मैं समझती थी प्रेम में स्त्रियाँ ही दुख भोगती है, व्याकुल होती हैं, रोती या तड़पती हैं ,पर सच तब जाना जब उसे देखा।
न जाने क्या था उसमें , मेरी सखी राखी उससे लिपटी रहती थी। वो अचानक दुनिया से चली गई । उससे बिछड़ कर वह पात विहीन ठूँठ -सा दरख्त बन कर रह गया। सेव- से सुर्ख गाल पिचक गए,अधरों पर पपड़ियाँ जम गईं। बेतरतीब बढ़ी दाढी, सूखी वीरान आँखें अनगिनत काली रातों में जागने की गवाह थी।
जीवन का सूरज डूब रहा था और उसकी हर सुबह बुझी -बुझी थी। बंजर छाती पर जाने कौन -सा हिमसागर जम गया था। हाथों का सूखा और खुरदुरा स्पर्श तब महसूस हुआ जब मैंने उससे हाथ मिलाया। मैंने उसकी तरफ देखा पर उसकी सीलन भरी दिल की दीवारों से उसकी आँखों तक कोई सन्देश नहीं पहुँचा।
मुझे लगा उसके मन के वीरान मरुस्थल में चारों तरफ असंख्य काँटे उगे है और हरियाली को तरसता मन कितना लाचार है। आँखों की जमी झील के नीचे ठहरा पानी दिखाई तो नही दिया ,मगर हलक के लावा की लपट अवश्य दिखाई दी। मुझे उस वक्त महसूस हुआ प्रेम में स्त्रियां ही नहीं मरती ,पुरुष भी मर जाते हैं।
मैं कुछ देर उसके पास बैठी रही । वह मेरी दोस्त का पति था। वह बिस्तर पर लेट कर आवाज करते पंखे को गोल -गोल घूमते देखता रहा। उसका एक आँसू नहीं गिरा मगर मुझे लगा उसका तकिया भीगा सा हो गया है। उसकी आँखों के जलस्त्रोत सूखे थे मगर प्रेम के अवशेष आँसू उसने जतन से सहेज रक्खे थे।
अचानक मुझे महसूस हुआ वो वहीं उसके पास थी और मुझे वापस जाने के लिए कह रही थी। मैं चुपचाप उठी और बाहर निकल गई। अपने घर की सड़क पर मुझे लगा उसके घर का सन्नाटा मेरे साथ चला आया है। घबराते हुए मैने जल्दी से दरवाजा खोला ,अंदर भी एक और सन्नाटा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने तुरन्त टी .वी चला दिया। अब लगा मेरे साथ दो -चार लोग हैं। मैं आराम से बिस्तर पर लेट गई। ध्यान वहीं लगा था ,सोच रही थी इस स्थिति यानी प्रिय के वियोग में क्या कोई पुरुष भी ऐसा वीतरागी हो सकता है ? हाँ ,अब अहसास हुआ ,पुरुष भी स्त्री की तरह कोमल हृदय का होता है, दुख में वह भी घबराता और रोता है, उसका मन भी चीत्कार करता है। वियोग वह भी सहन नहीं कर पाता और यही सब सोचते मेरी कब आँख लग गई ,पता ही नहीं चला। अगली सुबह दरवाजे की घण्टी बजी, दरवाजे पर मेरे पति खड़े थे जो अभी टूर से लौटे थे , थकान से उनका चेहरा कुम्हला गया था । मैं उनसे लिपट गई। आज उन्हें मैंने नए नजरिए से देखा था।
सरिता गर्ग ‘सरि’