घमण्ड –  अरुण कुमार अविनाश

” ये वाशिंग मशीन मेरे मायके का है।”– नीरजा के स्वर में अहंकार का पुट था।

” चाची, ये क्या बोल रहीं हो आप!” – नीलू घबरा कर बोली।

” सही कह रही हूँ। जिसे देखो वही मेरी चीजें इस्तेमाल कर रहा है। वो भी बेतुके अंदाज़ में । अगर चीज़ बिगड़ जाये तो कोई स्वीकार भी नहीं करता कि उसकी गलती से चीज़ खराब हुई है।”– नीरजा कटु स्वर में बोली।

नीलू जो वाशिंग मशीन में कपड़े डाल रही थी। चुपचाप उसमें से कपड़े निकालने लगी।

नीलू पटना के एक रेजिडेंशियल स्कूल में कक्षा आठवीं की छात्रा थी। 

हर शनिवार की शाम – वह कभी स्वयं तो कभी चाचा या भाई के साथ – पटना से जहानाबाद आ जाती थी और रविवार शाम की शटल ट्रेन पकड़ कर , वापस पटना लौट जाती थी।

पटना से जहानाबाद आने में दो फायदे थे । सप्ताह भर के गंदे कपड़े – घर पर धूल कर प्रेस हो जाते थे और वापसी में माँ इतना सूखा नाश्ता दे देती थी कि नीलू को बाजार की चीजें खाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। वह या तो मेस का खाना खाती थी या माँ का दिया नाश्ता। इस तरह , पूरा सप्ताह आराम से निकल जाता था।

नीलू के पिता नंदकिशोर मखदुमपुर ब्लॉक में लिपिक के पद पर कार्यरत थे। मखदुमपुर जहानाबाद से लगभग बीस किलोमीटर दूर था। जहाँ वे रोज बस से आते-जाते थे।

नीलू का बड़ा भाई अभय था जो पटना साइंस कॉलेज में इंटरमीडिएट का छात्र था ।

चाचा केशव सिंह पटना सचिवालय में सहायक के पद पर कार्यरत थे।

संयुक्त परिवार था । सभी साथ रहते थे। इसलिए तेरा-मेरा का कोई भाव नहीं था। जो चीज घर में था – वह सबका था।सभी इस्तेमाल कर सकतें थे –करते थे। 

पिछले सप्ताह भी नीलू ने इसी वाशिंग मशीन में कपड़े धोए थे। तब तो चाची ने मना नहीं किया था।

नीलू चौदह साल की थी, पर इतनी समझदार तो थी ही कि व्यवहार में फर्क समझ पाती। वह वाशिंग मशीन से कपड़े वापस निकाल कर – बाल्टी में डाली और किचन में उसके लिए नाश्ता बना रही अपनी माँ के पास पहुँची। 

” माँ, चाची को क्या हो गया है ?”– नीलू रुआंसे स्वर में बोली।

” क्या हुआ !” 



नीलू ने दबी जबान में सारा किस्सा बयान कर दिया।

 प्रभादेवी सकते में आ गयी – मगर, बेटी के सामने संयम बरतना ही उचित समझ कर बोली – “तुम बाल्टी में कपड़े गला दो।  मैं गुजिया तलने के बाद – तुम्हारे कपड़े धो दूंगी।”

” प – प – पर माँ !” 

“न – न – रोना नहीं , वाशिंग मशीन में वाकई कोई दिक्कत होगी – तुम जाकर अपने स्कूल का होमवर्क वगैरह देखों – मैं तुम्हारा सभी काम कर दूंगी ।” 

प्रभा देवी ने नीलू को उसके कमरे में भेज तो दिया था पर, अब वह खुद ही ख्यालों की दुनियां में विचरने लगी थी ।

चार दिन पहले ही – अभय ने जब चाचा की बुलेट की चाबी मांगी थी – तब भी नीरजा ने ऐसा ही कटु वचन बोला था। 

“यह बुलेट तुम्हारे चाचा की नहीं है – मेरे दहेज में आयी है।”

जिस मकान में पूरा परिवार रह रहा था – वह स्वर्गीय ससुर कामता प्रसाद सिंह जी ने बनवाया था। 

पन्द्रह सौ स्क्वायर फुट में बना दो मंजिला मकान – इस तरह से बना हुआ था कि महज दो दरवाज़े बन्द कर देने से घर दो भाग में विभक्त हो जाता । एक मकान दो मकान हो जातें। दो परिवार राजी-खुशी प्राइवेसी से रह सकते थे ।

ससुर जी ने जब मकान बनवाया था – तभी , उनके मन में यह ख्याल था कि दोनों बेटे – जब बंटवारा चाहेंगे तो बिना तोड़-फोड़ के – आसानी से – घर दो भाग में बट जाता।

