सीमा और उसके पति की दो बेटियां थीं, और उनके लिए यह दो बेटियां ही उनका संसार थीं। उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि उनकी बेटियां ही उनका सहारा होंगी, और इसी कारण उन्होंने और बच्चे न करने का फैसला किया। सीमा और उसके पति ने अपनी बेटियों को सबसे अच्छे संस्कार और शिक्षा देने में कोई कमी नहीं छोड़ी। वे चाहते थे कि उनकी बेटियां काबिल बनें, और जीवन में आत्मनिर्भर हों। दूसरी ओर, सीमा की जेठानी, जिनके दो बेटे थे, हमेशा सीमा को ताने मारती रहती। वह कहती कि, “बेटियों को कितना भी काबिल बना लो, एक दिन तो वे पराए घर चली ही जाएंगी। मुझे देखो, मेरे दो बेटे हैं, मैं तो ठाठ से अपनी बहुओं के संग रहूंगी।”
यह ताना सीमा को अंदर ही अंदर चुभता था, लेकिन वह कुछ नहीं कह पाती। वह चुपचाप इस बात को सहती रहती और अपनी बेटियों की परवरिश में लगी रहती। सीमा जानती थी कि समाज में बेटों को लेकर जो मान्यता है, वही उसके ससुराल में भी थी। लेकिन सीमा ने अपनी बेटियों को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उनके माता-पिता कभी बेटों की कमी महसूस करते हैं। उसने अपनी बेटियों को हमेशा यही सिखाया कि वे अपने आत्म-सम्मान और काबिलियत से अपने माता-पिता का नाम रोशन करें।
समय बीतता गया। सीमा की दोनों बेटियां मेहनती और समझदार निकलीं। पढ़ाई में अव्वल रहीं और नौकरी में भी अच्छा कर रही थीं। बेटियों की सफलता को देखकर सीमा का दिल गर्व से भर जाता। लेकिन सीमा की जेठानी अब भी उसी मानसिकता में जी रही थी। उसने बेटों के सहारे अपने बुढ़ापे की कल्पना की थी और इसीलिए वह अपने बेटों पर ही निर्भर रहना चाहती थी। उसे लगता था कि बेटियां कभी परिवार का सहारा नहीं बन सकतीं, क्योंकि एक दिन वे पराए घर की हो जाएंगी।
समय के साथ सीमा की दोनों बेटियों की शादी हो गई। वे अपने-अपने परिवार में खुश थीं, लेकिन अपने माता-पिता का ख्याल रखना नहीं भूलीं। बड़ी बेटी थोड़ी दूर रहती थी, लेकिन वह अक्सर फोन पर मां-बाप का हाल पूछती और मौका मिलते ही मिलने आ जाती। छोटी बेटी उसी शहर में थी, इसलिए वह समय-समय पर आकर अपने माता-पिता की देखभाल कर लिया करती थी। सीमा और उसके पति को यह देखकर संतोष होता कि उनकी बेटियां कितनी समझदार और जिम्मेदार हैं। उन्हें अब किसी चीज की कमी महसूस नहीं होती थी, क्योंकि बेटियों ने उनका जीवन खुशियों से भर दिया था।
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दूसरी तरफ, सीमा की जेठानी का जीवन अब वैसा नहीं था जैसा उसने सोचा था। उसके दोनों बेटों की शादी हो चुकी थी, लेकिन उनकी बहुएं उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं। दोनों बहुएं अलग-अलग रहना चाहती थीं और अपने पतियों के साथ अलग घर बसाने का इरादा रखती थीं। जेठानी को यह बात स्वीकार नहीं थी, लेकिन बेटों और बहुओं ने अपनी मर्जी के आगे उसकी एक न सुनी। धीरे-धीरे, जेठानी अकेली पड़ने लगी। उसके अपने बेटे भी अब उतना समय नहीं दे पाते थे, जितना उसने सोचा था।
एक दिन, सीमा की जेठानी अचानक बीमार पड़ गई। उस समय उसके दोनों बेटे अपने-अपने काम में व्यस्त थे और बहुएं अपने घरों में। सीमा की छोटी बेटी जब यह बात सुनकर ताईजी के घर पहुंची, तो उसने उनका हालचाल लिया और उनके लिए खाना बनाया। खाना खिलाते वक्त उसकी ताईजी ने थोड़ी भावुक होकर कहा, “बेटी, तू ही है जो समय पर मेरे लिए आ गई। तेरी मां ने तुम्हें बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं।”
इस पर सीमा की बेटी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया, “क्यों ताईजी, आप तो हमेशा कहती थीं कि आपके बेटे आपके बुढ़ापे का सहारा हैं और आप ठाठ से बहुओं के संग रहेंगी। अब क्या हुआ? असल में, बेटा हो या बेटी, अपनापन होना ज़रूरी है।”
ताईजी के चेहरे पर एक अजीब सी झलक आई। उसे अपने पुराने तानों की याद आई, जो उसने सीमा को दिए थे। उसे समझ में आ रहा था कि जो उसने सीमा के दिल पर जख्म दिए थे, वही दर्द अब वह खुद महसूस कर रही है। उसे इस बात का एहसास हुआ कि बेटा या बेटी का फर्क नहीं पड़ता, असल चीज अपनापन, प्यार और देखभाल होती है।
ताईजी के मन में गहरी उदासी छा गई। उसे अपनी पुरानी सोच पर पछतावा होने लगा। उसने सीमा की बेटी से कहा, “बेटी, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे अपने बेटे मुझसे दूर हो जाएंगे। मैंने हमेशा बेटियों को ही कमजोर समझा, लेकिन आज मुझे एहसास हो रहा है कि बेटियां ही असली सहारा होती हैं।”
सीमा की बेटी ने मुस्कुराते हुए कहा, “ताईजी, बेटी हो या बेटा, अंत में वही सहारा बनता है जो दिल से जुड़ा होता है। आपने मम्मी को कई बार ताना दिया, लेकिन देखिए आज भी मम्मी ने ही मुझे आपके पास भेजा।”
इस बात ने ताईजी के दिल को छू लिया। उसे महसूस हुआ कि अपने जीवन में उसने सिर्फ बेटों पर ध्यान दिया, लेकिन बेटियों की अहमियत को नजरअंदाज कर दिया। वह समझ गई कि हर रिश्ते में प्यार और अपनापन होना जरूरी है, चाहे वह बेटा हो या बेटी।
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अब ताईजी का मन बदल चुका था। उसे इस बात का एहसास हो गया था कि उसने जीवन भर एक गलत धारणा को अपने दिल में बसाए रखा। उसने सीमा से माफी मांगी और वादा किया कि अब वह अपनी बेटियों को भी उतना ही आदर और सम्मान देगी जितना अपने बेटों को। इस घटना ने उसे सिखा दिया था कि बेटियां भी उतनी ही महत्वपूर्ण और भरोसेमंद होती हैं, जितने बेटे।
इस तरह, सीमा और उसकी बेटियों ने अपनी देखभाल और सहानुभूति से न केवल अपनी माँ का नाम रोशन किया बल्कि परिवार के बीच एक नई सोच और बदलाव की लहर भी लाई। ताईजी का यह अनुभव उनके लिए एक सीख बन गया और परिवार में अब बेटा-बेटी का भेदभाव खत्म हो गया।
मौलिक रचना
अंजना ठाकुर