भाभी माँ – कंचन शुक्ला

वे मुझे इतनी पसन्द हैं कि मेरा मन होता है सदैव उनके आसपास रहूँ। उनसे दो पल की भी जुदाई मेरे मन को विचलित कर जाती है। भीनी भीनी सी उनके व्यक्तित्व की महक। कोयलों सी बोली, कानों में घुलकर, सब तनाव दूर कर देती है।

भैया दो दिन के लिए टूर पर गए हैं। सोच रहा हूँ, आज अपने मन की बात उनको बता ही दूँ। मुझे भी मन करता है, उनके साथ खूब सारी बातें करूँ। जैसे रात रात भैया उनको जगाए रहते हैं, मुझको भी उनके ही साथ रहना है। मुझे भी वे चाहिये। वैसे भी वो हमेशा कहतीं हैं,” कुछ चाहिए तो बिना हिचक मेरे पास आ जाना, कह देना।”

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पहले दिन जो सिया भाभी को देखा, तो जैसे दिल ही अटक गया था उन पर मेरा। ग़ज़ब का आकर्षण हुआ। उस पर सभी को उनका बखान करते सुना, तो मन में अज़ब सी खुशी की हलचल हुई। मुकुंद भैया ने पहली बार, सिया भाभी को, हम सबसे मिलावाया था। दादी, मम्मीपापा तो बलबल जा रहे थे। पढ़ीलिखी होने के साथ साथ, वे गुणों की भी खान हैं। उनके नैसर्गिक सौंदर्य, तौर तरीकों व संस्कारों का जादू, सब के सर चढ़ बोल रहा था। और मैं तो फिदा ही हो गया था। बिल्कुल जैसे भैया चारों खाने चित्त थे।

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पहली बार में ही कोई किसी को इतना अच्छा लग सकता है यह उनको देखकर महसूस हुआ। कैसा बुलबुलों सा मन होता था मेरा। सिया भाभी और मुकुंद भैया की शादी की तारीख़, दो महीने बाद की निकली है। अक्सर वे घर आतीं। कभी तो उनके मातापिता साथ होते। नही तो वो अकेली भी आ जातीं। हमारे मातापिता नौकरीपेशा होने के नाते, अक्सर घर नही होते। दादी ही शुरू से हमारे साथ रही हैं। हमारी देखरेख परवरिश की। भैया और मैं, उनसे बहुत अटैच्ड हैं।

सिया भाभी ब्याह के घर आ गईं हैं। सभी से उनका लगाव है। मुझ पर तो कुछ ज़्यादा ही निसार रहती हैं। छोटा जो हूँ। ये खा लो। वो बना दूँ। जो तुम्हे पसन्द हो बताओ। वही मँगाएँगे, खायेंगे। वहीं घूमने चलेंगे जहाँ सौमित्र कहेगा। और ना जाने कैसे कैसे तरीकों से, मुझ पर अपनापन न्योछावर करतीं।

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जब जब वे अपने बाल खोलकर कमरे से बाहर आती हैं। क्या उन्हें पता चलता होगा कि वे कितनी खूबसूरत दिखती हैं?? उनके कपड़ों से मेल खाती वो छोटी सी रंगबिरंगी बिंदी। उनके रूपरंग को चार चाँद लगा देती है।  


भैया के साथ बाहर जाते समय वो चुड़ों से भरीभरी कलाई उन पर खूब फबती है। जो भी पहनें, सौम्य व शालीन ही लगती हैं। ना कभी भड़काऊ, न ही ऊलजुलूल। फ़ैशन के नाम पर कुछ भी पहनने वालों में से नही हैं। नौकरी से घर, घर से नौकरी। और बाकी का सारा समय परिवार के साथ बिताती हैं। मायके तो कम ही जातीं हैं। अपने मातापिता को मिलने के लिए यहीं बुला लेतीं हैं। फिर हम सब मिलकर खूब हँसी ठठाका लगाते हैं।

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हिम्मत कर उनके कमरे के बाहर खड़ा तो हूँ पर अंदर जाने की हिम्मत नही हो रही। दिल ऐसे ज़ोरों से धड़क रहा है मानो फट कर चीथड़े हो जाएगा। जैसे ही कमरे में दाखिल हुआ तो बिस्तर पर देखता हूँ कि मम्मी जैसा कोई लेटा है। कम से कम दूर से तो ऐसा ही लग रहा है। पास गया तो सच में मम्मी थी। डर के मारे बाहर भागा और मम्मी से टकरा गया। मम्मी पापा के लिए चाय बनाने किचन में जा रही थी।

मैं सर पकड़ के वहीं बैठ गया। लगा मानो चक्कर आ गया हो। मम्मी चिंतित हो उठीं। क्या हुआ, क्या हुआ?? कहते हुए पानी लायीं। दो घूँट मुँह में जाते ही सारे होश ठिकाने आ गए। अंदर तो भाभी ही थीं। प्रभु ने अपनी माया रचकर, मुझ जैसे निकृष्ट, अधम व पापी को बचा लिया है। जैसे हर युग, काल, अंश में प्रभु अपने भक्तों की रक्षा करते हैं वैसे ही आज उन्होंने भाभी की भी रक्षा की है।

क्या करने चल दिया था मैं?? धन्यवाद प्रभु!! जो आपने राह दिखाई। रावण जब भी सीता माँ के करीब जाता था।  उस पर भी सीता माँ को देखते ही, मातृभाव प्रगाढ़ हो जाता था। वैसे ही आपने मुझे भी दिग्भ्रमित होने से, भाभी माँ के प्रति, अक्षम्य अपराध करने से बचा लिया।

मौलिक और स्वरचित

कंचन शुक्ला- अहमदाबाद

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