केशव और नीरजा की शादी हुए पांच साल होने वाले थे। एक तीन साल का छोटा बेटा भी था। नीरजा चाहती थी कि वह केशव के साथ पटना में रहे और अपने प्यारे बेटे को पटना के – किसी बहुत ही अच्छे स्कूल में पढ़ायें – पर, केशव जहानाबाद छोड़ना नहीं चाहता था। कुछ तो उसे घर परिवार दोस्त रिश्तेदार अजीज थे । और कुछ , वह वास्तविकता से परिचित था। 

जहानाबाद में रहना खाना सब कुछ सस्ता था । पटना जाते ही सबसे पहले किराये पर मकान लेना पड़ता । हर साल मकान बदलने पड़ते । परिवारिक सुरक्षा के माहौल से निकलते ही दूसरी और समस्याएं उत्पन्न होती। बड़े शहर का बड़ा खर्च और फिर बच्चा अभी तीन साल का ही तो हुआ था। ऐसे में अनावश्यक खर्च बढ़ाना उसे उचित नहीं लगता था । नीरजा का पटना के प्रति लगाव का एक कारण यह भी था कि उसका मायका पटना में था और उसके मायके वाले भी चाहते थे कि वह पटना में रहे। केशव को ससुराल के पास रहना भी ससुराल में रहने के समान लगता था। घर-जमाई बनने वाली मनःस्थिति में वह आना नहीं चाहता था। इसलिए वह मकान का किराया जैसे गैर जरूरी खर्च गिनवा कर नीरजा को टाल रहा था। 

पिछले दो महीने से नीरजा ने एक अलग राग अलापना शुरू कर दिया था। 

दरअसल शादी से पहले उसने पटना में रहते समय ब्यूटीशियन का कोर्स किया हुआ था । प्रशिक्षण के दौरान सभी उसके काम की तारीफ करते थे और उसे भी लगता था कि वह एक बेहतरीन ब्यूटीशियन बन सकती है। पटना के अपेक्षाकृत जहानाबाद में – ब्यूटीशियन हेतु – ज्यादा संभावना नहीं थी।  इसलिए खुद कमाऊँगी – मैं आत्मनिर्भर बनूंगी – मैं अपने खुद के पैरों पर खड़ा होऊँगी – मैं स्वाबलंबी बनूंगी – जैसे विचार उसके मन को कचोटते थे। माँ और बहन से भी जब इस सिलसिले में कभी बात होती तो वे भी नीरजा को पटना में रहने के लिये उकसाती रहती थी।

एक तरह से खुद के बारे में सोचना – अतिरिक्त आय का साधन ढूंढना – गलत भी नहीं था। पर , जब वह पति को कॉन्विंश न कर सकी – उसे पटना में रहने के लिए तैयार न कर सकी तो एक अलग जिद ठान बैठी थी – कहती थी–. “क्यों न घर के फ्रंट हिस्से में – वह ब्यूटीशियन का काम करें। कुछ विज्ञापन के बोर्ड बनवा कर बिजली के खंभों पर या पेड़ पर लगवा दिया जायें।  एक बार काम चल गया तो वह जहानाबाद में भी तरक्की कर सकती है। केशव इसके लिए भी तैयार नहीं हुआ था। उसकी कस्बायी सोच – उसे पत्नी से काम करवाने की इजाजत नहीं देता था। वैसे भी, वह सचिवालय में इतना कमा लेता था कि उसे छोटी-मोटी आमदनी से कोई फर्क नहीं पड़ता था। आखिर , इसी नौकरी और आय के कारण ही तो ससुराल वालों ने मोटा दहेज देकर – उससे अपनी बेटी का ब्याह करवाया था।



रात हुई।

भोजन के उपरांत घर का हर सदस्य बिस्तर के हवाले था।

छुरी जब तरबूज पर चलती है तो – छुरी को बहुत देर तक ध्यान नहीं रहता कि वह तरबूज के कितने अंदर तक – सैर कर के आयी है। ये तो तरबूज को मालूम होता है कि छुरी ने उसे कितना अंदर तक काटा है – उसका मर्म तक घायल कर दिया है।

नीरजा को तो ख्याल भी न था कि आज उसने क्या से क्या कर दिया है। बल्कि, वह तो खुश हो रही थी कि उसने अपने मायके से आयी चीज पर अपना नियंत्रण कर लिया है। पर , प्रभादेवी अंदर तक घायल थी। सास-ससुर की मृत्यु सिर्फ छह माह के अंतराल पर हो गई थी। पहले सास की मृत्यु हुई थी फिर ससुर भी देव लोक गमन कर गये थे। 

ससुर की मृत्यु के समय केशव सिर्फ पन्द्रह साल का था।

अवयस्क ! 

लाचार ! 

