आशिकी के गाने सुन सुन कर मेरे ऊपर भी आशिकी का भूत चढ़ा था; अरे भाई राहुल राय वाली मूवी आशिकी की बात हो रही है कहीं आप श्रद्धा कपूर वाली आशिकी तो नहीं समझ रहे, अब हम इतने भी नन्हे-मुन्ने नहीं है कि श्रद्धा कपूर की फिल्म देखकर आशिकी का भूत सवार हो; अब तो वैसे भी सारे भूत उतर चुके हैं।
हाँ तो कहाँ थे हम? मुझ पर भूत सवार था आशिकी का और इस भूत को बढ़ावा देने में जो मेरा साथ दे रहा था; उसका नाम तो बिलकुल नहीं बताऊँगी चाहे कोई कितना भी पूछ ले; नहीं बता सकती मतलब नहीं बता सकती।
वो रोज मुझसे बात करने की कोशिश करता लेकिन बहुत मुश्किल था यह काम हमारी साईकलें स्कूल तक साथ-साथ चलती है और फिर अलग हो जाते थे; बात करने का मौका ही नहीं मिलता था, डर भी बहुत लगता था; अगर किसी ने देख लिया और घर में बात पहुँच गई तो शामत आ जाएगी; भाइयों की तो छोड़िए दीदी को पता चल गया तो ही बिना कारण बेचारा पीटा जाएगा; उसको अपनी चिंता नहीं थी लेकिन मुझे उसकी चिंता थी।
अब नाइंथ (IX) क्लास में पढ़ते समय कहीं आने-जाने की अनुमति तो होती नहीं है सिर्फ स्कूल से घर और घर से स्कूल ही जा सकते थे; वह भी यूनिफॉर्म में। उन कपड़ों में उसके साथ कहीं जाया भी नहीं जा सकता था, एक दिन मन में ख्याल आया किसी तरह फिल्म देखने जा सकते तो कितना मजा आता और कमाल देखिये इतनी अच्छी केमिस्ट्री थी हमारी कि उसके दिमाग में भी मेरे साथ ही साथ यही आइडिया आया था। एक दिन पास से गुजरते हुए उसने धीरे से कहा, “आशिकी फिल्म देखने चलें?”
वाह फिर क्या था मन हिलोरे लेने लगा। मुझे तो बार-बार वह कोट ओढ़े हीरो-हीरोइन का सीन जो पोस्टर पर देखा था, याद करके गुदगुदी हो रही थी। तीन घंटा साथ बैठकर फिल्म देखेंगे सोच कर ही बहुत सुहाना लग रहा था; क्या बात करेंगे कैसे करेंगे कुछ समझ में भी नहीं आ रहा था।
किसी तरह सारा प्रोग्राम फिक्स हो गया था मैंने भी घर पर बहाना बना दिया कि मुझे सिर्फ प्रैक्टिकल के लिए ही सिर्फ स्कूल जाना है इसलिए आज यूनिफॉर्म नहीं पहन कर जाऊंगी। ग्यारह बजे घर से निकल गई बारह का शो था। सिनेमा हॉल पहुँची तो वह बाहर ही खड़ा था मैं दौड़ के उसके पास गई और हम टिकट खिड़की की तरफ बढ़ने लगे
उसी समय किसी ने मुझे जोरदार धप्प मारा और आवाज आई, “उठ क्यों नहीं रही हो, कितना सोओगी हर संडे बोलती हो टीवी पर रंगोली आने पर उठा देना; कह तो देती हो लेकिन उठती नहीं हो कभी भी।”
आवाज दीदी की थी जो मेरे सिराहने खड़ी थी और मेरी नींद ख़राब करने का मजा ले रही थी।
भगवान कसम उस दिन दीदी और रंगोली दोनों ही बहुत बुरे लग रहे थे; बहुत ही ज्यादा बुरे और यह कहावत बिल्कुल ही गलत है कि- ‘सुबह का सपना सच होता है,’ लेकिन ये सपना कभी सच नहीं हुआ।
मौलिक/स्वरचित
शालिनी दीक्षित