एक समय की बात है, एक बूढ़ी माँ और उनका बेटा एक ही घर में रहते थे। बेटा पढ़ाई में बहुत होशियार था, समय के साथ उसने एक अच्छी नौकरी पा ली, शादी हो गई, और जीवन सुख-शांति से बीतने लगा। परंतु समय ने करवट ली, और कुछ वर्षों बाद उसके पिता की अचानक मृत्यु हो गई। इस घटना से बेटा मानसिक रूप से बहुत व्यथित हुआ। हालाँकि माँ का भी मन भीतर से टूट चुका था, पर उन्होंने अपने बेटे और परिवार के लिए खुद को मजबूत बनाए रखा।
समय बीतता गया, और बेटे की व्यस्तता बढ़ने लगी। काम का बोझ और परिवार की ज़िम्मेदारियों के बीच वह अपनी माँ का ध्यान कम ही रख पाता था। अब उसकी माँ वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहीं थीं। उन्हें धीरे-धीरे सहारा देने वाला कोई नहीं था। वह अपने बेटे और बहू के बीच एक अवांछित महसूस करने लगीं, और खुद को अकेला पाने लगीं। बेटा भी मानने लगा कि माँ की देखभाल करने में उसे कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
एक दिन, एक मित्र ने बेटे को सुझाव दिया, “तुम अपनी माँ को वृद्धाश्रम में क्यों नहीं छोड़ देते? वहाँ उनकी देखभाल अच्छे से हो जाएगी। तुम भी अपने जीवन में थोड़ी राहत महसूस कर पाओगे।” कुछ दिनों तक इस विचार के साथ संघर्ष करने के बाद बेटे ने माँ से बात की। उसने माँ से कहा, “माँ, वृद्धाश्रम में आपको सारी सुविधाएँ मिलेंगी और वहाँ आपकी देखभाल भी अच्छे से होगी। मेरे पास समय की कमी है, और मैं आपके प्रति अपने कर्तव्यों को सही से निभा नहीं पा रहा हूँ।”
माँ की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन उन्होंने अपने बेटे का निर्णय स्वीकार कर लिया। उन्होंने सोचा कि शायद उनका बेटा सही कह रहा है। वृद्धाश्रम में रहकर उसे थोड़ा सुकून मिलेगा और वह भी अपने जीवन में व्यस्त रह पाएगा। वह बिना शिकायत के वृद्धाश्रम चली गईं। वृद्धाश्रम में उन्होंने खुद को नए माहौल में ढाल लिया, परंतु मन के किसी कोने में वह अब भी अपने बेटे के साथ रहने की इच्छा रखती थीं। वहाँ के अन्य वृद्धों के साथ समय बिताने लगीं और अपनी तकलीफों को हँसी-खुशी सहने लगीं।
बेटा महीने में एक-दो बार माँ से मिलने आता, लेकिन उसके जीवन की व्यस्तता इतनी अधिक हो गई थी कि वह उन्हें ज्यादा समय नहीं दे पाता था। माँ हर बार उसे मुस्कुराकर मिलतीं, उसकी ज़रूरतों के बारे में पूछतीं और यह दिखातीं कि वह वृद्धाश्रम में खुश हैं। बेटा भी संतुष्ट था कि माँ वहाँ पर सुरक्षित हैं और उनकी देखभाल हो रही है।
वृद्धाश्रम में समय के साथ माँ की तबीयत बिगड़ने लगी। गर्मी के दिनों में वहाँ पंखों का अभाव था, और भोजन को सुरक्षित रखने के लिए कोई फ्रिज भी नहीं था। कई बार माँ को बिना खाए ही सोना पड़ता था, क्योंकि भोजन खराब हो जाता था। उन्होंने इस बात की शिकायत कभी अपने बेटे से नहीं की, क्योंकि वह नहीं चाहती थीं कि बेटे पर कोई और जिम्मेदारी बढ़े।
एक दिन शाम के समय वृद्धाश्रम से बेटे को फोन आया। वहाँ के कर्मचारी ने बताया, “आपकी माँ की तबीयत बहुत खराब है। अगर हो सके तो आप एक बार आकर उनसे मिल लीजिए।” बेटे का मन बेचैन हो उठा। वह तुरंत वृद्धाश्रम पहुँचा और माँ को बहुत ही नाजुक हालत में पाया। माँ के चेहरे पर थकावट साफ झलक रही थी, परंतु उन्होंने बेटे को देखकर हल्की सी मुस्कान दी।
