मान्धाता जी बहुत बड़े बिजनेसमैन थे। उनकी बहुत ही खूबसूरत पत्नी और प्यारी सी दो बेटियां थीं। शेफाली और दीपाली। उनके बेटा नहीं था, और वो भी अपने मां पिता के इकलौते संतान थे। उनकी मां उन्हें जब तब दूसरी शादी करने के लिए दबाव बना रहीं थीं। पर वो अपनी पत्नी और बेटियों से बहुत प्यार करते थे। मां की बात को अनसुना कर देते और बहुत समझाते भी थे ।
पर मां हमेशा बिसूरती और कलपती रहती,, तुम इतने बड़े बिजनेसमैन हो, लखनऊ में तुम्हारा कितना नाम है,,तुम्हारा कोई वारिस होना चाहिए ना,इतने बड़े कारोबार को संभालने के लिए। बहू तो ज्यादा पढ़ी लिखी नही है, और ये बेटियां शादी होकर अपने अपने घर चली जायेंगी।तुम ही बताओ अपना वंश कैसे चलेगा।
समय जाते देर नहीं लगती। बेटियां ग्यारहवीं, बारहवीं कक्षा में पढ़ने लगीं थीं। उन दोनों को अपने पिता के बिजनेस में कोई रुचि नहीं थी,बस सजना संवरना खूब पैसे उड़ाना और अपने दोस्तों के बीच अमीरी का रूतबा झाड़ना। मम्मी के साथ फिल्में देखना, शापिंग करना, और खूब घूमना।
इधर मान्धाता जी के ऊपर मां का और परिवार, रिश्तेदारों का हद से ज्यादा दबाव पड़ रहा था, दूसरी शादी करने के लिए। दोस्तों ने भी बहुत समझाया,,देखो, तुम्हें अपनी पत्नी और बेटियों को छोड़ना नहीं है,, तुम उनके साथ अपनी दूसरी पत्नी को भी साथ रख सकते हो, किसी गरीब घर की बेटी से शादी कर लो,उस बेचारी का भी उद्धार हो जायेगा।
एक दिन किसी कठोर पत्थर को भी रगड़ते रगड़ते उस पर निशान पड़ने लगते हैं, फिर वो भी तो एक इंसान ही थे, पत्थर दिल पिघलने लगा था,, और फिर उन्होंने अपनी पत्नी और बेटियों का शुष्क व्यवहार और उदासीनता भी देखी, उनको अपने पापा से बिल्कुल भी लगाव नहीं था।
अब तो मां भी मरने की धमकी दे रही थी,,बबुआ, हमारे जीते जी हमें वारिस दे दो नहीं तो मरने के बाद हमारी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।
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एक दिन मान्धाता जी ने अपनी पत्नी और बेटियों को अपने विश्वास में लेते हुए बड़े प्यार से समझाया,, और अपनी बात रखी,
,, किसी गरीब की लड़की से शादी कर के एक बच्चा हो जाने के बाद उसे अलग एक कमरा दे देंगे वहीं वह रहेगी, फिर उससे मेरा कोई रिश्ता नहीं रहेगा। तुम तीनों मुझे जान से ज्यादा प्यारे हो,बस मैं मां की ज़िद के कारण ये शादी करूंगा, परंतु तुम्हारे इजाजत के बगैर नहीं।। सोच कर मुझे बता देना,
मां बेटी ने आपस में तय किया कि ठीक है,, करने दो शादी,, जैसा कह रहे हैं वैसा ही होगा,, हमारे विरोध करने से कुछ नहीं होगा, वो तो अब करेंगे ही,, और तीनों ने मन मारकर हामी भर दी।
सब बहुत खुश हुए, मां ने तो पहले ही एक गरीब, लाचार घर की लड़की देख कर बात कर ली थी,,बस फिर क्या था,चट मंगनी पट शादी,, साधारण तरीके से शादी हो गई,,कम उम्र की बड़ी खूबसूरत बहू, गहनों,भारी साड़ी में सजी धजी,छम छम करती अपने दिल में अरमानों को सजाये आ गई। दिन भर की रस्मों के बाद दुल्हन को उसके कमरे में पहुंचाया गया।
मान्धाता जी खूब खुश होते हुए नई नवेली दुल्हन के कमरे की तरफ़ बढ़े, पर यह क्या,,, वो आश्चर्य चकित रह गए,,उनकी दोनों बेटियां कमरे के दरवाजे पर ताला लगा कर पहरा देती हुई बैठी थी,, ये क्या हो रहा है,,तुम लोगों ने ताला क्यों लगाया है,, गुस्से से चिल्लाते हुए पापा बोले।
, बड़ी ही बेरहमी से दोनों बोली, पापा,, केवल शादी की इजाजत दिया था हमने,,आप आगे नहीं बढ़ सकते,,आप अपने कमरे में जाईये।
दादी,पापा सब बहुत गुस्सा हुए, क्या नाटक खेल रही हो,, शर्म नहीं आती,, ऐसा तमाशा करते हुए,,
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पापा आपको शर्म नहीं आई, इतनी बड़ी बेटियों के होते आपने दूसरा ब्याह रचाया,,हम क्या पागल हैं जो अपनी मां का हक किसी और को दे देंगे , आपको हमारी कसम है,आप हमारा मरा मुंह देखेंगे, यदि आप अपनी इस नई पत्नी के पास गये तो।। मजबूरन उन्हें वापस भरे कदमों से लौटना पड़ा,, एक हारे हुए जुआरी की तरह।।
दिन रात दो दिनों तक बारी बारी से दोनों बहनें पहरा देती रहीं,, मां चुपचाप तमाशा देख रही थी, तीसरे दिन बेटी को पग फेरे पर लेने पिता और भाई आये और
विदा कर के ले गये।
उनके जाते ही मान्धाता जी का पारा चढ़ गया, उन्होंने अपना आपा खो दिया,, बेटियों से आहत स्वर में बोले,,, ****। मेरी दोनों बेटियों ने अपनी सारी मर्यादाएं तोड़ दी,, तुम दोनों ने मर्यादा की रेखा को पार कर दिया,,**
एक पिता के साथ कोई ऐसा कर सकता है क्या,,
पत्नी जो अभी तक शांत थी,, चिल्ला कर बोली,,** मर्यादा तो आपने तोड़ी है, मर्यादा का उल्लंघन आपने किया है**,,अपनी मां के कहने पर आपने इतनी बड़ी बेटियों के होते हुए दूसरी शादी की।
जो कुछ आपके साथ हुआ बहुत अच्छा हुआ,, और तीनों उन्हें छोड़ कर अपने कमरे में चले गए।।
घर जाकर बहू ने रो रोकर सब कुछ बताया,,उन लोगों ने दुबारा अपनी बेटी को नहीं भेजा,, गरीब हैं तो क्या हुआ, हमारी भी कोई इज़्ज़त है,तलाक हो गया, लड़की की दूसरी शादी हो गई, एक साल के अंदर उसके बेटा हो गया।
#मर्यादा
सुषमा यादव, प्रतापगढ़, उ, प्र
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित