82 वर्षीय विपुल जी अपनी सुबह की दिनचर्या में व्यस्त थे। आज उन्हें खिचड़ी का बहुत मन था। लेकिन सिर्फ खिचड़ी नहीं, बल्कि उस खिचड़ी के साथ ढेर सारी चीजें जो उनकी पत्नी सुनीता बहुत अच्छे से बनाती थीं। वह सुबह जल्दी उठकर रसोई में जाकर बोले, “सुनीता… आज खिचड़ी, दही के बड़े, वो हरी वाली चटनी, लाल वाली भी, देसी घी, और हां पापड़ भी सेंक देना।”
सुनीता जी थोड़ी हैरानी से बोलीं, “ए जी, आप तो ये सब खाते नहीं, बस खिचड़ी ही खाओगे दूध से। हम दो जन… फिर काहे इतना कुछ बनवा रहे हैं?” उनकी आँखों में हल्की झिझक थी क्योंकि विपुल जी का मन इन सबका खाने में तो नहीं होता था, लेकिन फिर भी उनकी इच्छा जानने के लिए सुनीता ने यह सवाल किया।
विपुल जी हल्की मुस्कान के साथ बोले, “वो ना सुनीता… अपने विशु को बहुत पसंद है ये सब। कैसे चटकारे ले लेकर खाता है यह सब।” उनकी आँखों में अपने पोते के लिए एक गहरा स्नेह था।
सुनीता जी भी यह सुनकर भावुक हो गईं। बोलीं, “हाँ, वो तो है। विशु को हमारे हाथ का खाना बहुत पसंद है। बस तुम्हारी बहू… उसके साथ इतने पाबंदियाँ लगाकर रखी है कि हमें अपने पोते से मिलने का मौका ही नहीं देती।”
विपुल जी गहरी सांस लेते हुए बोले, “हां, यह तो है। जब से उसकी मर्जी से अलग हुई है, विशु को हमारे पास भटकने तक नहीं देती। जैसे हमारे पास आकर उसे कुछ हो जाएगा।” उनकी आवाज में एक टीस थी।
सुनीता जी ने झुंझलाते हुए कहा, “तो क्या हुआ? विशु तो आ ही जाता है चोरी से। हमारे से मिलने की चाह तो उसे है ही।” उन्होंने खुद को संभाला और मुस्कुराते हुए बोलीं, “तू जा, बना जाके ये सब। मुझे कुछ नहीं सुनना। विशु के लिए सब कुछ बनाकर ही मानूँगी।”
सुनीता जी रसोई में चली गईं और विपुल जी बाहर आकर अपने पोते का इंतजार करने लगे। सुनीता जी ने प्रेमपूर्वक खिचड़ी बनाई, साथ में दही के बड़े, हरी और लाल चटनी, घी में तले पापड़ भी सेंक दिए। उन्होंने दिल से हर व्यंजन को तैयार किया, क्योंकि यह उनके पोते विशु की पसंद का था। उनके मन में बस यही विचार था कि जब विशु सब खाएगा तो कितना खुश होगा।
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कुछ देर बाद, सुनीता जी ने विपुल जी को आवाज़ दी, “लो बन गया जी… अब आप ही खाओ।” विपुल जी ने पोते को आवाज लगाई, “ए रे विशु… यहां आ जरा…।” लेकिन इससे पहले कि विशु कुछ कह पाता, उनकी बहू ने कड़े स्वर में जवाब दिया, “वो खाना खा रहा है… नहीं आएगा।”
विशु अपनी माँ के पास बैठा था और किसी बहाने की तलाश में था। पेट दर्द का बहाना बनाते हुए बोला, “मम्मा… पेट दर्द है… कुछ नहीं खाना मुझे।”
माँ ने उसकी बात अनसुनी करते हुए थोड़ी चिंता से कहा, “थोड़ा सा तो खा ले बेटा।” लेकिन विशु तुरंत ही बोला, “नहीं मम्मा, उल्टी हो जाएगी… क्या यहीं कर दूं?”
विशु की माँ को गुस्सा आ गया। वह गुस्से में सब उठाकर रसोई में ले गईं। उधर, जैसे ही मौका मिला, विशु चुपके से अपनी माँ की नजर बचाते हुए अपने दादी-बाबा के घर की ओर भाग गया। विपुल जी ने जैसे ही अपने पोते को देखा, उनकी आंखों में चमक आ गई। उन्होंने तुरंत थाली उसकी ओर खिसका दी और बोले, “ले बेटा, यह सब तेरे लिए ही तो बनाया है।”
विशु ने थाली में रखा खाना देखा और खुश होकर बोला, “वाह बाबा… दादी तो बहुत टेस्टी बनाती हैं। मजा आ गया। दादी, और देना ये दही का बड़ा…।”
सुनीता जी की आंखों में ममता और स्नेह झलक उठा। उन्होंने हँसते हुए और बड़े उसके थाली में डाल दिए और प्यार से कहा, “ले, जितना दिल चाहे खा। हमने सब तेरे लिए ही बनाया है।”
विशु ने मन भर के खिचड़ी खाई, और हर कौर को ऐसे खाया जैसे यह उसके लिए सबसे स्वादिष्ट चीज हो। विपुल जी ने सुनीता जी की तरफ देखकर मुस्कुराते हुए कहा, “देखा, कह रही थी ना कि नहीं आएगा? देखो, कैसे मन से खा रहा है।”
उधर विशु के पापा ने अपनी पत्नी को बाहर लाकर कहा, “देखो, पेट दर्द का बहाना करके गया था, और वहां जाकर दबा के खा रहा है। तुम कितना भी कोशिश कर लो, विशु को माँ-पापा से अलग नहीं कर सकती। कहा था कि अलग मत हो, अब भुगतो। तुम्हारे ही कारण विशु हमसे दूर होता जा रहा है।”
उनकी पत्नी की आँखों में आँसू आ गए थे। उन्हें महसूस हुआ कि उनका फैसला उनकी ही दुनिया को बांधने के बजाय उनके अपनों से दूर कर रहा था।
मौलिक रचना
मीनाक्षी सिंह