बेटा माँ के पास बैठ गया और धीरे से बोला, “माँ, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ? आपको कुछ चाहिए तो बताइए।” माँ ने उसे प्यार से देखा और कहा, “बेटा, अगर हो सके तो यहाँ वृद्धाश्रम में कुछ पंखे लगवा देना। यहाँ गर्मी बहुत होती है, और कई बार तो रात को सोना भी मुश्किल हो जाता है। साथ ही, एक फ्रिज भी रखवा देना ताकि खाने-पीने की चीजें खराब न हों।”
बेटा यह सुनकर अचंभित रह गया। उसने माँ से पूछा, “माँ, आपको यहाँ आए हुए इतना समय हो गया है, आपने कभी मुझे यह सब क्यों नहीं बताया? क्यों आज इतनी गंभीर हालत में आप यह सब माँग रही हैं?” माँ ने धीरे से कहा, “बेटा, मैंने तो ये सब तकलीफें सह लीं। मुझे इस वृद्धाश्रम में रहने का कोई गिला नहीं है। मैंने गर्मी, भूख, और असुविधा को भी बर्दाश्त कर लिया। लेकिन जब तुम्हारी औलाद तुम्हें यहाँ भेजेगी, तो मुझे डर है कि तुम यह सब सहन नहीं कर पाओगे।”
बेटा माँ की बात सुनकर स्तब्ध रह गया। उसे महसूस हुआ कि उसकी माँ ने उसके लिए कितने बड़े त्याग किए हैं और कितनी कठिनाइयों को सहन किया है, बस इसलिए ताकि उसे कोई तकलीफ न हो। माँ का यह जवाब सुनकर बेटे की आँखों में आँसू आ गए। उसने महसूस किया कि माँ के मन में कितनी गहराई और सच्चाई है। बेटे को अपने निर्णय पर पछतावा होने लगा। उसने समझ लिया कि जिस माँ ने उसकी हर ख़ुशी का ध्यान रखा, उसकी हर ज़रूरत को पूरा किया, उसी माँ को उसने अपने जीवन से दूर कर दिया था।
उस दिन बेटे ने माँ से वादा किया कि वह उन्हें फिर से अपने घर ले जाएगा। उसने माँ का हाथ पकड़ा और उनसे माफी माँगी। माँ ने भी उसे माफ कर दिया, क्योंकि माँ का दिल सदा अपने बच्चों के लिए ही धड़कता है। बेटा अपनी माँ को साथ लेकर घर आ गया। अब वह अपनी माँ की देखभाल करने में पूरी मेहनत करने लगा। उसने अपनी दिनचर्या में माँ के लिए समय निकालना शुरू कर दिया। उसकी माँ अब उसके पास थीं, और उनके चेहरे पर संतोष की एक हल्की सी मुस्कान आ गई थी।
बेटे ने भी अपनी गलती से सीखा कि माँ-बाप हमारे जीवन की सबसे अनमोल संपत्ति होते हैं, और उनकी सेवा करना हमारा परम कर्तव्य है। माँ-बाप की देखभाल करके ही हम उनके दिए हुए प्रेम का कुछ अंश चुका सकते हैं। वृद्धाश्रम में बिताए गए दिनों की याद उसके मन में हमेशा के लिए गहराई से बैठ गई, और उसने यह निर्णय लिया कि वह कभी भी अपनी माँ को अकेला महसूस नहीं होने देगा।
माँ ने अपने बेटे के इस रूपांतरण को देखा और गर्व से मुस्कुराईं। उनकी आँखों में बेटे के प्रति फिर से वही प्यार और विश्वास लौट आया। बेटे को यह एहसास हुआ कि परिवार और रिश्ते पैसों से नहीं बल्कि प्यार और समर्पण से बनाए जाते हैं। उसने महसूस किया कि माँ-बाप की देखभाल करना न केवल उसकी जिम्मेदारी है बल्कि उसका सौभाग्य भी है।
इस घटना के बाद बेटे ने अपनी माँ के प्रति सच्चे प्रेम और आदर को समझा, और हर संभव तरीके से उन्हें सुखी रखने का प्रयास किया। उसका घर अब एक बार फिर सच्चे प्रेम और अपनत्व से भरा हुआ था।