अभी वह दसवीं भी पास नहीं किया था।

प्रभादेवी ने केशव के लिए वह सब कुछ किया जो सास जीवित होती तो वह करती।  भोजन , कपड़े , शिक्षा यहाँ तक की शौक भी। किसी चीज में कमी नहीं की। नंदकिशोर जी ने कभी सोचा ही नहीं कि बेटे या छोटे भाई में क्या फर्क होता है। दोनों भाइयों में दस वर्ष की आयु का अंतर था । जब केशव स्कूल जाना शुरू किया था – तब नंदकिशोर हाई स्कूल में थे । जब केशव हाई स्कूल में पहूँचा तब नंदकिशोर कॉलेज पास आउट हो रहे थे । जब पिता की मृत्यु हुई नंदकिशोर जी नौकरी करने लगे थे। केशव को भी बड़े भाई से इतना लगाव था कि  जब किसी चीज की जरूरत हो तो – वह पिता के बजाए – बड़े भाई से अपेक्षा रखता था। नंदकिशोर जी ने भी छोटे भाई के किसी भी अभिलाषा को पूर्ण करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा था।

नंदकिशोर जी ने तकिए से सिर टिकाया ही था कि प्रभादेवी बोल पड़ी  – ” मैं कुछ जरूरी बात करना चाहती हूँ।” 

“क्या?”

“कल मुझें किसी भी कीमत पर वाशिंग मशीन चाहिए।”

 “है तो घर में।”

“वह हमारा नहीं है। वह नीरजा का है। उसके मायके से मिला है। उसके दहेज का सामान है ।” – और फिर, प्रभादेवी शाम की घटना – इससे पहले बुलेट मोटरसाइकिल की घटना तथा कई अन्य घटनाओं का उल्लेख विस्तार से करने लगी। अंत में बोली –” बुलेट के लिए तो मैं कुछ नहीं कहती पर वाशिंग मशीन बहुत जरूरी चीज है । उसके बिना घर में गुजारा नहीं चल सकता। आज-कल हाथ से कपड़े धोने की आदत भी छूट चुकी है और नीरजा के टोकने के बावजूद उसके दहेज़ का वाशिंग मशीन का इस्तेमाल अगर मैं करुँ तो घर में कलह पैदा करने का काम होगा।” 

“आखिर, ये घुन मेरे घर में भी लग ही गया।” –नंदकिशोर जी ने गहरी सांस ले कर कहा ।

अगली सुबह।

रविवार का दिन होने के कारण घर में हर रोज की तरह भागदौड़ नहीं थी। सभी आराम से उठे और दैनिक क्रियाओं के पश्चात नाश्ते के लिए बैठे – ननद किशोर जी केशव अभय नीलू और केशव का बेटा गोलू। नीरजा किचन में गर्म गर्म पूरियां निकाल रही थी और प्रभादेवी परोसने का काम कर रही थी । नंदकिशोर रात से ही परेशान थे। उनका रक्तचाप बढ़ा हुआ था । रात को दिमाग में मंडरा रहे विचारों ने उन्हें सोने नहीं दिया था। नाश्ता भी वह बेमन से ही कर रहे थे। नाश्ते के बाद उन्होंने केशव को अपने कमरे में बुलाया। बोलें –” बहुत जरूरी काम है जल्दी आओ।”

“जी भईया।”

” कंकड़बाग वाली जमीन की जो बातचीत चल रही थी उसका क्या हुआ ?” – दरअसल पटना के कंकड़बाग के इलाके में केशव को एक प्लाट पसंद आ गया था। जमीन मालिक एक करोड़ रुपए मांग रहा था। दोनों भाइयों ने तय किया था कि कुछ बचत से – कुछ गांव की जमीन बेचकर – कुछ लोन लेकर – दोनों भाई उस जमीन को खरीद लेंगे। पर, अभी तक  सौदा तय नहीं हो पाया था। 

“भईया नब्बे प्रतिशत बात तय हो गई है। मैं चाह रहा हूँ कि दबाव बनाकर रेट थोड़ा कम करवाया जायें पर अभी वह मान नहीं रहा है। एक दो लोगों से – जो मेरे जान पहचान के हैं – उनसे भी दबाव बनाने के लिए कहा है। अगर बात बन गई तो दस लाख तक का फायदा हो जायेगा।”

“मेरे हिसाब से इस सौदे को ड्रॉप कर दो।”

“जी! क्यों?” – केशव हैरानी मिश्रित स्वर में बोला।

” इसलिए क्योंकि, वह करोड रुपए से ऊपर का काम है। उसमें अगर मैंने इन्वेस्ट किया तो बच्चों के कैरियर पर ध्यान नहीं दे पाऊँगा। नीलू भी चौदह साल की हो गयी है। चार-पांच साल के बाद उसकी शादी भी करनी होगी। अभय भी अगर कोई एंट्रेंस एग्जाम क्रेक कर दिया तो उसके लिए भी इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन और पढ़ाई का खर्चा होगा।”

“वह सब मिलजुल कर हमलोग कर लेंगे न।” – केशव बोला ।

“ऐसा नहीं होता – अपनी अर्थी अपने काँधें।  मैं मेरे स्वार्थ के लिए आप लोगों को यूज नहीं कर सकता। वैसे भी, पटना में इन्वेस्टमेंट मेरी चॉइस नहीं है । अगर आप वह जमीन खुद अकेले लेना चाहें तो ले सकते है। यह मेरे लिए संभव नहीं है।”

 “प – प – प – पर पहले तो !”

“पहले घर के हालात अलग थे। पहले घर का हर चीज – हर किसी का था – सबका था। जब घर में तेरा- मेरा का भाव आता है तो, सबको मेरा-मेरा ही दिखने लगता है । और हाँ,  एक बात और कहना चाहता हूँ।”

” क्या ?” – अवाक केशव के मुँह से निकला।

“माँ-बाबूजी की मृत्यु के बाद – बड़ा भाई होने के नाते – मेरा आपके लिए – घर के लिए – जो भी कर्तव्य था।  मुझें लगता है मैंने बड़ी ही ईमानदारी से उसका निर्वहन किया था। आज आपके पास मुझ से अच्छी – बल्कि कहना चाहिए कि बहुत अच्छी नौकरी है। आपकी शादी भी हो गई है। आपका घर संसार बस चुका है। इसलिए , अब वक्त आ गया है कि आप लोग मुझें दायित्व भार से मुक्त करें । और दोनों भाई वृक्ष की अलग-अलग शाखाओं की तरह – अपना अलग-अलग विकास करें – विस्तार करें।” 

“भईया, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि, आप कहना क्या चाहतें हैं।”

“इससे पहले कि तेरा-मेरा के भाव से – घर का माहौल खराब हो – रिश्तों में तल्ख़ियां घुले – भाइयों में द्वेष या विषाद हो – हमें सौहार्दपूर्ण वातावरण में घर का बंटवारा कर लेना चाहियें।

केशव जैसे जमीन पर गिरा हो।

“हमें किसी पंच , पंचायत या रिश्तेदारों को बीच में लाने की ज़रूरत नहीं है। कोई गवाह कोई मुंसिफ की भी ज़रूरत नहीं है। नीरजा से बोलिये कि जो चीज़ उसके मायके से आयी थी – जो चीजें आप खरीद कर लायें थे– उन्हें अलग कर ले। बंटवारा सिर्फ उन चीजों का होगा जो माँ-बाबूजी ने अपनी मृत्यु से पहले छोड़ा था।”



“और मेरे मायके से जो आया था उसका क्या?”– प्रभादेवी जो दरवाजे की आड़ से सब सुन रही थी – दखल अंदाज हुई। 

नंदकिशोर जी की आँखें धधक उठी। क्रूर भाव से उन्होंने पत्नी की ओर देखा –  होंठो से जैसे पुफ़कार निकली हो – तुम्हें बीच में बोलने के लिए किसने कहा ।

प्रभा देवी सहम गयी। 

“जाओ यहाँ से – और बिना अनुमति भाइयों के बीच बोलने से पहले हजार बार सोचना।”

प्रभादेवी उनकी आँखों के सामने से ओझल हो गयी।

नंदकिशोर जी थोड़ी देर तक विचलित से रहे फिर बोले –” अगले शनिवार तक आप लोगों को क्या चाहिए तय कर लीजिएगा और सुविधानुसार अपने हिस्से में रख लीजियेंगा । हाँ तब तक यानि , अगले शनिवार तक खाना सामूहिक बनेगा। इस बीच जो चीज जिसे खरीदनी हो – व्यवस्था करनी हो – कर ले ।”

केशव जो नीरजा की करतूतों से अनभिज्ञ था उसके लिए हर चीज अप्रत्याशित थी। वह बड़े भाई से निवेदन करता रहा – मान मनुहार करता रहा – अपनी गलती पूछता रहा – उन भूलों के लिए भी माफी मांगता रहा– जो उसे मालूम भी नहीं था । परंतु , नंदकिशोर जी का स्पष्ट मत था कि – एक न एक दिन जब बंटवारा होना ही है तो किसी और दिन का इंतजार क्यों ? आज मन मार कर समझौता कर भी लिया गया। तो यह समझौता कितने दिनों तक कायम रहेगा? नीरजा कब तक बर्दाश्त करेगी ? फिर, किसी दिन उसके मन में कुछ और आयेंगा – फिर कलह होगा – इसलिए बेहतर यह था कि जो होना है इसी बार हो जायें।

उस दिन घर में कई काम हुए। केशव ने कठोरता पूर्वक नीरजा से जवाब तलबी की तो बुलेट और वाशिंग मशीन वाली बात भी सामनें आयी। केशव सिर पकड़ कर बैठ गया । बोला –”तुम्हें वाशिंग मशीन का इस्तेमाल दिखा – पर यह नहीं सोच पायी कि प्रभा भाभी ने सालों मेरे कपड़े अपने हाथों से धोए हैं । वर्षों तक मुझें खाना पका-पका कर खिलाया था और आज तुम्हें बुलेट की पड़ी है – अरे मोटर सायकिल चलाना भी मैं भईया की बाइक से ही सीखा था ।”

नीरजा पति के डॉट खाकर भी खुश थी । उसका घमंड उसे संयुक्त परिवार के लाभ को समझनें ही नहीं दे रहा था। वह तो बंटवारे को अपनी सफलता समझ रही थी। उसका पति कमाता ज्यादा था। उन लोगों पर अभी जिम्मेवारी भी कम थी। अब वह पति को पटना शिफ्ट करने के लिए उकसा सकती थी । अगर केशव अब भी नहीं मानता तो वह जहानाबाद में हीं – घर के अगले हिस्से में – ब्यूटी पार्लर खोल सकती थी।

उसी शाम,  प्रभादेवी एक वाशिंग मशीन और एक मिक्सर ग्राइंडर खरीद कर घर ले आयी थी।

नंदकिशोर जी ने अपना फैसला सुना तो दिया था। पर, सबसे ज्यादा व्यथित केशव था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें ? माता-पिता की मृत्यु के बाद , बड़े भाई-भाभी ने उसे जिस तरह से रखा था – पाला था – वह उसे कभी भुलाया न गया । बड़े भाई की मदद के बिना वह अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकता था। पटना के कोचिंग संस्थान में एडमिशन नहीं ले सकता था। यहाँ तक कि प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आवेदन भी नहीं कर पाता। जो भी व्यक्ति उन्हें या उनके परिवार को जानता था – हर कोई केशव को ही दोषी ठहराता – एहसान फरामोश समझता । इसलिए केशव ने तय किया कि जहानाबाद में रहकर बंटवारे की तोहमत झेलने से अच्छा है कि वह पटना ही कूच कर जायें। फिर वह समाज में कह सकता था की प्रतिदिन के अप-डाउन से उसे परेशानी हो रही थी। इसलिए उसने पटना में ही रहने का निर्णय लिया है। अब एक ही घर में दो रसोई होने का कलंक भी नहीं लगना था।

 सात के बजाय पांचवे दिन ही केशव ने जहानाबाद छोड़ दिया।

 मकान दिलवाने में सालों ने व्यापक भूमिका निभाई थी। किराए का घर ससुराल के पास ही था। मन से वह बहुत आहत था। इसलिए बंटवारे के लिए भी वह नंदकिशोर जी को ही उत्तरदायी समझता था । जो औरतों की बातों पर आकर घर का बंटवारा कर रहे थे ।

नीरजा ऊपर से दुखी होने का अभिनय कर रही थी। परंतु , उसका अंतर्मन प्रफुलित था। अंदर ही अंदर वह बहुत खुश थी । काश! यही काम पहले हो गया होता – तो, अब तक वह पटना में सेटल हो गई होती। उसका ब्यूटी पार्लर भी मशहूर हो चुका होता।

महज़ पन्द्रह दिन के अंदर ही नीरजा का भ्रम टूटा। माँ और बहन – जो अक्सर उसे पटना में सेटल होने के लिए उकसाती थी। अब नीरजा को उनसे अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा था । वह ब्यूटी पार्लर क्या चलाती – गोलू को पालना भी भारी पड़ रहा था। जहानाबाद में गोलू हमेशा प्रभादेवी से चिपका रहता था। कई बार तो रात में भी प्रभादेवी के साथ चिपक कर सो जाता था। यहाँ पटना में अभी भी घर सुसज्जित नहीं हुआ था। ठीक है , उसे दहेज में बहुत सारा सामान मिला था – परंतु, छोटी-मोटी बहुत सी चीजें अभी खरीदनी पड़ रही थी – जुटानी पड़ रही थी। भले ही किराए का मकान था – पर पर्दे तो खुद के लिए लगाना ही पड़ता है। कुछ फर्नीचर भी लेने पड़े – गैस स्टोव और गैस कनेक्शन जैसी चीजें भी जुटानी पड़ी थी। नासमझ गोलू को अभी तक समझ नहीं आया था कि घर में हुआ क्या है ? वह अक्सर बड़ी मम्मी – बड़ी मम्मी की पुकार लगाता हुआ प्रभादेवी को अपने घर में ढूंढता था ।

केशव पहले नीरजा से नाराज हुआ फिर बड़े भाई के प्रति नाराजगी बढ़ती गई। क्यों ? औरतों के विवाद के कारण उन्होंने आज्ञाकारी भाई की अवहेलना की। नाराजगी पहले क्रोध में – फिर प्रचंड आक्रोश में बदल गया । बाद में तो उसे भाई की हर डॉट-फटकार भी – जिसका अब कोई औचित्य ना था – बुरे संस्मरण की तरह याद आने लगा – जिस भाई ने उंगली पकड़कर चलना सिखाया था – पहली बार स्कूल लेकर गया था – कॉलेज में एडमिशन दिलाया था – बिना सोचे-विचारे शिक्षा पर भरपुर खर्च किया था – पल- पल आलंबन बना था – सहारा दिया था – अब वही आँखों में खटकना शुरू हो गया।

दो माह तक जहानाबाद वाला मकान का खाली रहा था। केशव का इरादा भी नहीं था कि वह उसे किराए पर चढ़ाएं पर जब पटना में प्रतिमाह ₹ सोलह हजार किराया देना पड़ा तो उसने मन मार कर जहानाबाद वाले मकान के अपने पोर्शन में दो किराएदार रख लिए । जिनसे उसे प्रतिमाह बारह हजार रुपये किराए के मिल जाते थे। बाद में किराएदारों के मिसबिहेव की शिकायत – जब नंदकिशोर जी ने केशव से की – तो नाराज केशव भड़क उठा था – ” आपको तो सभी से तकलीफ है । पहले मुझसे हुआ। अब मेरे किरायेदारों से भी तकलीफ होने लगी। जरा-जरा सी बात का बतंगड़ बनने लगा । रिश्तें शत्रुता में बदलते चले गयें।

कुछ और समय गुज़रा। गोलू स्कूल जाने लगा तो नीरजा के अंदर का ब्यूटीशियन एक बार फिर जागा। पर जल्दी ही उसे पता चल गया कि समोसा बनाना और समोसा बेचना दोनों ही अलग-अलग कला है। वह समोसा बना सकती थी पर उसे बेचने नहीं आता था। वह किसी का श्रृंगार तो कर सकती थी। पर , ग्राहक जुटा पाना उसके बस में नहीं था। घर में वह पार्लर खोल ले – केशव इसकी इजाजत तो दे सकता था पर नीरजा फुल टाइम कहीं ब्यूटीशियन की नौकरी करें। खुद केशव को गवारा नहीं था। जिस बच्चे के सुंदर भविष्य के लिए वे पटना आए थे । जब उस बच्चे का ठीक से पालन-पोषण भी नहीं हो पाता।  फिर ऐसी नौकरी – ऐसे पैसे का क्या औचित्य था।



नीरजा का भ्रम टूटा तो उसका दर्प भी टूटने लगा। दिखावे के लिए वह अपने अमीर मायके का हवाला जरूर देती थी। पर , सच्चाई उसे भी समझ में आ गया था। शादी के इतने साल बाद , उसे मायके से क्या सहायता मिल सकती है – इसे वह अच्छी तरह से जान गयी थी।

कई बार वह अपनी माँ से शिकायत भी कर चुकी थी कि –”तुम लोगों के भड़कावे में आकर मैं कहीं की नहीं रही। मैं ससुराल वालों से दुश्मनी कर के सबसे बुरी बन गई । आज यहाँ मैं आज बिल्कुल अकेली हो गई हूँ।”  

नीरजा को भली भांति अहसास हो चुका था कि वह बेवजह अमीर मायके का घमंड करती थी । माँ के पास सहानुभूति के बोल के अलावा और कुछ नहीं था । कभी कभार नीरजा के सुर में सुर मिलाकर नंदकिशोर एवं उनकी फैमिली को कोस लिया करती थी। ज्यादातर तो वह खुद की दोनों बहुओं की शिकायत किया करती थी।

बहन खुद की गृहस्थी में संघर्ष कर रही थी और मायके में दोनों भाइयों ने बंटवारा कर लिया था । स्थिति ऐसी थी की अब मायके से कोई सहयोग नहीं मिल रहा था ना मिलने की अपेक्षा बची थी।

अब नीरजा का घमंड सिर्फ पति के पद और वेतन के आसरे था। उसे लगता था कि उसके पति की आय अभी भी बड़े भैया के वेतन से ज्यादा है और हम अब भी उनसे बेहतर जीवन शैली जी सकते हैं।

उधर अभय का एक इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो गया था । नीलू भी नीट की तैयारी करने के लिए राजस्थान के कोटा शहर में भेज दी गई थी। 

नन्दकिशोर जी पर आर्थिक दबाव तो था पर बैंक प्रदत शिक्षा ऋण के कारण वह निर्वात शिक्षा पर खर्च कर रहे थे। बेटा एजुकेशन लोन लेकर पढ़ाई कर रहा था और बेटी की कोचिंग और खाने-रहने खाने का खर्च वे अपनी जेब से करते थे।

