपरा का हिस्सा नहीं हो सकता।

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माँ की नाराजगी के बावजूद निशांत ने ज्योति की भावनाओं का सम्मान किया और एक बच्चा गोद लेने का फैसला किया। उन्होंने आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन कर गोद लेने का फॉर्म भर दिया। कुछ महीनों बाद ही उन्हें एक प्यारा सा बेटा मिला, जो उनकी जिंदगी में नई खुशी और ऊर्जा लेकर आया। उसका नाम उन्होंने प्यार से “गोलू” रखा। निशांत और ज्योति के लिए गोलू जैसे उनका अपना ही खून था, और उन्होंने उसे पूरे दिल से अपनाया।

लेकिन सुमित्रा देवी इस नए सदस्य को लेकर अब भी उदासीन थीं। उन्होंने खुद को गोलू से दूर ही रखा। उसकी देखभाल से लेकर उसके रोने पर उसे चुप कराने तक, सुमित्रा देवी ने गोलू के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई।

सुमित्रा देवी इस नए सदस्य को अपने परिवार का हिस्सा मानने से इंकार करती रहीं। गोलू जब पूरे घर में घुटनों के बल चलने लगा और सभी के पीछे-पीछे घूमता रहता, तो सुमित्रा देवी उसकी ओर सिर्फ एक नजर डालतीं और फिर अपने काम में व्यस्त हो जातीं।

गोलू की एक आदत यह थी कि जब भी वह अपनी दादी को पूजा वाले कमरे में जाते देखता, तो वह भी उनके पीछे-पीछे जाने लगता। पूजा के समय दादी उसे देखकर अनदेखा कर देतीं, लेकिन गोलू हर दिन उनकी तरह हाथ जोड़कर बैठ जाता और उनकी नकल करने की कोशिश करता। वह सुमित्रा देवी के सामने बैठकर अपने होंठ ऐसे हिलाता मानो उनके साथ प्रार्थना कर रहा हो।

एक दिन गोलू की इस हरकत ने सुमित्रा देवी का दिल छू लिया। वह अपने छोटे से हाथ जोड़कर उनके बगल में बैठा था, और सुमित्रा देवी की प्रार्थना करते हुए उसकी मासूम नकल देखती रहीं। अचानक उनके चेहरे पर एक मुस्कान आई और उन्होंने गोलू के सिर पर हलके से हाथ फेरा। यह स्नेह का पहला स्पर्श था, जो गोलू ने अपनी दादी से महसूस किया था। वह भी उनकी तरफ देखकर मुस्कुराया। सुमित्रा देवी का दिल अंदर से पिघलने लगा।

गोलू की मासूमियत और निस्वार्थ प्यार सुमित्रा देवी के दिल में धीरे-धीरे एक कोमल स्थान बनाने लगा। अब वह रोज सुबह इंतजार करती कि गोलू उनके साथ पूजा में बैठे। एक दिन जब सुमित्रा देवी नहाने में देर कर बैठीं, तो उनके मन में बेचैनी होने लगी। उन्होंने ज्योति से पूछा, “बहू, गोलू सो रहा है क्या? आज दिखाई नहीं दे रहा।”

ज्योति ने मुस्कुराते हुए पूजा वाले कमरे की ओर इशारा किया और कहा, “माँ जी, आपका गोलू टाइम का बड़ा पक्का है, यह देखिए।”

सुमित्रा देवी ने देखा कि गोलू पूजा वाले कमरे में बैठा हुआ था, उसने अपनी छोटी-छोटी हथेलियों में आरती की किताब थाम रखी थी और उसके होंठ हिल रहे थे जैसे वह आरती गा रहा हो। यह दृश्य देख सुमित्रा देवी की आँखों में नमी आ गई और उनकी वर्षों पुरानी जमी हुई कठोरता पूरी तरह से पिघल गई। वह जोर से हंसी और दौड़कर गोलू को अपने सीने से लगा लिया। उसने गोलू को गोद में उठाकर बार-बार चूमा और अपनी ममता की गर्मी से उसे सहलाया।

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उस क्षण सुमित्रा देवी को यह एहसास हुआ कि ममता खून से नहीं होती, वह बच्चे की मासूमियत और अपनेपन की भावना में होती है। गोलू ने उनके जीवन में जो खालीपन और कठोरता थी, उसे दूर कर दिया। उसके इस मासूम प्यार ने सुमित्रा देवी के दिल में एक नई ममता को जन्म दिया। उन्होंने महसूस किया कि परिवार का असली अर्थ खून के रिश्तों में नहीं, बल्कि दिल के रिश्तों में है।

अब सुमित्रा देवी और गोलू का रिश्ता और भी गहरा हो गया था। सुमित्रा देवी के लिए गोलू अब उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया था। घर में उसकी हंसी और किलकारियां गूंजतीं, तो उनके दिल को एक अलग सुकून मिलता।

कुछ दिनों बाद, एक दिन सुमित्रा देवी ने ज्योति और निशांत से कहा, “मुझे माफ करना, मैंने इसे अपने दिल से अपनाने में इतनी देर क्यों लगा दी। गोलू के बिना अब यह घर और मेरा जीवन अधूरा लगता है। उसने मुझे सिखाया है कि ममता और अपनापन खून का मोहताज नहीं होते।”

इस तरह, गोलू की मासूमियत और निस्वार्थ प्रेम ने परिवार के दिलों को जोड़ दिया। सुमित्रा देवी ने अपने मन की सारी कटुता त्याग दी और पूरी तरह गोलू को अपनाने का निर्णय लिया। गोलू अब सुमित्रा देवी के लिए उनका प्यारा पोता था, जिसने उनके हृदय की कठोरता को पिघलाकर उसे ममता से भर दिया था।

मौलिक रचना 

गीता वाधवानी दिल्ली

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