मेरी बेटी मेरा गुरूर – गीता वाधवानी : Moral Stories in Hindi

प्रदीप जी तैयार होकर ऑफिस के लिए निकलने ही वाले थे कि तभी उनका दोस्त रजत अचानक उनसे मिलने आ गया। उसे देखकर प्रदीप जी खुश हो गए और अपनी पत्नी रमा से बोले-“रमा, जल्दी से दो कप कॉफी बना

दो।”तभी रजत जी बोले -“प्रदीप, मैं तो वैसे ही मिलने चला आया था, कॉफी के चक्कर में तू लेट हो जाएगा।” 

प्रदीप-“अरे यार, नहीं होता मैं लेट, ऑफिस कौन सा ज्यादा दूर है, पहुंच जाऊंगा समय पर, आ बैठ कॉफी पीते हैं। बता, भाभी जी की तबीयत कैसी है?” 

रजत-“क्या बताऊं यार, डॉक्टर की फीस, सारे  टैस्ट, दवाइयां सब कुछ महंगा है। जैसे तैसे पूर्ति कर रहा हूं। तुझे तो पता ही है कि मेरे बेटे अमन की दुकान कुछ खास नहीं चल रही, उससे क्या कहूं, वह तो खुद परेशान है।” 

रमा कॉफी ले आई थी। कॉफी पीकर रजत जी चले गए और प्रदीप भी ऑफिस चला गया। 

इन दोनों की दोस्ती लड़कपन से बहुत गहरी थी। उम्र में बस इतना ही फर्कथा कि रजत जी रिटायर हो चुके थे और प्रदीप जी रिटायर होनेवाले थे। 

प्रदीप जी और रमा की दो बेटीयां, श्रुति और आरती थी। रजत जी का एक ही बेटा अमन था। रजत की पत्नी सुधा बहुत बीमार थी और इस समय अस्पताल में एडमिट थीं। 

प्रदीपजी की बड़ी बेटी श्रुति इंजीनियरिंग कर रही थी और छोटी आरती भारतीय सेना में जाना चाहती थी। प्रदीप जी दोनों बेटियों को मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग करवा रहे थे। श्रुति ब्लैकबेल्ट हासिल करचुकी थी। प्रदीप जी का

मानना था कि आत्मरक्षा के लिए लड़कियों को मार्शल आर्ट, जूडो-कराटे कुछ ना कुछ जरूर सीखना चाहिए। 

प्रदीप जी ऑफिस में यही सोचते रहे कि ऐसी सुबह-सुबह अचानक रजत बेवजह तो आया नहीं होगा और उन्हें यह महसूस हो रहा था कि वह कुछ कहने आया था पर झिझक कर शायद कह नहीं पाया। शाम को घर पहुंच

कर उन्होंने अपनी पत्नी से बात की तो उसने कहा कि शायद भाई साहब को कुछ पैसोंकी ज़रूरत हो। उन्हेंभी यही लग रहा था। उन्होंने सोचा कि कल सुबह होते ही बैंक से 20000 कैश निकालकर रजत के हाथ में रख

दूंगा। रजत ऑनलाइन बैंकिंग का इस्तेमाल नहीं करता, इसीलिए कैश ही देना पड़ेगा। 

अगले दिन सुबह उन्होंने श्रुति से कहा-“बेटा ,मैं बैंक जा रहा हूं कुछ पैसे निकालने हैं।” 

श्रुति-“पापा, मैं भी साथ चलतीहूं, पासबुक अपडेट करवा लूंगी।” 

प्रदीप-“हां हां चलो, एक से भले दो।” 

दोनों बैंक जा पहुंचे। प्रदीप नेअपने खाते में से ₹20000 निकाले। तब श्रुति का ध्यान अपने पापा के आसपास मंडराते हुए एक लड़के पर पड़ी। श्रुति तुरंत अपने पापा के पास जाकर खड़ीहो गई। प्रदीप ने पैसे एक छोटे बैग

में रख लिए और श्रुति ने पासबुक अपडेट करवा ली और दोनों बैंक से निकलकर सड़क पर आ गए। श्रुति ने देखा कि स्कूटर पर दो लड़के कुछ दूरी बनाते हुए उनके पीछे आ रहे हैं, उनमें से एक लड़का वही था जो बैंक में

था। श्रुति समझ गई कि इसने अपने साथी को रूपयों के बारे में जानकारी दी होगी और यह लोग पैसे छिनने की फिराक में है। श्रुति ने तुरंत सड़क के किनारे पड़ी एक पतली मजबूत लकड़ी उठा ली और अपना हाथ पीछे

कर लिया। श्रुति ने पापा से कहा-“पापा, चलो रिक्शा कर लेते हैं।” 

पापा-“अरे बेटी, पासमें ही तो घर है। चल पैदल चलते हैं, पैदल चलना अच्छा होता है।” 

श्रुति किसी रिक्शा वाले को रोकती, तब तक वे दो लड़के स्कूटर पर बिल्कुल उनके पास पहुंच चुके थे और प्रदीप के बैग की तरफ हाथ बड़ा रहे थे, तभी श्रुति ने उनके स्कूटर के पहिए में लकड़ी अड़ा दी और दोनों स्कूटर

समेत गिर पड़े। फिर श्रुति ने दोनों को अपनी सीखी हुई मार्शल आर्ट का जबरदस्त जलवा दिखाया और दोनों को अच्छी तरह धो डाला। उसकी हिम्मत देखकर आसपास जा रहे लोगों को भी जोश आ गया और उन्होंने दोनों

गुंडो को पकड़कर, पुलिस स्टेशन पहुंच दिया। पूरी बात पता लगने पर इंस्पेक्टर ने श्रुति की बहुत तारीफ की। तब श्रुति के पापा ने कहा -“मेरी बेटी, मेरा गुरूर हैं।” 

फिर वे लोग घर पहुंचे। रमा को जब बात पता लगी तो उसे भी श्रुति पर बहुत गर्व हुआ। प्रदीप और रमा पैसे लेकर रजत की पत्नी सुधा से मिलने अस्पताल गए। वहां प्रदीप ने रजत के हाथ में पैसे रखते हुए कहा-“रख ले यार, जरूरत होगी तुझे।” 

रजत की आंखों में आंसू आ गए। हालांकि उसे पैसों की जरूरत थी, फिर भी उसने पैसे लेने से इनकार किया। प्रदीप के बहुत कहने पर उसने इस शर्त पर पैसे लिए कि जब भी उसके पास पैसे होंगे, वह प्रदीप को पैसे लौटा

देगा, अभी उधार ले रहा है। प्रदीप ने उसकी बात मान ली और दोनों दोस्त गले लग गए। थोड़े दिनों बाद सुधा जी ठीक होकर घर आ गई और रजत थोड़े-थोड़े पैसे जमा करने लगा ताकि प्रदीप को पैसे लौटा सके। उसे

अपने दोस्त और अपनी दोस्ती पर गुरुर था। 

स्वरचित अप्रकाशित, गीता वाधवानी दिल्ली 

#गुरूर

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