केशव के नंदकिशोर जी से रिश्ते दिनों-दिन बिगड़ते चले गयें। घर के बंटवारे के बाद, गांव की जमीन- जायदाद का भी बंटवारा हुआ। दोनों भाइयों ने दो अलग-अलग किसानों को अपनी-अपनी जमीनें बटाई पर खेती करने के लिये दी थी। बाद के दिनों में तो हालात ऐसे हो गए थे कि केशव कभी जहानाबाद आता भी था तो नंदकिशोर जी से मिलने से कतराता था। उसकी भरपूर कोशिश होती थी कि भाई-भाभी की मुलाकात से बचा जायें। लंच टाइम पर जब उसे भूख लगती थी तो , वह किसी मित्र के घर या होटल में खाना खा लेता था । 

बंटवारे के बाद उसने बड़े भाई के घर एक गिलास पानी तक नहीं पीया था। नंदकिशोर जी को आगे-पीछे सब कुछ पता चल जाता था। परंतु, उन्होंने जैसे उसे विस्मित कर दिया था। जैसे उसके होने या न होने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। पड़ता भी था तो कम से कम वे उसे व्यक्त नहीं करते थे। यहाँ तक कि प्रभादेवी के सामने भी।

रविवार का दिन था ।

चार दिन के बाद ही दिवाली थी । मकान भले ही किराये का हो –पर, साफ-सफाई तो रहने वालों को ही करनी होती है ।

नीरजा और केशव घर की साफ-सफाई कर रहें थे। केशव के हाथ में झाड़ू था और वह बालकनी में एक स्टूल पर खड़ा होकर – बालकनी की छत झाड़ रहा था। बैलेंस डगमगाए नहीं – इसके लिए नीरजा ने स्टूल को मजबूती से पकड़ रखा था।

स्टूल प्लास्टिक का था। देखने में काफी मजबूत था। पता नहीं केशव के भार से स्टूल का पाँव मुड़ा था या झाड़ने के क्रम में जो हिलडुल हुई थी – उसके कारण स्टूल एक तरफ दब गया था – केशव का भारी शरीर संभल न सका और बालकनी के रेलिंग के पार कुछ क्षण हवा में रहा फिर एक छज्जे से टकराता हुआसिर के बल जमीन पर गिरा। 

एक साथ दो चीखें गूंजी। बालकनी में हक़बकायी सी नीरजा के होंठों से और जमीन पर लहूलुहान हो चुकें केशव के कंठ से – क्षण भर में खुशी का माहौल – मातम में बदल गया था।

केशव थोड़ी देर तक छटपटाता रहा फिर उस पर बेहोशी तारी होती चली गई ।

आवाज सुनकर कई लोग लपक कर वहाँ पहूँचे थे। केशव का सिर बुरी तरह से फटा हुआ था। कँधे लुंज- पुंज से हो चुके थे । किसी भले मानस ने एक गमछे से केशव का सिर जोरों से बांधा । ताकि, रक्त स्राव बंद हो सके तो किसी ने एंबुलेंस के लिए फोन कर दिया । 

आधे घंटे के अंदर जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करता हुआ केशव पटना मेडिकल कॉलेज के इमरजेंसी वार्ड में था । 

दोनों साले और साली भी अस्पताल पहुँच गए थे। बड़े साले ने कुछ सोचकर नंदकिशोर जी को मोबाइल पर खबर कर दी। घर में जैसे कोहराम मच गया था।

तीन घंटे के बाद नंदकिशोर एवं प्रभादेवी भी पटना अस्पताल में पहुँच गए ।

नंदकिशोर जी ने करीबी दोस्तों से मदद मांगी थी। कुछ दोस्त नगद रुपये लायें थे तो कुछ दोस्तों ने अपना एटीएम कार्ड तक दे दिया था। घर में पड़े हुए पैसे भी ले लिए गये थे और थोड़े पहनने के कपड़े रख कर पति-पत्नी – पड़ोस में रहने वाले एक टैक्सी संचालक से गाड़ी भाड़े पर लेकर पटना के लिए रवाना हो गए थे। जब वे अस्पताल पहुँचे तब तक केशव की सर्जरी शुरू हो गयी थी। केशव की हालत गम्भीर थी। सर तो फटा था ही कंधे और दाहिनें हाथ की हड्डियां भी बुरी तरह से टूट चुका था। ज़्यादा खतरा सिर के चोट से ही था।

नीरजा ने जब नंदकिशोर जी और प्रभा देवी को देखा तो उसे एकबारगी यकीन भी नहीं हुआ था कि इस संकट की घड़ी में वे लोग साथ थे। नीरजा की पलकें एक बार फिर भींग गयी।वह चीत्कार मार कर प्रभा देवी से लिपट गयी। दोनों की आँखें बरसने लगी।

जब रोना सिसकना कम हुआ तो नन्दकिशोर जी दखलन्दाज़ हुए , बोले –” इलाज के लिये रुपये पैसे तो है ?”

