अस्मिता, वैसे ही दुखी थी। बिन माँ बाप वाली अनाथ जो थी। रिश्तेदारों ने सेना के ऐसे सिपाही से विवाह करवा दिया जो अपना एक हाथ व टाँग युद्ध में गंवा चुका था। अमन को अच्छे खासे मुआवज़े के साथ हर माह पेंशन मिल जाती थी। चाँद सी बेटी तारा के आने से अस्मिता की बगिया महकने लगी थी।
माँ ने अस्मिता नाम बड़े अरमान से रखा था। किन्तु उसके भाग्य में दुख की लकीरें शायद विधाता ने ही खींच दी थी। देवर भुवन की नज़रें सुंदर भाभी पर से हटती नहीं। अवसर पाते ही वह भाभी को छूने का प्रयास करता रहता है। ससुर जी शेखर को बताने की कोशिश करती है तो पलट कर यही सुनने को मिलता, ” बहू ! ऐसा कैसे सोच सकती हो। भुवन तुम्हारे बेटे जैसा है। ” अस्मिता अपने पति से कुछ कह नहीं पाती। अमन यूँ भी अपनी अपंगता के कारण तनाव में रहता है।
एक दिन अमन, भाभी को बाहों में भरने ही वाला था। तभी अमन आकर देख लेता है। वह अस्मिता पर इल्ज़ाम लगा देता है, ” शायद तारा भी मेरी बेटी ना हो। मैं तो अपंग ठहरा। “
लाख समझाने पर भी अमन को अस्मिता पर विश्वास नहीं होता है। वह ट्रेन से कटकर अपनी इहलीला समाप्त कर देता है।
परिस्थिति की मारी नितांत अकेली अस्मिता अपनी बेटी को लिए एक रात घर छोड़ देती है। पति के पेंशन वगैरह के कागज़ात भी ससुर जी के पास थे। जाए तो कहाँ ? उसे याद आती है अपनी दोस्त मृणाल। यूँ तो मृणाल किन्नर थी किन्तु अस्मिता की सह्रदयता व मासूमियत से भलीभाँति परिचित थी। वह जब भी त्योहार आदि पर नेग लेने आती अस्मिता उसका बड़ा मान रखती थी। उसे बिठाकर खिलाती व सबसे छुपाकर उपहार भी देती थी। मृणाल भी उसे अपनी सखी जैसा मानने लगी थी। अस्मिता बिना कुछ सोचे मृणाल के डेरे पर पहुँच जाती है।
मृणाल डेरे पर अपनी साथिनें रूपल व कोमल के साथ अस्मिता का स्वागत करती है, ” बहन ! तुम हमारे साथ रह सकती हो। यहाँ तुम्हारी अस्मिता पर कोई आँच नहीं आएगी। तारा हमारी बेटी समान है। “
मृणाल मौसी के डेरे पर तारा को भरपूर लाड़ दुलार मिलता है। उसे एक अच्छे स्कूल में भर्ती करवा देते हैं। मृणाल के साथ अस्मिता सरकारी दफ़्तर जाकर अमन की पेंशन का मसला भी निपटा लेती है। समाज वालों के सामने ससुर शेखर झूठे इल्जाम लगाते हैं, ” बहू अस्मिता थी ही चरित्रहीन। देवर पर ही डोरें डालने लगी थी। अमन ने इसी गम में आत्महत्या कर ली। और अब देखो, किन्नरों के डेरे पर ही जा बैठी। “
अस्मिता तमाम लफ़डों से दूर बेटी तारा की ज़िंदगी सँवारने में लग जाती है। कुशाग्र बुद्धिवाली तारा का चयन मेडिकल में हो जाता है। माँ अस्मिता और तीनों मौसियों को तो मानो खज़ाना ही मिल गया है।
उधर भुवन, पिता शेखर से उनकी जमा रकम ऐंठकर विदेश चला जाता है। अब शेखर बिस्तर पर हैं। कोई पूछने वाला नहीं है। एक सेवक रामू उनके साथ रहता है।
अस्मिता को ससुरजी की हालत पता चलती है। वह डॉक्टर बेटी तारा को पूरी कहानी सुनाती है, ” बेटी! आख़िर वह तुम्हारे दादा जी हैं। डॉक्टर का फ़र्ज तो सबका इलाज़ करना है। ” सब कुछ जानकर तारा दादा जी की सेवा में लग जाती है। किंतु अपनी पहचान छुपा लेती है।
” रामू काका, बाबा को मैंने दवाइयाँ दे दी है। आप पैरों की मालिश कर याद से गरम दूध पिला देना। ” तारा रोज आकर शेखर जी की सेवा टहल कर जाती है। पड़ोसियों की खुसुर पुसुर शुरू हो जाती, ” पता नहीं यह कौन है ? बहू अस्मिता की अवश्य एक बेटी थी । ” दूसरा बोला, ” हाँ हाँ, लेकिन बहू तो पति की आत्महत्या के बाद बेटी को लेकर कहीं चली गई थी। उसके बाद उनका कभी नाम नहीं लिया किसी ने और ना ही हमने देखा कभी उनको। ”
शेखर जी उचित उपचार से ठीक होकर लोगों को समझने पहचानने लगे हैं। वे रामू से पूछते हैं, ” आखिर कौन आता है रोज मेरी देखभाल करने ? “
” लो साब, वो आ गई, आप ही पूछ लीजिए। “
तारा आते ही पैर छूकर कहती है, ” अरे आज तो आप बैठे हैं। अब कैसा लग रहा है आपको ? “
अचंभित हो शेखर ऊपर से नीचे तक निहारते हुए चिल्ला पड़ते हैं, ” अरे अस्मिता ! तुम,,, तुम तो,,,। ”
तारा बात काटते कहती है, ” मैं अस्मिता नहीं, उनकी बेटी तारा हूँ। भला हो मृणाल मौसी का जिन्होंने मुझे बेटी सा पाल कर डॉक्टर बनाया। अब मैं अपने घर चलती हूँ। ” शेखर जी के पास आँसू बहाने के सिवा कोई चारा नहीं है।
सरला मेहता
इंदौर