” सचिवालय स्टाफ हैं। इसलियें पैसे की समस्या नहीं है आगे पीछे सब कुछ मैनेज हो जायेगा।”

” फिर भी कोई जरूरत हो तो बेझिझक बोलना – मैं इंतजाम करके आया हूँ।”

“मैं भी अपने सारे गहने ले कर आई हूँ।” – प्रभा देवी धीरे से बोली।



“ऐसी जरूरत नहीं पड़ेगी भईया। इनके एक अफसर आये थे बोल रहें थे कि अच्छा से अच्छा इलाज होगा – ज़रूरत पड़ी तो एम्स भी भिजवा देंगें।”

“हूँ। कोई कुछ करें न करें पर इलाज और पैसों की कमी के कारण मैं मेरे भाई को कुछ भी नहीं होने नहीं दूँगा।

नीरजा नन्दकिशोर जी को श्रद्धापूर्वक देखती रह गयी।

दिवाली की शाम थी।

वातावरण में अंधेरा छाने लगा था। लोग दिवाली के दिये निकालने लगे थे और बच्चों ने पटाखे जलाने शुरू कर दिया था।

केशव का ऑपरेशन सफल रहा था । टूटी हड्डियों में रॉड डालकर प्लास्टर कर दिया गया था। फटा हुआ सर – सर्जरी कर – टांके लगा दिए गए थे। पर, कयामत अभी टला नहीं था । कॉम्प्लिकेशन कभी भी शुरू हो सकता था। इसलिए गहन जांच के लिए उसे आई सी यू में भर्ती किया गया था । 

आज सुबह से ही अस्पताल में मायके का कोई सदस्य नहीं आया था। सभी को अपने त्यौहार की फिक्र थी। अपने बच्चों की खुशियों की परवाह थी। 

बुरे से बुरे हालत में भी कोई अपनी दिवाली नहीं छोड़ना चाहता था। प्रभादेवी और नंदकिशोर जी जब से पटना आए थे – अस्पताल से वह कहीं बाहर नहीं गए थे । नहाना-धोना भी वही अस्पताल के किसी बाथरूम में कर लेते थे। खाने के लिए कोई घर से लाकर कुछ दिया तो ठीक है अन्यथा हॉस्पिटल के कैंटीन में जो मिलता था – लाकर पति-पत्नी खा लेते थे । साथ ही नीरजा को भी खिला देते थे। गोलू को उसकी मौसी अपने साथ पहले ही दिन ले गई थी। 

दूर कहीं पटाखे फूटने की आवाज आयी तो ख्यालों में डूबे नंदकिशोर जी की तंद्रा टूटी ।

 “आज दिवाली है ना!”

” हाँ।”  नीरजा बोली।

“बेटा, तुम घर जाओ – पूजा कर लो।”

“मैं क्या पूजा करुँ भईया – मेरी तो दिवाली ही काली हो गई है।”

“ऐसा नहीं बोलते – ईश्वर की कृपा अभी भी है ।समझों, कोई बुरा ग्रह था जो कट गया। जख्मी करके निकल गया। भगवान का आभार प्रकट करो ।”

“फिर आप लोग भी साथ चलिये।”

“मेरा यहाँ रखना जरूरी है । पता नहीं, कब क्या जरूरत पड़ जाये। तुम और प्रभा हो आओं।”– नंदकिशोर जी बोले ।

“मैं नहीं।”– प्रभादेवी बोली – ” मैं यही रहूँगी।”

“क्यों ?”

“मैंने प्रण किया है कि मैं केशव के साथ घर जाउँगी । हँसता-मुस्कुराता हुआ केशव को साथ लेकर।” 

“दीदी, लगता है आप अभी भी मुझसे नाराज हैं!”

 “हाँ हूँ, और आगे भी रहूँगी। पर मेरी नाराजगी अपनी जगह है। केशव मेरे लिए बेटे जैसा है– जब सासु माँ ने आँखें मूंद ली थी – तभी मैंने इसे अपना बेटा समझ लिया था और बेटे को बड़ा करने में मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी।”–  कहते-कहते प्रभादेवी रो पड़ी।

नीरजा को समझ नहीं आया कि वह बोले तो क्या बोले। सारा दर्प घमंड अहंकार जो कि पहले ही चूर-चूर हो गया था। अब त्यागने के लिए उसके पास झूठा घमंड भी नहीं था। 

प्रभादेवी जो बेंच पर बैठी थी ।नीरजा फर्श पर बैठ कर अपना सर उनकी गोद में रख दी फिर फफक-फफक कर रोने लगी ।

मन का बचा-खुचा मैल भी अब उसकी आँखों से बाहर निकल रहा था।

                                       अरुण कुमार अविनाश

 

3 thoughts on “घमण्ड –  अरुण कुमार अविनाश”

  1. क्या करूं कहने को शब्द ही नहीं बचे हैं,आकस्मिक दुर्घटना भी परिवार को जोड़ने का काम कर सकती है,आश्चर्य चकित हूं !

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